आदिवासियों का धर्म- भारत में धर्म हठवाद की हैसियत नहीं रखता…
झारखंड के रांची में विभिन्न आदिवासी जातीय समूह अलग धर्म सरना की मान्यता देने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे ठीक उसी समय छत्तीसगढ़ के सुकमा में रामाराम मेलें में आदिवासी भगवान राम की आराधना में डूब कर जश्न मना रहे थे।
दक्षिण बस्तर में सुकमा जिला आता है और यहीं पर हर साल फरवरी में रामाराम मेलें का आयोजन होता है। आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में यह मान्यता है की दक्षिण गमन के दौरान प्रभु राम ने इस स्थान पर रुक कर भू देवी की आराधना की थी। दरअसल हिन्दुओं का सबसे प्राचीन रूप जनजातीय धर्म है,आदिवासी लोगों की रीति नीति,विश्वास,अनुष्ठान,संस्कार,देवी और देवताओं,पर्व,त्यौहारों,वैवाहिक प्रथाओं, आत्मवाद,दाह संस्कार,लोकगीतों आदि में यहीं प्राचीन रूप प्रतिबिम्बित होता है। आदिवासी ब्रह्मवाद या जीववाद में विश्वास करते है और यह मानते है कि वन्य जीवन की खुशियों और विपदाओं के पीछे अलौकिक शक्तियाँ होती है। वे इन शक्तियों को प्रसन्न रखने की कोशिश में लगे रहते है।
रेड कॉरिडोर के अधिकांश इलाके घने वनों से होकर गुजरते है और यहां आदिवासी संस्कृति और सभ्यता की बेहतर तस्वीर दिखाई पड़ती है। आदिवासी प्रकृति प्रेमी तो होते ही है और उनका जीवन भी प्रकृति की सुंदर वादियों में और खुबसूरत दिखाई देता है। छत्तीसगढ़ के सुकमा,दंतेवाडा या अबूझमाड़ से निकलकर उड़ीसा के मलकानगिरी के घने वन क्षेत्रों में चले जाइये या बीजापुर से लगती हुई गोल्लापल्ली की पहाड़ी से होकर तेंलगाना में प्रवेश कर जाइये। मध्यप्रदेश के बालाघाट के लांजी के घने जंगलों से गुजरकर छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव जिले में प्रवेश हो या महाराष्ट्र के गोंदिया से होकर गडचिरोली चले जाइये। इन सभी इलाकों में एक खास बात होती है की जो चले गए,उन्हें आदिवासी बेहद खास तरीके से याद करते है। आदिवासियों में अधिकांश दफनाने की परम्परा होती है। गडचिरोली के घने जंगलों में माडिया लोग,मृत्यु के बाद कच्ची कब्र बनाकर,मृतक का सारा सामान वहीं रख देते है और यदि वह महिला है तो उसके आसपास साड़ियाँ बांध देते है।
रेड कॉरिडोर के इन इलाकों में कहीं पर गोंड,कहीं पर माडिया,कहीं पर हल्बी या बैगा मिल जायेंगे। इनके भी विभिन्न समूह होते है। जैसे बैगा में बिझवार, नरोतिया,भरोतिया,नाहर,राय भैना और काढ़ भैना कुछ उपजातियाँ हैं। गोंड में धुरिया,नायक,ओझा,पठारी और राजगोंड है। माड़िया में अबुझ माड़िया और बाईसन होर्न माड़िया। इन आदिवासी समूहों के द्वारा मृतक की याद में बनाएं गए स्मारक अजब गजब होते है। घने वन क्षेत्र में घोड़े पर बैठे शख्स का स्मारक और उसके हाथ में तलवार,कहीं पर बंदूक,कहीं पर शेर की सवारी या कहीं पर हवाई जहाज़ की आकृति। अपनों को याद करने का आदिवासियों का अंदाज और कल्पनाशीलता चमत्कृत कर देता है। प्राचीन समय से ही हिन्दुओं में पूर्वजों की पूजा प्रचलित है,आदिवासी लोग इस प्रथा को पालन पूरी पवित्रता से करते आ रहे है। भारतीय जनजातियों में यह भी विश्वास किया जाता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य की आत्मा शरीर में जीवित रहती है और वह किसी जानवर,पक्षी या अन्य जीवधारी के शरीर में प्रविष्ट हो जाती है। आदिवासी इलाकों में मृतक आदमी के रक्त सम्बन्धी अपने बाल मुंडवाते है और कब्र पर श्रद्धा व बलिदान के रूप में अर्पिल कर दिए जाते है।
