राष्ट्रीय सहारा
वे माओवादी हिंसा को दरकिनार करके इसे गरीब आदिवासियों का विद्रोह कहती है। करीब डेढ़ दशक पहले उन्होंने रेड कॉरिडोर के केंद्र माने जाने वाले बस्तर की गुपचुप यात्रा की और दंडकारण्य में माओवादियों के साथ काफी वक्त बिताया। वे माओवादियों को भाई,साथी या कॉमरेड कहकर लाल सलाम कहने में फक्र महसूस किया करती थी। उन्हें संविधान और लोकतंत्र आदिवासियों की खिलाफत का अस्त्र नजर आता है। 1997 में प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित अरुंधती रॉय अपनी किताब “वॉकिंग विद द कॉमरेड्स” में लिखती है,भारतीय संविधान,जो भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है,संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया। यह जनजातियों और वनवासियों के लिए दुःख भरा दिन था। संविधान में उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन किया और राज्य को जनजातियों की आवास भूमि का संरक्षक बना दिया। मतदान के अधिकार के बदले में संविधान ने उनसे आजीविका और सम्मान के अधिकार छीन लिए। अरुंधती,अपनी इस किताब में माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा का खतरा बताएं जाने का अक्सर मखौल उड़ाती है।
भारत की यह ख्यात लेखिका मानवाधिकार के मुद्दों पर सरकार पर हमलें करने से कभी परहेज नहीं करती। वे अपने लेखन में सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानता से संबंधित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती हैं। अरुंधती रॉय,कश्मीर में तैनात फौज को जनता की दुश्मन बताती है। उन्हें संसद पर हमले के प्रमुख आरोपी अफजल गुरु से बड़ी हमदर्दी रही। अपने ब्लॉग में वह भारत की पूरी न्याय प्रक्रिया पर कटाक्ष करते हुए कहती है,लेकिन अब जब अफजल गुरु को फांसी दे दी गई है,तो मुझे उम्मीद है कि हमारी सामूहिक अंतरात्मा संतुष्ट हो गई होगी। या फिर हमारे खून का प्याला अभी भी आधा ही भरा है?
भारत के उत्तरी राज्य कश्मीर में अलगाववादी ताकतों से हाथ मिलाकर भारतीय सेना और संविधानिक ढांचे की सार्वजनिक आलोचना करने से भी अरुंधती रॉय ने कभी परहेज नहीं किया। 2010 में राजधानी दिल्ली में एक कार्यक्रम में उन्होंने सार्वजानिक रूप से कहा कि,कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं था और उस पर भारत के सशस्त्र बलों ने जबरन कब्ज़ा कर लिया था। कश्मीर की पृथकतावादी ताकतों के लिए अरुंधती पसंदीदा चेहरा है और उनके विचारों को वे भारत के बौद्धिक वर्ग की आवाज कहकर दुनियाभर में प्रचारित करते है। 2010 में दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया था। उन पर भारत विरोधी भाषण देने व कश्मीरी अलगाववाद का समर्थन करने का आरोप लगाया गया। अब अरुंधती रॉय के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां अधिनियम के तहत् मुक़दमा चलेगा। अरुंधती एक अच्छी लेखिका है और उन्हें पसंद करने वाले देश विदेश के कई लोग है,जिन्हें लगता है की अरुंधती पर मुकदमा कायम करना,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने जैसा है। 2023 के फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में सलमान रुश्दी ने अरुंधति रॉय पर मुकदमा चलाने के कदमों की आलोचना करते हुए कहा था कि वह भारत की महान लेखिकाओं में से एक हैं और बहुत ईमानदार और जुनूनी इंसान हैं। उन मूल्यों को व्यक्त करने के लिए उन्हें अदालत में लाने का विचार शर्मनाक है।
