राष्ट्रीय सहारा
अरब के कई देशों में व्याप्त धार्मिक कट्टरता और तानाशाही राजनीतिक प्रवृतियों का प्रभाव इसराइल जैसे लोकप्रभुता सम्पन्न देश पर भी पड़ सकता है,यह विचार कुछ वर्षों पहले असंगत लगता था लेकिन अब यह यथार्थ में बदल गया है। इस समय इजराइल की सत्ता में ज़ियोनिज़्म विचारधारा वाले धार्मिक और धुरदक्षिणपंथी नेता है जो अरबियों को गोली मारने,उन्हें नियंत्रित करने तथा देश से बाहर निकाल फेंकने की बात कहते है। नेतन्याहू सरकार में नस्लवाद और अरब विरोधी नीतियों के समर्थक नेता देश के अहम पदों पर बैठा दिए गए है। इतमार बेन-ग्वेर को राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री और इसराइल पुलिस के साथ-साथ यहूदी कब्ज़े वाले वेस्ट बैंक का इंचार्ज बनाया गया है। इतमार यहूदी बस्तियां बसाने का समर्थन करने वाले कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा दल ओज़्मा येहूदीत के नेता हैं। ये पार्टी नस्लवाद और अरब विरोधी नीतियों की समर्थक है। इतमार युवा यहूदियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। वे नस्लवादी हिंसा भड़काने वाले बयान देने और एक यहूदी चरमपंथी समूह का समर्थन करने के आरोप में जेल जा चुके हैं।
लोकतंत्र की नव दक्षिणपंथी विचारधारा कल्याणकारी राज्य की मूलतः विरोधी मानी जाती है। इजराइल की सत्ता में इस समय धुर दक्षिणपंथी दलों का प्रभाव है और इससे देश के उदार लोकतांत्रिक ढांचे के कमजोर होने का संकट गहरा गया है। जनता न्यायपालिका किए कमजोर होने की आशंका से ग्रस्त होकर सरकार के खिलाफ सड़कों पर है। देश के कई शहरों में सरकार विरोधी प्रदर्शन हो रहे है। इसमें सभी वर्ग के लोग शामिल है,यहां तक की सैन्य बलों से जुड़े अधिकारी भी सरकार की नई योजना का विरोध कर रहे है। हालांकि लोगों के दबाव में सरकार ने बदलाव की यह योजना अस्थायी रूप से टाल तो दी है लेकिन पीएम नेतान्याहू के इरादें सख्त नजर आ रहे है।
इस साल जनवरी में इसराइल के न्याय मंत्री ने देश की न्याय व्यवस्था में बदलाव के लिए सुधार का प्रस्ताव पेश किया था। इसमें किसी क़ानून को खारिज करने का न्यायपालिका का अधिकार खत्म करने तथा जजों की नियुक्ति में सरकार की सहमति आवश्यक करने की बात कहीं गई। प्रस्ताव की शर्तों से देश का लोकतांत्रिक समाज बूरी तरह भड़क गया और लोगों ने नाजीवाद की तर्ज पर देश को ढालने की राजनीतिक कोशिश बताया। इसराइल और दुनिया में कई लोग प्रस्तावित सुधारों और नाज़ी जर्मनी के दौर में लाए उस कानून के बीच समानता देखते हैं,जिसने उन्हें अपनी योजना के लिए किसी भी कानूनी बाधा को दूर करने में सक्षम बनाया था। लोगों ने इसे प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की उन राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं से भी जोड़ा जिससे देश संकट में पड़ सकता है। नेतन्याहू पर रिश्वत लेने,धोखाधड़ी और विश्वासघात के आरोपों में मुक़दमा चल रहा है। इन आरोपों की वजह से ही पिछले साल जून में लगातार बारह साल तक पीएम रहने के बाद नेतन्याहू को अपना पद छोड़ना पड़ा था।
बीते साल नवंबर में हुए चुनावों में बिन्यामिन नेतन्याहू ने सत्ता में वापसी की थी। विरोधियों का कहना है कि अदालतों पर नियंत्रण के ज़रिये नेतन्याहू अपने ख़िलाफ़ लगे भ्रष्टाचार के मामलों से बचना चाहते हैं। प्रस्ताव पारित होने के बाद इसराइल की संसद के पास साधारण बहुमत से सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को रद्द करने की शक्ति होगी। ये मौजूदा सरकार को बिना किसी डर के कानून पारित करने में सक्षम बना सकता है। विपक्षियों का मानना है कि नई सरकार इसका इस्तेमाल प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू पर चल रहे आपराधिक मुक़दमों को ख़त्म करने के लिए कर सकती है। इससे भ्रष्टाचार बढ़ेगा,लोकतंत्र सीमित होकर सत्ता की तानाशाही बढ़ेगी और इसराइल कूटनीतिक तौर पर दुनिया में अलग-थलग पड़ जाएगा। नेतन्याहू पर दक्षिणपंथी पार्टियों का भारी दबाव है और वह अन्य न्यायिक फैसलों को भी सत्ता के अनुरूप देखना चाहती है। अगर ये सुधार कानून के तौर पर पारित हो जाता है तो इससे सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट में चुनौतियों की चिंता के बगैर कब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियों के पक्ष में कानून बनाना आसान हो सकता है। इन प्रस्तावित सुधारों से अल्पसंख्यकों के अधिकारों को बड़ा झटका लग सकता है।
