पॉलिटिक्स
लोकतांत्रिक भारत में समानता के मौलिक अधिकार के जरिए सामाजिक न्याय हासिल करने की कोशिशों में जुटे वंचित वर्गों की चुनौतियां कभी भी खत्म होती नहीं दिखाई पड़ती। भारत के राजनीतिक दलों पर हावी सामंती तंत्र बेहद खूबसूरती से इन वंचितों के मतदान के अधिकार का सम्मान करते हुए और उनकी सांविधानिक शक्तियों के साथ खड़ा होकर सत्ता के शीर्ष को छूता है,उसका उपभोग करता है और अपनी नीतियों को जारी रखने में सफल भी हो जाता है। इसमें सहभागी बनाने के लिए दलित आदिवासी और पिछड़े वर्गों से आने वाले कुछ लोगों की निशानदेही करके उन्हें नेता बनाया जाता है और फिर उन्हें नियंत्रण और संतुलन के आधार पर पोषित किया जाता है। आर्थिक और सामाजिक आधार पर पिछड़े हुए इन समूहों के नेता सांविधानिक तौर पर समृद्ध होकर भी सामंती वर्गों के मायाजाल में फंसे होते है और ताउम्र बाहर नहीं निकल पाते। लिहाजा अपने राजनीतिक जीवन काल में उन्हें अपने वर्ग की बेहतरी के लिए न तो खुले मन से बोलने का मौका मिल पाता है और न ही वे कभी ऐसा कोई साहस जुटा पाते है।
डॉ. आंबेडकर इस बात को बहुत पहले समझ गए थे या उन्हें भविष्य की राजनीति की दिशा की कल्पना थी। संभवत: इसीलिए उन्होंने दलित आदिवासियों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की थी। अंबेडकर ने लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन के पूर्ण सत्र के दौरान कहा था कि दबे हुए वर्ग अपने आप में एक समूह बनाते हैं जो विशिष्ट और अलग है। वे दोहरे वोट वाले अलग निर्वाचन क्षेत्र चाहते थे जिससे दलित आदिवासी अपने वर्ग के प्रतिनिधितत्व के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहे और उनके प्रतिनिधि खुल अपने वर्ग की भलाई के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व कर सके। लेकिन ऐसा हो न सका। वर्तमान भारत में जाति आधारित आरक्षण की एक प्रणाली है जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का अनुभव करने वाली जातियों के लोगों के लिए एक निश्चित संख्या में सीटें निर्धारित करती है। संसद सहित सभी विधायी निकायों में अनुसूचित जाति और के लिए एक निश्चित संख्या में सीटें आरक्षित हैं।
देश में कुल 543 लोकसभा सीटें है,जिसमें 131 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। दलित समुदाय के लिए 84 लोकसभा सीट रिजर्व है जबकि आदिवासी समुदाय के लिए 47 सीटें सुरक्षित हैं। राजनीतिक तौर पर यह माना जाता है की दलित और आदिवासी समुदाय के समर्थन से ही सत्ता के शीर्ष तक पहुंचा जा सकता है। 26 फीसदी सीटें संसद मे इन वर्गों के लिए आरक्षित है। सांविधानिक कागज पर राजनीतिक हैसियत रखने वाले इन जन प्रतिनिधियों की बहुलता वाले चार राज्य बिहार,यूपी,मध्यप्रदेश और राजस्थान में दलित आदिवासियों पर बेतहाशा अत्याचार होते है। इन राज्यों में बलात्कार,उत्पीड़न और हत्या की कई घटनाएं रोजाना सामने आती है।
राजस्थान में दलित आदिवासी समुदाय की आबादी करीब 31 फीसदी है और 200 विधानसभा की सीटें हैं,जिसमें दलित और आदिवासी की 59 सीटें आरक्षित है। ये प्रतिनिधि राजस्थान के परंपरावादी समाज की जातीय संकीर्णता से अपने वर्गों को बचाव करने मे बुरी तरह असफल रहे है। मध्यप्रदेश में दलितों की आबादी प्रदेश की कुल आबादी की सत्रह से अठारह फीसदी है,जिसका मतलब है कि करीब 64 लाख दलित वोटर हैं जिनके लिये 230 विधानसभा की सीटों में से 35 सुरक्षित सीटें है। दलितों की बारातों पर पत्थर फेंकने से लेकर आदिवासी युवक पर पेशाब करने की घटनाएं यहां सामने आती रही है। 21 फीसदी से अधिक दलित आबादी की उत्तरप्रदेश की राजनीति में सदैव महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सूबे की 403 विधानसभा सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए जहां 84 सीटें आरक्षित हैं,वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए दो हैं। यूपी में जातिवाद की राजनीति खूब फलती फूलती है और वंचित वर्गों पर अत्याचार की घटनाएं रोजाना खबरें बनती है। बिहार में करीब 85 फीसदी लोग दलित आदिवासी और पिछड़े वर्ग से आते है। राज्य में विधानसभा की कुल 243 सीटों में 38 सीटें अनुसूचित जाति और दो सीटें अनुसूचित जनजाति वर्गों के लिए आरक्षित हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश में अगड़ों और पिछड़ों की राजनीति के बीच सत्ता के शीर्ष तक दलित भी पहुंचे लेकिन सामंती वर्गों के बाहुपाश में जकड़े ये नेता महज राजनीतिक सुख सुविधाओं के प्रतीक बन गए। डॉ.आंबेडकर ने कहा था गणतांत्रिक भारत में हम विरोधाभासों भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में तो हमारे पास समानता होगी,लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। डॉ. अंबेडकर ने राजनीतिक जीवन में समानता का दावा जरूर किया था पर वे महाराष्ट्र के भंडारा से 1954 में लोकसभा उपचुनाव में बुरी तरह पराजित हुए थे। डॉ अंबेडकर तीसरे स्थान पर रहे,उन्हे सामंती ताकतों ने मिलकर हराया क्योंकि वे वंचित वर्ग को आत्मविश्वास दे सकते है और उनकी आवाज बन सकते थे।
गांधीजी ने दलित आदिवासियों को पृथक निर्वाचन पर तर्क दिया था कि केवल सीटों के इस मामूली हिस्से तक ही सीमित रहने के बजाय,निचली जातियों को पूरे विश्व के साम्राज्य पर शासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिए। बापू के विचारों को झूठलाने की कोशिशों में दलित आदिवासी प्रतिनिधि मददगार नजर आते है। जर्मनी के महान जर्मन दार्शनिक हीगेल ने सार्वभौमिक सत्य को खोजने का खूब प्रयास किया,इस दौरान उन्होंने कहा था कि भारत लगातार जड़ और स्थिर रहा है। यह विडंबना ही है की दलित आदिवासी और पिछड़ों की राजनीति के नाम पर प्रतिनिधित्व करने वाले भारत को जड़ ही रखना चाहते है, यहीं कारण है की आजादी के अमृतकाल तक पहुंचते पहुंचते दलित,महादलित और पिछड़े महा पिछड़े हो गए है और इस राजनीति से किसी को परहेज भी नहीं है।
दिशाहीन दलित राजनीति
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