यह गणतंत्र तो नहीं है ! republic india
article गांधी है तो भारत है

यह गणतंत्र तो नहीं है ! republic india

यह गणतंत्र तो नहीं है.

जनता के अधिकारों की मांग के लिए सोलह साल तक अनशन पर रहने वाली मणिपुर की इरोम शर्मिला 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में महज 90 वोट हासिल कर सकी थी। उनसे ज्यादा वोट नोटा को मिले। इरोम ने पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के ख़िलाफ़ सोलह साल तक भूख हड़ताल की थी। इरोम जनता के लिए स्थितियां बेहतर करना चाहती थी पर जनता ने उनकी त्याग और तपस्या को दरकिनार कर उस शख्स को वोट दिया जो राजनेता के तौर पर दौलत और शोहरत को हासिल कर चूका है। इस चुनाव में मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी भारी मतों से जीते।

 

लोकतंत्र की दो बुनियादी विशेषताओं को लागू किए बिना गणतंत्र नहीं हो सकता। यह दो विशेषताएं है कि शासकों का चुनाव लोग करेंगे और लोगों को बुनियादी राजनैतिक आज़ादी होगी। भारत का गणतन्त्र इन दोनों विशेषताओं  की प्रासंगिकता को चुनौती दे रहा है। दरअसल भारत के चुनावों में राजनेता जनता जनार्दन को अहम बताते है लेकिन उनका पूरा ध्यान धन,बल,बूथ मैनेजमेंट और मीडिया के समर्थन पर टिका होता है। यदि इसे नकारात्मक अर्थ में ले तो लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ राजनीतिक लड़ाई और सत्ता का खेल है,यहां नैतिकता की कोई जगह नहीं है। लोकतंत्र में चुनावी लड़ाई खर्चीली होती है इसलिए इसमें भ्रष्टाचार होता है। इरोम की चुनावी हार महज संयोग नहीं बल्कि प्रत्याशी की चुनाव लड़ने की कूबत की बदली स्वीकार्यता को इंगित करता है। जहां वोट के बदले नोट और अल्पकालीन आर्थिक फायदों का तंत्र जन सरोकारों के दीर्घकालीन फायदों को पीछे छोड़ने में सफल हो जाता है। यह तरीका पूंजीवादी ताकतों को राजनीतिक प्रश्रय की गारंटी भी देता है।

भारत की शासन व्यवस्था में पूंजीवादी शक्तियां हावी न हो सके,इसे लेकर महात्मा गांधी आज़ादी के आंदोलन में भी सतर्क थे। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गांधी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में पहुंचे थे। इस कार्यक्रम में बीएचयू के संस्थापक मदन मोहन मालवीय,एनी बेसेंट तथा कई रियासतों के राजा वहां मौजूद थे। ठेठ  ग्रामीण वेशभूषा धोती,पगड़ी और लाठी में आए गांधीजी ने वहां पर मौजूद राजाओं के आभूषणों पर  कटाक्ष करते हुए कहा कि अब समझ में आया कि हमारा देश सोने की चिड़िया से गरीब कैसे हो गया। आप सभी को अपने स्वर्ण जड़ित आभूषणों को बेचकर देश की जनता की गरीबी दूर करनी चाहिए। गांधी की इस बात से नाराज होकर राजा महाराजा उस कार्यक्रम से उठकर चले गए। लेकिन गांधी का सरोकार आम जनता से था और उन्हें सत्ता या पद का मोह भी नहीं था। इसीलिए गांधी लोक सरोकारों को लेकर स्पष्ट अपनी बात कह देते थे।

 

आज़ादी के बाद गांधी के मूल्य जिंदा रखने के प्रयास करते लोगों ने स्कूलों,अस्पतालों और लोकहित के संस्थानों के लिए अपनी कीमती जमीनों का दान कर दिया। ऐसा देशभर में और कई गांवों,कस्बों तथा शहरों में किया गया। जमीन दान करने वालों में किसान और जमींदार भी थे। इन लोगों के प्रति जनता में सम्मान होता था,जनता उन पर भरोसा करती थी और ऐसे ही लोग जनता के प्रतिनिधि भी होते थे। लेकिन यह सिलसिला आज़ादी के 50 साल पार करते करते हांफने लगा। उदारीकरण की आर्थिक नीति ने मूल्यों को बदला और जन सरोकारों को भी।  पिछले कुछ दशकों में नेताओं ने जमीन दान तो नहीं की लेकिन सरकारी और अन्य जमीनों पर कब्जें जरुर कर लिए। इसके साथ ही नेताओं की सादगी और विद्वत्ता के किस्सें कहानियों में सिमट कर रह गए। नेताओं और उनके सहयोगियों के यहां विवाह समारोह में चांदी की थाली में मेहमानों को खाना परोसा जाना इत्तेफाक़ नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था में दौलत को रुतबे से जोड़ने  की स्थिति को दर्शाता है।

 

