चंपई सोरेन ,नक्सल,गरीबी,खनिज माफिया और पलायन की जमीन पर आदिवासी मुख्यमंत्री
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चंपई सोरेन ,नक्सल,गरीबी,खनिज माफिया और पलायन की जमीन पर आदिवासी मुख्यमंत्री

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चंपई सोरेन-नक्सल,गरीबी,खनिज माफिया और पलायन की जमीन पर आदिवासी मुख्यमंत्री

 चम्पई सोरेन जैसे ठेठ आदिवासी नेता का  झारखंड का मुखिया बनना इस मायने में महत्वपूर्ण है की लोकतंत्र,विकास के भरपूर अवसर देता है। यह भावना नक्सल प्रभावित इलाकों में बमुश्किल गुजर बसर करने वाले आदिवासियों को उत्साह से भरने वाली है लेकिन नक्सल  के समाप्त हो जाने की गारंटी इससे भर नहीं मिलने वाली।

 

 

 

गुलामी को सहन न करने की जनजातीय परम्पराओं को महसूस करने और जिंदादिली की मिसाल देखने के लिए झारखंड का रुख किया जा सकता है। नक्सल समाप्त होने के दावों में जमशेदपुर और रांची जैसे  जिले तो शुमार किए जा सकते है लेकिन बाकी झारखंडियों से पूछिए,जवाब मिल जायेंगे। झारखंड के चतरा, लातेहार,गिरिडीह,गुमला,लोहरदगा,लातेहार,प. सिंहभूम और सरायकेला ऐसे जिले है जो घने जंगलों के साथ घोर नक्सली प्रभाव के माने जाते है और सुरक्षाबलों के लिए सतर्कता जरूरी होती है। सरायकेला के ही विधायक और बाशिंदे है झारखंड के नये मुख्यमंत्री चम्पई सोरेन।

ठेठ आदिवासी लहजे में बेलाग बोलने वाला यह शख्स उस कोल्हान क्षेत्र का शेर कहा जाता है जिसने आज़ाद भारत में रहकर भी आज़ाद आदिवासी देश का दम भरने का पागलपन दिखाया था। दरअसल सेरेंगसिया घाटी आज भी आदिवासियों की वीरता का बखान करती है जहां अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी थी। तीर,धनुष और विशेष तरह का गुलेल का इस्तेमाल करके अंग्रेजी सेना को पीछे भागने के लिए मजबूर करने वाले करने वाले आदिवासियों में गोरिल्ला युद्ध की परम्परा बहुत पुरानी है और वे इसका इस्तेमाल  करने से वे आज भी पीछे नहीं हटते। पूर्वी सिंहभूम,पश्चिम सिंहभूम और सरायकेला खरसावां ही कोल्हान प्रमंडल कहलाते हैं। यहां के आदिवासी कभी मुगलों,मराठों या अंग्रेज़ों या किसी भी राजव्यवस्था की अधीनता में नहीं रहे हैं। तमाम कोशिशों के बाद भी अंग्रेजों के लिए इस क्षेत्र में बने रहना बहुत मुश्किल था। अंततः 1837 में ही कोल्हान को कोल राज्य घोषित कर  यहां स्वशासन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए विल्किंसन रूल लागू किया गया था। आज भी यहां के लोग खुद को अलग मानते है,स्वशासित और आज़ाद।  यह अंदाज नृत्य में भी दिखता है।  कोल्हान का छाऊ नृत्‍य मनोभावों की स्थिति अथवा अवस्‍था का प्रकटीकरण है। नृत्‍य का यह रूप फारीकन्‍दा,जिसका अर्थ ढाल और तलवार है,की युद्धकला परम्‍परा पर आधारित है।   

झारखंड को देश के सबसे गरीब,पिछड़े और अशिक्षित राज्यों में शुमार किया जाता है। झारखंड के 42 फीसदी लोग गरीब हैं,जो देश में बिहार के बाद सर्वाधिक हैं। चतरा झारखंड का सबसे गरीब ज़िला है यहां की  साठ फीसदी आबादी गरीब है। वहीं पाकुड़,पश्चिमी सिंहभूम,साहिबगंज एवं गढ़वा राज्य के सर्वाधिक गरीब ज़िले हैं। झारखंड के उत्तर पश्चिमी,उत्तर पूर्वी और दक्षिणी भागों में गरीबी बहुत अधिक है।