इज़रायल दक्षिण पश्चिम एशिया का एक स्वतंत्र प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य है जिसकी बहुसंख्यक आबादी यहूदी है। 1948 में इज़राइल को आधुनिक राज्य के रूप में यहूदी लोगों ने स्थापित अवश्य किया है लेकिन इस क्षेत्र में यहूदियों के अलावा कई लोगों और धर्मों के लिए हजारों वर्षों का इतिहास शामिल है। यहां यहूदियों के साथ ही इस्लाम और ईसाई धर्म को मानने वाले भी रहते है। इज़रायल से लगता हुआ क्षेत्र दुनिया की उन खतरनाक जगहों में शुमार है जहां अशांति बढ़ने का वैश्विक प्रभाव होता है और इससे हिंसा कई देशों में फैलने का खतरा बना रहता है।
नेतन्याहू की सरकार देश में यहूदियों के हितों की रक्षा के नाम पर देश के संविधानिक ढांचे पर प्रहार करना चाहती है। 1950 ई. में संसद ने समय-समय पर मूल नियमों को अधिनियमित करने का प्रस्ताव पारित किया। ये ही अधिनियमित मूल नियम समग्र रूप में इज़रायल के संविधान के नियामक हैं। इजरायल में जनतन्त्रीय शासन है। वहाँ एक संसदीय पार्लियामेंट है जिसे सीनेट कहते हैं। देश के इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है जब न्यायपालिका ने सरकार और अहम पदों पर आसीन लोगों को कानून के अनुसार चलने के लिए बाध्य किया है,इससे साधारण लोग लोकतंत्र और मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका पर ज्यादा भरोसा दिखाते रहे है। नेतान्याहू बदलावों के जरिए मनपसन्द जज चाहते है। लोगों को लगता है कि इससे देश की समूची न्याय प्रणाली अवरुद्द हो जाएगी और उनकी विश्वसनीयता में भी कमी आ सकती है। ऐसे में देश में गृह युद्द जैसे हालात बन सकते है।
नेतान्याहू कहते है कि वे न्यायपालिका की शक्ति को संतुलित करना चाहते है जबकि उनके विरोधी इसे देश के लिए घातक बता रहे है। उनका मानना है कि इससे कार्यपालिका के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट के फैसले देने की क्षमता भी प्रभावित होगी। इस बदलाव से किसी कानून को रद्द करने के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की ताकत सीमित हो जाएगी। संसद में लाए जा रहे इन प्रस्तावित बदलावों से न्यायपालिका का राजनीतिकरण हो जाएगा। इससे देश में तानाशाह सरकार का रास्ता साफ हो जाएगा।
यह भी दिलचस्प है कि नेतन्याहू देश के इतिहास में अब तक से सबसे दक्षिणपंथी सहयोगियों के बूते सरकार चलाना चाहते है। इस बार इसराइल में धुरदक्षिणपंथी विचारधारा को व्यापक जनसमर्थन मिला है। इसकी वजह से हेब्रॉन और दूसरी जगहों पर यहूदी बस्तियां बसाने का समर्थन करने वाली कट्टर राष्ट्रवादी ताकतें और मज़बूत हुई हैं।
इन सबके बीच इसराइल का महत्वपूर्ण तबका देश में विविधता का सम्मान देखना चाहता है और इसीलिए वह सड़कों पर है। इसमें सभी वर्गों के लोग शामिल है जो देश के कई महत्वपूर्ण पदों पर भी प्रतिनिधित्व करते है। इनका मानना है कि धुर दक्षिण पंथी ताकतों के सत्ता में पूरी तरह हावी होने से पड़ोसी देशों से उनके सम्बन्ध फिर बिगड़ सकते है जिससे हिंसा भी इजाफा हो सकता है। नेतन्याहू के सख्त इरादों के कारण इसराइली समाज में मत भिन्नता अभूतपूर्व रूप से सामने आई है। जाहिर है धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने की राजनीतिक कोशिशों के खिलाफ इसराइली समाज का यह रुख मध्यपूर्व के लिए शुभ संकेत है।
#ब्रह्मदीप अलूने
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