हैरानी इस बात की है कि ऐसे लोगों को राजनीतिक दलों में प्रश्रय मिलता है और आम जनता विकल्पहीन होकर  जनप्रतिनिधि के तौर पर उन्हें चुन भी लेती है। 2004 की लोकसभा में चुने गए 24फीसदी, 2009 में 30 फीसदी, 2014 में 34 फीसदी तथा 2019 की लोकसभा में 43 फीसदी सदस्य आपराधिक छवि वाले हैं। इस समय आम आदमी के मुकाबले 1400 गुना रुपया आपके सांसद की जेब में है। डाटा इंटेलिजेंस यूनिट की एक खास रपट के मुताबिक 2019 में चुने गए सांसदों की औसत आय आम जनता की औसत आय से करीब 1400 गुना ज़्यादा है।  याने हर वो रुपया जो आपकी जेब में है,उसके लिए आपके सांसद की जेब में 1400 रुपए हैं। 13 राज्य थे जहां सांसदों की संपत्ति राज्य की प्रति व्यक्ति आय से 100-1000 गुना के बीच थी। 15 राज्य ऐसे थे जहां नेताओं की आय राज्य की प्रति व्यक्ति आय से 1000 गुना से भी ज़्यादा थी। यदि राजनीतिक तौर पर जनकल्याण की बात कहीं जाएं तो प्रत्येक राजनीतिक दल में धनबल को उच्च स्थान पर रखा जाता है। 17वीं लोकसभा के 542 सांसदों में से 475 सदस्य करोड़पति हैं

 

हमें यह समझने की जरूरत है कि राजतंत्र या वंशानुगत शासन व्यवस्था से कही आगे गणतंत्र का अर्थ होता है,सामान्य भाषा में इसे जनता का तंत्र कहा जा सकता है। भारत के संदर्भ में जनता के तंत्र के लिए राजतंत्र की समाप्ति को आवश्यक नहीं माना गया था बल्कि प्रजा के सुख में ही राजा का सुख बताया गया है। 26 जनवरी 1950 आज़ाद भारत का एक विशेष दिन तो हो सकता है लेकिन गणतंत्र होने का गौरव तो भारत को सदियों पहले ही हासिल हो चूका था। पुराने गणतंत्र की खूबियां आधुनिक गणतंत्र से कहीं कहीं बेहतर नजर आती है।

 

एक लोकतांत्रिक सरकार संविधानिक कानूनों और नागरिक अधिकारों द्वारा खींची लक्ष्मण रेखाओं के भीतर ही काम करें,इसे लेकर आज़ाद भारत में विरोधाभास हो सकते है,प्राचीन भारत के राजतंत्र की गणतान्त्रिक परम्पराओं में यह संभव था। वैदिक काल और ऋग्वेद में ऐसे कई उदाहरण है जिससे साफ होता है की जनता की सलाह से शासन प्रशासन संचालित किया जाता था। महाभारत के शांति पर्व में भारत में गणराज्यों की विशेषताओं के बारे में विस्तृत वर्णन है। प्राचीन भारत में आर्यों के विभिन्न समूह जन कहे जाते थे। जनों के अन्तर्गत अनेक ग्राम होते थे। सामूहिक रूप से जन के सदस्य  विश थे। प्रत्येक जन का एक मुखिया होता था जो राजा कहा जाता था। राजा का पद वंशानुगत होता था,किन्तु राजा के अधिकार को जनता का अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक था। ऋग्वेद में विश द्वारा राजा के निर्वाचन के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य का उत्तराधिकारी राजा का ज्येष्ठ पुत्र होता था,किन्तु उसके अयोग्य होने की स्थिति में विश् या विद्वान जनता को राजा के निर्वाचन का अधिकार प्राप्त था। विदथ का अर्थ विद्वान से है और इसका प्रयोग ऋग्वेद में कई बार किया गया है। प्राचीन भारत में नीति,सैन्य मामलों और सामाजिक सरोकार से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने के लिये राजा के साथ विद्वानों की टोली होती थी।

 

आज़ादी के बाद गणतंत्र के रूप में भारत की यात्रा बड़ी दिलचस्प रही है। जो सात दशक तक पहुंचते पहुंचते ही अंतर्द्वंदों और विरोधाभासों से बूरी तरह जकड़ चूकी है तथा विद्वानों की सलाहकार टोली पर आर्थिक और पूंजीवादी शक्तियां हावी हो चूकी है। सुशासन का सामान्य अर्थ है बेहतर तरीके से शासन। ऐसा शासन जिसमें गुणवत्ता हो और वह खुद में एक अच्छी मूल्य व्यवस्था को धारण करता हो। देश में अमीरों की बढ़ती दौलत और गरीबों की बढ़ती झोपडियां सुशासन और जनता के तंत्र का अक्स तो नहीं हो सकते। धर्म ग्रंथों में यह लिखा गया है कि जनता अयोध्या के राजा श्रीराम से सवाल कर सकती थी,लेकिन यह राम राज्य में ही संभव था।

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