अमेरिकी विदेश नीति अमेरिकी प्रभुत्व पर आधारित रही है जिसमें इस तथ्य पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाता है की विदेशों में अग्रणी भूमिका बनाएं रखने में कौन सा देश उसका सबसे ज्यादा सहयोगी है तथा इस भागीदारी को और कैसे पुख्ता किया जा सकता है। दुनिया के सबसे ताकतवर देश की विदेश नीति मनोवैज्ञानिक दबाव की रणनीति पर आगे बढ़ने से संकोच नहीं करती,यह सामरिक,आर्थिक या राजनैतिक हो सकता है। इस समय भारत और अमेरिका के संबंधों को इतिहास का बेहतरीन दौर बताया जा रहा है लेकिन असल में कूटनीतिक वास्तविकताएं अविश्वास की खाई को पाट नहीं सकी है। इतिहास को पीछे छोड़कर दोनों देशों के शीर्ष राजनेता एक दूसरे के प्रति सार्वजनिक आलोचनाओं से परहेज भले ही करें,साझेदारी की अमेरिकी शर्तों के प्रति भारत का सतर्क रुख अमेरिकी नीति निर्माताओं को असहज कर रहा है।
दरअसल वॉशिंटगन पोस्ट में छपी एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया की भारत ने 2023 के मालदीव चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की थी तथा मोदी सरकार भारत समर्थक इब्राहिम सोलिह को राष्ट्रपति बनाए रखना चाहती थी। इस रिपोर्ट का खंडन भारत और मालदीव दोनों देशों के द्वारा किया गया। सूचना युद्ध उन्नत युद्धक्षेत्र प्रबंधन रणनीतियों का एक हिस्सा है। शांति काल में इसका लक्ष्य अक्सर राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाना और विदेशी देश में जनता की राय को प्रभावित करना होता है। अमेरिका और रूस के बीच सूचना युद्द की तीव्रता भले ही अत्यधिक हो,भारत को लेकर भी अमेरिकी कूटनीति की भूमिका बेहद आक्रामक नजर आती है। अमेरिका का सूचना और ख़ुफ़िया तंत्र खालिस्तानी आतंकवाद,कनाडा और मानवाधिकार को लेकर भारत विरोधी रुख अपनाता रहा है। पिछले साल सितम्बर में प्रधानमंत्री मोदी क्वाड शिखर सम्मेलन में भाग लेने अमेरिका पहुंचे थे,उसके कुछ घंटे पहले व्हाइट हाउस में अमेरिकी अधिकारियों ने खालिस्तान आंदोलन के समर्थक सिखों के एक समूह से मुलाकात की थी। इस दौरान व्हाइट हाउस ने उन्हें अपनी धरती पर किसी भी अंतरराष्ट्रीय आक्रमण से सुरक्षा का आश्वासन भी दिया।
बांग्लादेश में शेख हसीना की जरूरत को भारत के द्वारा अमेरिकी प्रशासन के सामने रखने के बाद भी हसीना की सरकार का तख्तापलट और उसके बाद की राजनीतिक परिस्थितियां भारत के लिए बेहद प्रतिकूल दिखाई दे रही है। शेख हसीना की सरकार के पतन में अमेरिका की भूमिका को लेकर कई तथ्य सामने आयें है। अमेरिका ने भारत के हितों को नजरअंदाज कर बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा कर दी,भारत इस प्रकार की अमेरिकी कोशिशों का विरोध करता रहा है। श्रीलंका,बांग्लादेश,मालदीव और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में भारत का सांस्कृतिक प्रभाव रहा है और इसका असर राजनीतिक परिस्थितियों पर भी पड़ता है। इन देशों में भारत की मजबूती से चीन के हित प्रभावित होते है लेकिन इन देशों में अमेरिका भारत से जिस प्रकार की साझेदारी की इच्छा रखता है,भारत के लिए उस पर आगे बढ़ना सामरिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है। अमेरिका हिन्द प्रशांत की रणनीति के केंद्र में भारत को आगे रखने की