झारखंड में विपुल खनिज और वन्य संपदा होने के बाद भी नीतिगत खामियों के चलते राज्य के लगभग 35 फीसदी दलित आदिवासी परिवार एक कमरे के कच्चे घरों में रहने को मजबूर है। 80 फीसदी परिवार महीने का मुश्किल से 5000 रुपया कमा पाते है,देश की औसत बेरोजगारी दर से कही ज्यादा झारखंड में देखने को मिलती है।  झारखंड में 38 लाख हेक्टेयर जमीन खेती योग्य है। राज्य में स्वर्णरेखा,करकरी  कोयल,दामोदर,और सोन जैसी कई बड़ी नदियां होने के बाद भी 29 फीसदी इलाके में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। जाहिर है राज्य के प्राकृतिक रूप से सम्पन्न होने के बाद भी व्यवस्थागत कमियों और बेहतर योजनाओं को  लागू न करने कि नाकामी के चलते  यहां के लाखों दलित आदिवासी रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर है। प्रति व्यक्ति आय में देश के 28 प्रमुख राज्यों की रैंकिंग में झारखंड 25वें नंबर पर है। राज्य के ग्रामीण इलाकों में लगभग एक हजार स्वास्थ्य केंद्रों के अपने भवन नहीं हैं। ग्रामीण इलाकों में जरूरत के हिसाब से 41 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है। 63.6 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव के कमरे नहीं हैं,42 फीसदी रूरल हेल्थ सेंटर में बिजली नहीं है और 35.8 फीसदी स्वास्थ्यकर्मियों की कमी है।

 

चम्पई,पूर्वी सिंहभूम से आते है। यह कहा जाता है की नक्सल समाप्त करने के लिए पूर्वी सिंहभूम मॉडल पर काम किया जाना चाहिए।  इस क्षेत्र में नक्सलियों की बंगाल,झारखंड,उड़ीसा रीजनल कमेटी काम करती है और इसे रेड ज़ोन कहा जाता है। नागरिक सुरक्षा समिति और दलामा आंचलिक सुरक्षा समिति ने मिलकर नक्सलियों के खिलाफ पुलिस की खूब सहायता की। लेकिन अब इन समितियों के सदस्य पलायन करकए अन्य राज्यों में रोजगार की तलाश में जाने को मजबूर हो गए है।

 

सीएम चंपई सोरेन के सरायकेला खरसावां जिले के गम्हरिया प्रखंड स्थित पैतृक गांव जिलिंगगोड़ा में ख़ुशी का माहौल है। आदिवासी ढोल की थाप पर थिरक रहे है। लेकिन सवाल अब भी बने हुए है की क्या चम्पई सोरेन के मुख्यमंत्री बनने से यहां के आदिवासियों का जीवन बदलेगा। बिहार से अलग करके झारखंड को एक अलग राज्य इसीलिए बनाया गया था कि आदिवासी बाहुल्य इस इलाके का विकास हो। इसका फायदा निर्माण कंपनियों को तो मिला लेकिन आदिवासियों कि स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। हथकरघा उद्योग को लेकर राज्य में बहुत संभावनाएं है,झारक्राफ्ट राज्य की पहचान है और मिट्टी की सुंदर मूर्तियां बनाना  यहां की प्रमुख कला है। आदिवासी चित्रकला बेंत और बांस के सामान को सरकार यदि बड़ा बाज़ार दे तो लाखों लोगों का जीवन स्तर सुधर सकता है और  इन सभी कलाओं में आदिवासी पारंपरिक तरीके से पारंगत है।  वन्य इलाकों को पर्यटन केंद्र के रूप में उन्नत करके और खनिज संसाधनों से लाखों आदिवासियों को रोजगार मिल सकता है,लेकिन यह  योजनाएं महज चुनावी नारा बनकर रह जाती है। 

 

झारखंड के गुमला जिले में भारी मात्रा में बॉक्साइट खनन से न सिर्फ क्षेत्र की जमीन बंजर हो रही है। लोग बॉक्साइट खनन से होने वाली परेशानियों को लेकर  बात तो करना चाहते है लेकिन अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं। न यह चाहते हैं कि उनकी तस्वीर छपे। पश्चिमी सिंहभूम जिले का रोरो गांव एक पहाड़ की तलहटी में है,यहां कोई भी सफेद या क्रिसोटाइल एस्बेस्टस के विशाल ढेर देख सकता है। इस  गांव में नेत्र विकार और कैंसर के कई मामले हैं। राज्य के खनन क्षेत्रों के निवासी बेरोजगार हैं और काम मांगने पर उन्हें जेल भेजने की धमकी दी जाती है। खनन से अभिशिप्त इस राज्य के स्थानीय लोगों को कोई लाभ नहीं हुआ है।  मुनाफा खनन कंपनियों, ठेकेदारों और राज्य सरकार को गया है। झारखंड गंभीर गरीबी,आय अस्थिरता और विकासात्मक मुद्दों से ग्रस्त है। सीएम चंपई सोरेन को अवसर मिला है की वे आदिवासियों को बेहतर जीवन दे और उनका पलायन रोंके। इन सबके लिए उन्हें उन पूंजीपति ताकतों से जूझना पड़ेगा  जिनकी जल,जंगल और जमीन पर  कब्जे की कोशिशों की आशंकाओं से आम आदिवासी सो नहीं पाता और यह इस क्षेत्र के लोगों की जिंदगी की नियति बन गई है। 

                                                                          डॉ.ब्रह्मदीप अलूने

                                                       (सुकमा ग्राउंड जीरों,किताब के लेखक)  

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