छत्तीसगढ़ का एक महत्वपूर्ण त्योहार है अक्ती जो खेतों में बीज बुवाई से पहले मनाया जाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा भारत के भिन्न भिन्न इलाकों में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। इस त्योहार में गांव के स्थानीय देवी-देवता की पूजा की जाती है। त्योहार का सबसे खास पक्ष यह होता है कि भूमि को माता के रूप में पूजा जाता है। इस अवसर पर अनुष्ठान होता है जहां नारियल और मुर्गी की पूजा अर्चना की जाती है और मुर्गी की बलि दी जाती है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी देवी देवताओं की बात की जाएं तो रक्त मावली,मंगला मां और दंतेश्वरी मां प्रमुख है। आदिवासी इनकी आराधना में डूबे रहते है। रक्त मावली मुंह से खून बहती रहती है। एक हाथ में खड़ग,एक हाथ में त्रिशूल एवं बाल बिखरे हुए दिखाई देती है। मंगला मां एक हाथ में त्रिशुल,एक हाथ खड्ग और हाथ भर चुड़ी लिए होती है। दन्तेश्वरी मां दुर्गा अवतार लिए है। इसका पहचान महिषासुर का वध किए दिखाया जाता है।
हिमालय का सांस्कृतिक इतिहास मानव के उद्भव से जुड़ा है और यहां पर शैव दर्शन से प्राचीन जनजातीय धर्म आलौकित हुआ। वृहत हिमालय की श्रृंखलाओं में भू – गर्भ शास्त्रियों और मानव वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गए आरम्भिक मानव के जीवाश्म सम्बन्धी तथ्यों का भण्डार इसकी पुष्टि करता है। सरना धर्म की मांग करने वाली आदिवासी समूहों की अलग धर्म को लेकर अजीब सी दलीलें है जो ऐतिहासिक तथ्यों और भारतीय जीवन पद्धति को झुठलाने का प्रयास नजर आती है। भारत के साधु संत जंगलों में जीवन व्यतीत करते है और उनकी तपस्या में प्रकृति के नियम पर चलना अनिवार्य होता था। यहां तक की महात्मा गांधी ने भी पर्यावरण संरक्षण को आश्रम पद्धति से जोड़कर जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बताया था। जाहिर है, आदिवासियों के जीने की पद्धति हजारों सालों में विशुद्ध भारतीय रही है,उनका अस्तित्व धार्मिक मान्यताओं को लेकर भी विशुद्ध भारतीय ही है। भारत में धर्म हठवाद की हैसियत नहीं रखता,यह आध्यात्मिक शांति को अलग अलग स्थितियों में भी बनाएं रखने की सीख देता है। भारतीय सभ्यता विविधताओं को अंगीकार करती है तथा विरोधाभास के बाद भी उसकी ग्राह्यता चमत्कृत कर देती है।
भारत की आदिवासी संस्कृतियां और इसके साथ – साथ विभिन्न पौराणिक समूहों की विविध संस्कृतियां मिलकर ही भारतीय संस्कृति का निर्माण करती है। झारखंड और छत्तीसगढ़ के किसी आदिवासी समूह की अलग पहचान का दावा संकीर्णता है,इससे भारतीय सभ्यता की विशालता प्रभावित नहीं हो सकती।
#ब्रह्मदीप अलूने
(#सुकमा ग्राउंड जीरो,किताब के लेखक)
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