स्वतंत्र समय
एक देश,एक चुनाव
संविधानिक बदलाव,आंतरिक सुरक्षा,भौगोलिक विविधता और राजनीतिक विरोधाभास की चुनौती
आज़ादी के बाद के दो दशक कांग्रेस की केंद्र और राज्य में समान लोकप्रियता के साल थे इसलिए देश में केंद्र और राज्य के चुनावों में एकरूपता बनी रही। लेकिन 1957 में स्वतंत्र भारत की पहली गैर-कांग्रेस सरकार केरल राज्य में बनी और कम्युनिस्ट पार्टी के तथा प्रथम गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री ई. एम. एस. नंबूदरी पाद बने। यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1959 में इसे बर्खास्त कर दिया। यहीं से भारतीय लोकतंत्र में यह साफ हो गया की भारत में राज्यों और केंद्र में एक साथ चुनाव नहीं हो सकते। इसका सबसे प्रमुख कारण राज्यों पर केंद्र के नियन्त्रण से जुड़ा हुआ था। ऐसे में केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार,किसी राज्य की गैर राजनीतिक दल की सरकार को कभी भी दबाव में लाने में सक्षम रही है लिहाजा कई राज्यों की सरकारें असमय भंग होती रही।
सितम्बर 1988 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई के नेतृत्व में जनता दल राज्य की बहुमत वाली पार्टी बनी थी। मंत्रालय में 13 सदस्यों को रखा गया। लेकिन इसके दो दिन बाद ही जनता दल विधायक के आर मोलाकेरी ने राज्यपाल के समक्ष एक पत्र पेश किया जिसमें उन्होंने बोम्मई के खिलाफ अर्जी दी थी। उन्होंने अपने पत्र के साथ 19 अन्य विधायकों की सहमति पत्र भी जारी किया था। इसके बाद राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें कहा गया था कि सत्ताधारी पार्टी के कई विधायक उनसे खफा हैं। राज्यपाल ने आगे लिखा था कि विधायकों द्वारा समर्थन वापस लेने के के बाद मुख्यमंत्री बोम्मई के पास बहुमत नहीं बचता है जिससे उन्हें सरकार बनाने नहीं दिया जा सकता। राज्यपाल की इस रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति से घोषणा करवा कर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया।
इसके बाद राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदला और कुछ दिन बाद ही उन्नीस विधायक जिनके हस्ताक्षर के बल पर असंतोष प्रस्ताव पेश किया गया था,उन्होंने यह दावा किया कि पहले पत्र में उनके हस्ताक्षर जाली थे और उन्होंने फिर से अपने गठबंधन को समर्थन देने की पुष्टि की। इसके बाद मामले को लेकर कोर्ट में याचिका दाखिल की गई। इस मुकदमे के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य की सरकारों को बर्खास्त करने संबंधी अनुच्छेद की व्याख्या की और कहा कि अनुच्छेद 356 के तहत यदि केन्द्र सरकार राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करती है तो सर्वोच्च न्यायालय सरकार बर्खास्त करने के कारणों की समीक्षा कर सकता है और न्यायालय केंद्र से उस सामग्री को कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कह सकता जिसके आधार पर राज्य की सरकार को बर्खास्त किया गया है। इस निर्णय में राज्यपालों को यह हिदायत भी दी गईं की ‘किसी भी राज्य सरकार को बहुमत हैं या नहीं हैं,इसका निर्णय राजभवन में नहीं होना चाहिए इसका निर्णय विधानसभा में होना चाहिए. इसके बाद देश में राज्य सरकारों को असमय भंग करने के सिलसिले में कमी आ गई।
क्षेत्रीय दलों के हित अलग अलग चुनाव में सुरक्षित
राजनीतिक स्थिरता से किसी अन्य प्रकार की स्थिरता का भ्रम नहीं करना चाहिए तथा इसका अभिप्राय किसी प्रकार की सरकार या सत्ता की स्थिरता नहीं है। भारतीय गणतन्त्र विस्तार,क्षेत्र,जनसंख्या और संसाधनों की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। भारत का लोकतंत्र मजबूत और सफल इसलिए है क्योंकि आमतौर पर आज़ादी के बाद सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्वक होता रहा तथा आम चुनाव राजनीतिक व्यवस्था के नवीनीकरण के अवसर प्रदान करते है। हालांकि भारत में चुनाव परिणाम यह बताते है की केंद्र और राज्य की सरकारों को लेकर आम जनता में मत भिन्नता होती है और वे अपने मत के जरिये कई बार असाधारण परिणाम देते रहे है। क्षेत्रीय दल यह विश्वास करते रहे है की राज्यों के आम चुनाव अलग से ही होना चाहिए क्योंकि वे क्षेत्रीय मुद्दों को ठीक प्रकार से उठा सकते है।
भारत का चुनाव मॉडल
2019 लोकसभा चुनाव सात चरणों में हुए थे और ये करीब 40 दिनों तक चलें। लोकसभा के साथ ही ओडिशा,अरुणाचल प्रदेश,सिक्किम और आंध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव भी आयोजित हुए। देश के तीन बड़े राज्य उत्तर प्रदेश,पश्चिम बंगाल और बिहार में सातों चरणों में मतदान हुआ। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ब्रितानी वेस्टमिन्स्टर मॉडल पर आधारित बताई जाती है। हालांकि ब्रिटेन में आम चुनाव के लिए एक ही दिन मतदान होता है,शाम होते-होते एग्ज़िट पोल आ जाते हैं और रातों-रात मतगणना करके अगली सुबह तक लोगों को चुनाव नतीजे भी मिल जाते हैं। मगर भारत में ऐसा नहीं होता है। मतदान के दौरान सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए इतने बड़े देश में कई चरणों में मतदान कराए जाते हैं। हर चरण के मतदान के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम को मतगणना तक सुरक्षित रखा जाता है।
संविधानिक बदलाव
भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। वन नेशन वन इलेक्शन का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों। यानी मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे। विधि आयोग के अनुसार वन नेशन वन इलेक्शन के प्रस्ताव से संविधान के अनुच्छेद 328 पर भी प्रभाव पड़ेगा,जिसके लिए अधिकतम राज्यों का अनुमोदन लेने की जरूरत भी पड़ सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 368(2) के अनुसार,ऐसे संशोधन के लिए न्यूनतम 50 फीसदी राज्यों के अनुमोदन की जरूरत होती है। एक देश, एक चुनाव के तहत हर राज्य की विधानसभा के अधिकार और कार्यक्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए इस मामले में सभी राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदन लेने की जरूरत पड़ सकती है। इसके बाद जनप्रतिनिधित्व कानून समेत कई दूसरे कानून में संशोधन करने होंगे।
संविधान के संशोधन की प्रक्रिया जटिल
संविधान में संशोधन की प्रक्रिया केवल संसद के किसी भी सदन में एक विधेयक पेश करके शुरू की जा सकती है,न कि राज्य विधानसभाओं में।
- विधेयक को या तो एक मंत्री या एक निजी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है और इसके लिये राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है।
- विधेयक को प्रत्येक सदन में विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिये अर्थात् सदन की कुल सदस्यता का बहुमत और सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से।
- प्रत्येक सदन को अलग से विधेयक पारित करना होगा। दोनों सदनों के बीच असहमति के मामले में संयुक्त बैठक आयोजित करने का कोई प्रावधान नहीं है।
- यदि बिल संविधान के संघीय प्रावधानों में संशोधन करना चाहता है, तो इसे आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा साधारण बहुमत से भी अनुमोदित किया जाना चाहिये।
- संसद के दोनों सदनों द्वारा विधिवत पारित होने और राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित होने के बाद जहाँ आवश्यक हो,विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिये प्रस्तुत किया जाता है।
- राष्ट्रपति को विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी आवश्यक है। वह न तो विधेयक पर अपनी सहमति रोक सकता है और न ही विधेयक को पुनर्विचार के लिये संसद को लौटा सकता है।
- राष्ट्रपति की सहमति के बाद बिल एक अधिनियम (यानी एक संवैधानिक संशोधन अधिनियम) बन जाता है और अधिनियम की शर्तों के अनुसार संविधान में संशोधन किया जाता है।
केंद्र के सत्तारूढ़ दल इसका समर्थन करते है,विपक्षी नहीं
एक साथ चुनाव पर चुनाव आयोग ने पहली बार 1983 में सुझाव दिया था। उस वर्ष प्रकाशित भारत के चुनाव आयोग की पहली वार्षिक रिपोर्ट में इसका विचार आया था। विधि आयोग की ओर से 1999 में इसका विचार आया था. 1999 में न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में भारतीय विधि आयोग ने चुनावी कानूनों के सुधार पर अपनी 170वीं रिपोर्ट पेश की थी। इसने चुनाव सुधारों के एक भाग के रूप में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। बाद में 2015 में कार्मिक,सार्वजनिक शिकायत,कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने कहा था कि बार-बार चुनाव होने से सामान्य सार्वजनिक जीवन में व्यवधान होता है और जरूरी सेवाओं के कामकाज पर असर पड़ता है। राजनीतिक रैलियां करने से सड़क यातायात बाधित होता है और ध्वनि प्रदूषण भी होता है। यह भी दिलचस्प है की केंद्र की पूर्ण बहुमत वाली सरकारें इसका समर्थन करती रही है. जबकि जब वे विपक्ष में होते है तो उनके सुर बदल जाते है. इस समय जब सरकार ने वन नेशन वन इलेक्शन पर एक कमेटी बनाई तो विपक्ष के द्वारा उसका विरोध खुल कर सामने आ रहा है।
सुरक्षा के भी संकट कम नहीं
पूर्वोत्तर के कई क्षेत्र,जम्मू कश्मीर और नक्सलवादी क्षेत्रों में चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न करवाना आसान नहीं होता। इन इलाकों में सुरक्षा की चाक चौबंद व्यवस्था के लिए कड़ी व्यवस्थाएं होती है. एक साथ चुनाव करवाने में यह चुनौती ज्यादा बढ़ सकती है।
अलग अलग चुनाव की समस्याएं
इन सबके बीच इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता की लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने से जनता का पैसा बचेगा तथा प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर बोझ कम पड़ेगा। सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन हो सकेगा और प्रशासनिक मशीनरी चुनावी कार्यक्रम के बजाय विकास कार्यों में ज्यादा समय दे पाएगी।
मतदान व्यवहार की भिन्नता का संशय
वहीं भारत की लोकतंत्र की विविधता और विशालता यह बताती है की देश में क्षेत्रीय दल अपने अपने इलाकों के क्षत्रप है और स्थानीय जनता, क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर उन पर ज्यादा भरोसा करती रही है। यहीं कारण है की राज्य और केंद्र में मतदान व्यवहार बिल्कुल भिन्न होने की संभावनाएं बढ़ जाती है। मतदान व्यवहार की यही भिन्नता क्षेत्रीय दलों को एक देश,एक चुनाव का समर्थन करने से रोक सकती है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा की केंद्र सरकार क्षेत्रीय दलों का विश्वास जीत पाएंगी या नहीं। क्योंकि बिना राज्यों के समर्थन के कोई संविधानिक बदलाव कठिन होगा।
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