राष्ट्रीय सहारा
करीब बारह साल पहले त्रिपुरा में उग्रवादियों के समर्पण के लिए सह पुनर्वास की एक नई विशेष योजना बनाई गई थी और अब भारत सरकार,त्रिपुरा सरकार और सबसे बड़े जनजातीय गठबंधन समूह से जुड़े राजनीतिक दल टिपरा मोथा के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ है। इस समझौते के तहत त्रिपुरा के जनजातियों के इतिहास,भूमि और राजनीतिक अधिकारों,आर्थिक विकास,पहचान,संस्कृति और भाषा से संबंधित सभी मुद्दों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने पर सभी पक्षों के बीच सहमति बनी है। भारत की एकता और अखंडता बनाएं रखने के लिए तथा क्षेत्रवाद और अलगाववाद को रोकने के किसी भी कदम का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन पूर्वोत्तर की जटिलताएं समझौतों के संचालन को कठिन बना देती है। इतिहास गवाह है की त्रिपुरा को लेकर अंदेशा और भी बढ़ जाता है।
दरअसल धार्मिक कट्टरपंथ से अभिशिप्त बांग्लादेश तथा जातीय समूहों की प्रतिद्वंदिता की आग में झुलसते म्यांमार की नदी घाटियों के बीच भारत का छोटा सा राज्य त्रिपुरा स्थित है। इसके तीन तरफ बांग्लादेश है और केवल उत्तर पूर्व में यह असम और मिजोरम से जुड़ा हुआ है। देश के बाक़ी हिस्से से अलग थलग रहने,पहाड़ी भूभाग व जनजातीय आबादी के कारण त्रिपुरा में भी भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों जैसी समस्याएं मौजूद हैं। त्रिपुरा में उन्नीस जनजातियां रहती है जिसमें कई भाषाई और क्षेत्रों की सांस्कृतिक विभिन्ताएं है। वहीं पूर्वी बंगाल और बाद में बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों और शरणार्थियों के परिणामस्वरूप त्रिपुरा की जनसांख्यिकी में एक बड़े बदलाव के कारण यहां त्रिपुरी बनाम गैर त्रिपुरी तथा बंगाली बनाम गैर बंगाली का नारा भी खूब बुलंद हुआ है। किसी दौर में यह जनजातीय बाहुल्य राज्य था लेकिन अब यहां कथित रूप से बाहर से आकर बसे बंगालियों और बंगलादेशी मुसलमानों का बाहुल्य है। त्रिपुरा में जनजातियां अपनी पहचान और संस्कृति बचाने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही है,जिसका रूप कई बार हिंसक भी हुआ है। यहां कई जातीय और धार्मिक समूह बन गए है जिससे चरमपंथ और पृथकतावाद को बढ़ावा मिला है। इन सबके बीच क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपना महत्व बनाएं रखने के लिए कभी जनजातियों के लिए अलग ग्रेटर टिपरालैंड स्वायत्त राज्य का नारा बुलंद करते है तो कभी हिंदू,ईसाई और जीववाद के बीच बंट चूकी जनजातियों के बीच ही संघर्ष पनपा दिया जाता है।
दो दशक पहले त्रिपुरा के तत्कालीन राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल के एम सेठ ने राज्य की सुरक्षा संबंधी जटिलताओं पर कहा था की अपर्याप्त सीमा प्रबंधन,सुरक्षा बलों की कमी और पड़ोसी देश में आतंकवादी शिविरों का अस्तित्व सबसे बड़ी समस्या है। यह समस्या अब भी जारी है। उत्तर,दक्षिण तथा पश्चिम में त्रिपुरा बांग्लादेश से घिरा है तथा इसके कुल सीमा क्षेत्र का 84 फीसदी अर्थात् 856 किलोमीटर क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय सीमा के रूप में है। लगभग आधा राज्य जंगलों से ढका है तथा यहां बेशकीमती महत्त्वपूर्ण वृक्ष पाए जाते हैं। यहां सागौन के बाद सबसे अधिक क़ीमती लकड़ी शोरिया रोबस्टा है तथा प्राणियों में बाघ,तेंदुआ,हाथी भौंकने वाला हिरण मंटियाकस मुंटजैक शामिल हैं। भौगोलिक रूप से जटिल सीमा होने के कारण आतंकवादी,अलगाववादी,पृथकतावादी,तस्कर तथा बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों का आना सुलभ हो जाता है। उग्रवादियों,सशस्त्र डकैतों और तस्करों ने ने खुली सीमा का फायदा उठाया है और वे लोगों की हत्या कर बंगलादेश में जाकर छुप जाते है। इसमें लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा,बोरोक नेशनल काउंसिल ऑफ त्रिपुरा और ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स जैसे पृथकतावादी संगठन तथा कुछ मुस्लिम चरमपन्थी संगठन शामिल है।