कोशिशें करता रहा है,वहीं भारत ने चीन को वैसी आक्रामकता नहीं दिखाई है,जिसकी अमेरिका ने अपेक्षा की थी। अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में यह उल्लेख किया गया है,चीन इंडो-पैसिफिक में अमेरिका को विस्थापित करना चाहता है और अपने राज्य-संचालित आर्थिक मॉडल की पहुंच का विस्तार करना चाहता है। चीन सैन्य,आर्थिक और तकनीकी रूप से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। इसकी तकनीकी महत्वाकांक्षाएं इसके सैन्य विकास से अटूट रूप से जुड़ी हुई हैं। भारत चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं का विरोध तो करता है लेकिन इसे युद्द की कगार पर ले जाने वाली अमेरिकी योजनाओं का भाग बनने को वह बिल्कुल तैयार नहीं है।
एशिया में अमेरिकी प्रभाव को आगे बढ़ाने में दक्षिण कोरिया,जापान और ऑस्ट्रेलिया अमेरिका की महत्वपूर्ण भागीदार अवश्य हो,लेकिन इन देशों के चीन से मजबूत आर्थिक संबंध है। ये देश अमेरिका के चीन को लेकर आर्थिक अलगाव की नीति से इत्तेफाक रखते हुए आगे बढ़ते कभी नहीं दिखाई दिए। वहीं भारत की आर्थिक और सामरिक चुनौतियों में अमेरिका ने अवसर ढूंढने की अक्सर कोशिश की है। अपनी सफलता को सुनिश्चित करने के लिए वह भारत पर दबाव बढ़ाने की कूटनीति आजमाता रहता है,हालांकि भारत की सामरिक स्वायत्ता की नीति भी अमेरिका को परेशान करती रही है। भारत द्विपक्षीय सैन्य संबंधों को विकसित करने और पारंपरिक सुरक्षा खतरों के खिलाफ़ कठोर शक्ति का निर्माण करने पर अधिक तत्काल ध्यान केंद्रित करना चाहता है। भौगोलिक और रणनीतिक दृष्टि से भारत के लिए रूस ज्यादा अहम हो जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा और सफल लोकतंत्र भारत अपनी विविधता और संप्रभुता को ध्यान में रखकर कूटनीतिक कदम उठाता है। सैन्य गठ्बन्धनों से समान दूरी प्रारम्भ से ही भारत की गुट निरपेक्ष नीति रही है। भारत ये मानता है कि आर्थिक विकास की तेज़ गति हासिल करने के लिए उसे किसी गठबंधन व्यवस्था के खांचे से दूरी बनाकर रखनी होगी।
दक्षिण एशिया को लेकर कई बार अमेरिका की व्यापक नीति,भारत के मूलभूत हितों से अलग होती है। भारत की स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकी पर रूस का प्रभाव है। तकनीकी हस्तांतरण को लेकर रूस ने भारत पर जो भरोसा दिखाया है,वह अमेरिका ने कभी नहीं दिखाया। भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग बढ़ने के बाद भी भारत इस बात को लेकर आशंकित रहता है की वह सुरक्षा प्रतिष्ठानों को प्रतिबंधित भी कर सकता है। पिछले साल अमेरिका ने यूक्रेन में रूस के युद्ध प्रयासों में मदद करने के आरोप में 19 भारतीय कंपनियों पर प्रतिबंध लगा दिया। 2023 में भी एक भारतीय कंपनी पर रूसी सेना की मदद करने के आरोप में प्रतिबंध लगाया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका हिन्द प्रशांत में अपनी रणनीति को प्रभावी ढंग से लागू करने और अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल इसलिए है क्योंकि वह भारत का भरोसा नहीं जीत पाया है। जाहिर है बेहतर परिणामों के लिए अमेरिका कोभारत और भारत के पड़ोसी देशों में अवांछित हस्तक्षेप की नीति से बचना होगा।
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