भारत की विविधता और जटिलता में बहुत सारे विरोधाभास है और इसे स्वीकार भी किया जाना चाहिए। अरुंधति रॉय ने अपनी लेखनी और आंदोलनों में हिस्सा लेकर इसे समाज के सामने लाने में महती भूमिका निभाई है। आज़ादी और स्वतंत्रता की पक्षधर इस लेखिका को 45 वें यूरोपीय निबंध पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था। अरुंधती एक भारतीय लेखिका के रूप में देश विदेश में आमंत्रित की जाती है लेकिन वे अक्सर भारत की छवि को निरंकुशता के करीब ले आती है। भारत की लोकतांत्रिक और संविधानिक व्यवस्था को गढ़ने वाले डॉ.आंबेडकर स्वयं वंचित वर्ग से थे। अरुंधती गरीब आदिवासियों के लिए भारतीय संविधान को शोषण के अस्त्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए दिखाई पड़ती है। यदि संविधान का अवलोकन करें तो उनके दावों से उलट आदिवासियों की सुरक्षा,संरक्षण और विकास के लिए कई उपबन्ध शामिल किये गए है। अनुच्छेद 15(4) अनुसूचित जनजातियों की शैक्षिक उन्नति के लिए विशेष प्रावधानों को सुनिश्चित करता है। अनुच्छेद 46,राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित करने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 350 विशिष्ट भाषाओं,लिपियों या संस्कृतियों के संरक्षण के अधिकारों का प्रावधान करता है। लोकतांत्रिक देश में व्यापक प्रतिनिधित्व के लिए संविधान में संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटो के आरक्षण का प्रावधान किया गया है। संविधान की पांचवी अनुसूची के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधान भूमि अधिग्रहण आदि के कारण जनजातीय आबादी के विस्थापन के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करते हैं। अनुसूचित क्षेत्रों वाले राज्य के राज्यपाल को आदिवासियों से भूमि के हस्तांतरण को प्रतिबंधित या प्रतिबंधित करने तथा ऐसे मामलों में अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को भूमि के आवंटन को विनियमित करने का अधिकार है।
भारत का रेड कॉरिडोर का क्षेत्र सशस्त्र विद्रोह के लिए जाना जाता है और यह इलाका हिंसाग्रस्त रहा है। अरुंधती रॉय आदिवासियों के हितों के लिए मुखर रहे,यह उनका अधिकार है लेकिन संविधानिक तंत्र को शोषित वर्ग के खिलाफ प्रचारित करने की उनकी कोशिशें भारत की आंतरिक शांति को भंग करती हुई दिखाई पड़ती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें अपनी सरकारों से सवाल पूछने में भी सक्षम बनाती है,जो उन्हें जवाबदेह बनाए रखने में मदद करती है। सवाल पूछना और बहस करना स्वस्थ लोकतंत्र की असल ताकत है,इससे बेहतर नीतियां और अधिक स्थिर समाज बनते हैं। भारत का संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी को देश के रचनात्मक विकास के लिए जरूरी तो बताता है लेकिन देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए वह सजग भी है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए में देश की एकता और अखंडता को व्यापक हानि पहुँचाने के प्रयास को देशद्रोह के रूप में परिभाषित किया गया है। देशद्रोह के अंतर्गत सरकार विरोधी गतिविधि और उसका समर्थन,देश के संविधान को नीचा दिखाने का प्रयास और कोई ऐसा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष,लिखित या मौखिक कृत्य जिससे सामाजिक स्तर पर देश की व्यवस्था के प्रति असंतोष उत्पन्न हो।
अरुंधती रॉय ने अपने एक लेख में कहा था,एक मछुआरे के लिए यह मान लेना कितना ग़लत है कि वह अपनी नदी को अच्छी तरह जानता है। दरअसल अरुंधती रॉय को भारत,उसके विरोधाभास,समस्याएं,संविधान और लोकतंत्र को ठीक तरीके जानने और समझने की जरूरत है। वे महात्मा गांधी की भूमिका और उनके कद की आलोचना भी कर चूकी है। अरुंधती ने गांधी के उस संदेश को समझने का प्रयास ही नहीं किया की सामाजिक न्याय की समस्याओं के हल लोकतांत्रिक और अहिंसा के रास्ते भी तलाशें जा सकते है। अरुंधती और उन जैसे बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की आज़ादी का कवच धारण कर संविधानिक ढांचे और लोकतंत्र को अक्सर चुनौती देते है। यह उनका अधिकार हो सकता है लेकिन भारत उनसे बेहतर नागरिक होने की भी अपेक्षा करता है।
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