त्रिपुरा के प्रभावशाली जनजातीय समूहों में भारत सरकार को लेकर गहरा अविश्वास देखा गया है जिससे समस्या के दीर्घकालीन हल के मार्ग में चुनौतियां खड़ी हो जाती है। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड नई दिल्ली ने 1980 के दशक की शुरुआत में,भावनात्मक और सांस्कृतिक एकीकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पांच सीमा क्षेत्र परियोजनाएं शुरू की थी। इन परियोजनाओं का व्यापक असर नहीं पड़ा तथा जनजातीय लोगों के जीवन की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ। त्रिपुरा विधानसभा ने 1982 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद अधिनियम बनाया। केंद्र ने 1985 में एक संवैधानिक संशोधन के माध्यम से इसे छठी अनुसूची में शामिल कर लिया। 1988 में आतंकवादी समूह त्रिपुरा नेशनल वालेंटियर्स ने केंद्र के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये,लेकिन विद्रोहियों ने 1992 में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा,एनएलएफ़टी नामक एक अलगाववादी समूह का गठन कर लिया। यह संगठन अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार स्थित अपने शिविरों से हिंसा फैलाने जैसी गतिविधियों में शामिल रहा है। एनएलएफ़टी ने सैकड़ों हिंसक कार्यों को अंजाम दिया जिसमें कई सुरक्षा बलों और नागरिकों की जान गई। केंद्र ने एनएलएफ़टी के साथ शांति वार्ता शुरू हुई,तब कहीं जाकर 2016 के बाद से इस संगठन ने कोई हिंसक कार्रवाई नहीं की है।
त्रिपुरा में व्यापक प्रशासनिक सुधारों के साथ जनजातीय वर्गों को विश्वास में लेने की जरूरत है। आदिवासियों को पहाड़ों पर धकेल दिया गया है और राजनीति और प्रशासन पर बंगाली भाषी स्थानीय लोगों और प्रवासियों का वर्चस्व हो गया। गैर आदिवासियों का आबादी में विस्तार तो हो ही गया है इसके साथ ही उनकी भूमि को भी बाहर से आने वाले समुदायों ने हड़प लिया है। इन परिस्थितियों में ही जनजातीय आबादी में भय और आक्रोश की भावना पैदा हुई है। आदिवासी बनाम गैर आदिवासी समुदायों की जीवन शैली और उनकी संबंधित आर्थिक स्थितियों में असमानता के कारण आप्रवासी समूहों और राज्य के आदिवासियों के बीच विद्वेष बढ़ गया है। इन सबके परिणामस्वरूप जनजातीय स्वायत्तता की मांग बढ़ने लगी और एक हिंसक अलगाववादी आंदोलन का भी उदय हुआ।
त्रिपुरा में शांति स्थापित करने के लिए नया समझौता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा और टिपरा मोथा के प्रमुख प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा की मौजूदगी में हुआ है। समझौते के सफल क्रियान्वयन के लिए यह अपेक्षा की गई है कि टिपरा मोथा किसी भी प्रकार के विरोध अथवा आंदोलन का सहारा लेने से बचें। टिपरा मोथा से जुड़े जनजातीय समूहों में ही इस मुद्दें पर आपसी सहमति बनती दिखाई नहीं दे रही है। टिपरा मोथा माणिक्य राजवंश से आने वाले प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा का राजनीतिक दल है। पिछले साल त्रिपुरा के इंडिजनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा ने अलग राज्य ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को उठाने के लिये जंतर मंतर नई दिल्ली में दो दिवसीय धरना प्रदर्शन किया था। इस दौरान इस संगठन ने यह दावा किया था की माणिक्य वंश के अंतिम राजा बीर बिक्रम किशोर देबबर्मन द्वारा उनके लिये आरक्षित भूमि से भी उन्हें बेदखल कर दिया गया है। जाहिर है,केंद्र को त्रिपुरा के जनजातीय समूहों को विश्वास में लेकर सामाजिक न्याय और जनजातीय इलाकों की स्वायत्ता स्थापित करने की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। त्रिपुरा के स्थानीय राजनीतिक दल,सत्ता की प्राप्ति के लिए समझौतों की राजनीति करते रहे है लेकिन इससे जनजातीय समूहों का अलग होने का खतरा सदैव बना रहता है और यहीं संकट त्रिपुरा में स्थायी समाधान होने नहीं देता।
त्रिपुरा के जनजातीय हित
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