हस्तक्षेप,राष्ट्रीय सहारा
विकसित और विकासशील देशों में नागरिक सुरक्षा पर गहरा अंतर
आपदाओं के दौरान नेतृत्व,जवाबदेही और जिम्मेदारी को लेकर दुनियाभर की विभिन्न सरकारों की तुलना में यह तथ्य उभर कर आता है की अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर विकसित देश और विकासशील तथा पिछड़े देशों की नीतियों में गहरा अंतर है। विकसित देशों में बनने वाली योजनाओं,निर्माण और वृहत परियोजनाओं के क्रियान्वयन से पहले विशेषज्ञों की टीम सभी एंगलों से समस्याओं और चुनौतियों पर विचार करती है,उनके लिए कामगारों के बचाव के प्रबन्धन को सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक माना जाता है। किसी भी कम्पनी के पास प्रबन्धन की पुख्ता इंतजामात होने के बाद ही उसे ठेका दिया जाता है। विकसित देशों के नागरिक अपने जीने के अधिकार को लेकर बेहद जागरूक होते है और कम्पनियां तथा सरकारें इसे बखूबी समझती है।
50 राज्य,एक फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट,पांच प्रमुख स्व शासनीय क्षेत्र और विभिन्न अधीनस्थ क्षेत्रों से मिलकर बने संयुक्त राज्य अमेरिका से आपदा प्रबन्धन और उसकी तैयारियों को लेकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अमेरिका में आपदाओं से निपटने के लिए स्थानीय स्तर पर व्यवस्थाओं को विकसित किया गया है। इस देश में स्थानीय सरकारें आपदाओं के प्रबंधन में माहिर हो गई है। भयंकर सर्दियों के मौसम,तूफान और बाढ़ की घटनाएं लगातार बढने से यहां आपातकालीन प्रतिक्रिया और पुनर्प्राप्ति प्रयासों का एक नेटवर्क तैयार हो गया है। फ्रांस में, बुनियादी ढांचे के निर्माण और खासकर सुरंगों के निर्माण जैसी परियोजनाओं को फ्रांसीसी नेशनल असेंबली से मंजूरी लेना होती है,इसके पहले समूची परियोजना को लेकर पारदर्शिता से एक सार्वजनिक जांच की जाती है। ब्रिटेन में भी यह विश्वास किया जाता है की प्रभावी आपदा प्रबंधन के लिए और अप्रत्याशित घटनाओं से निपटने के लिए अल्प सूचना पर सक्रिय होने वाली पुख्ता संरचनाएं होना चाहिए तथा उनमें सभी स्तरों पर समन्वय के लिए तन्त्र स्थापित होना चाहिए। जिसमें आपदाओं के दौरान जवाबदेही और जिम्मेदारी,आपदाओं के लिए अग्रिम योजना और तैयारी,आपदाओं के दौरान एकीकृत अस्पताल और एम्बुलेंस सेवाएं तथा भीतर और बाहरी रूप से जनता के साथ प्रभावी संचार की व्यवस्था शामिल है।
भारत में भूकंप,बाढ़,सूखा,चक्रवात,सूनामी,हिमस्लखलन और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं से हजारों लोग मारे जाते रहे हैं। भारत में आपदाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। उत्तराखंड भारत के भौगोलिक रूप से बेहद जटिल राज्यों में शुमार किया जाता है। यहां पहाड़ धंसने से अक्सर दुर्घटनाएं होती रहती है। ऊंची हिमालयीन चोटियों और हिमनदियों से ढ़का हुआ यह प्रदेश प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं से जूझता रहा है। बर्फ़ से ढकी चोटियों,गहरी खाइयों,गरजती जल धाराओं और सुन्दर झीलों से युक्त इस क्षेत्र की भूआकृति अत्यन्त विविधतापूर्ण है। तेईस साल पहले अस्तित्व में आएं इस राज्य में उत्तरकाशी की घटना के बाद अब आपदा प्रबन्धन तंत्र की मजबूती पर जोर दिए जाने की बात की जा रही है। इसके लिए हिमालयी राज्यों में आपदा प्रबंधन और न्यूनीकरण के लिए उत्तराखंड में हिमालयन आपदा जोखिम न्यूनीकरण केंद्र स्थापित किया जाएगा। स्कूल से लेकर कालेज तक आपदा प्रबंधन को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
उत्तराखंड की तरह भारत के अन्य राज्य भी है। ये राज्य किसी भी आपदा की चुनौती से निपटने के लिए स्थानीय तंत्र से ज्यादा केंद्रीकृत तंत्र पर निर्भरता दिखाते रहे है। उनकी निर्भरता एनडीआरएफ या राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल पर बढ़ जाती है। उत्तरकाशी की सुरंग में फंसे सभी 41 मज़दूरों ने जिंदा बचकर एनडीआरएफ की जय कहा। इन सबके बीच इस टनल का निर्माण करने वाली कम्पनी के दायित्वों को समझना बेहद जरूरी है। आमतौर पर सिविल इंजीनियरिंग कंपनियां निर्माण का डिज़ाइन और प्रबंधन करती हैं जबकि निर्माण कंपनी परियोजना का निर्माण करती है।
जब से मानव अस्तित्व में आया है तब से इंजीनियरिंग उसकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा है। ढाई हजार ईसापूर्व मिस्र के पिरामिडों के निर्माण,प्राचीन ग्रीस में इक्तिनोस द्वारा निर्मित पार्थेनन,रोमन इंजीनियरों द्वारा निर्मित एपियन मार्ग और चीन के सम्राट शिह हुआंग द्वारा निर्मित द ग्रेट वॉल ऑफ़ चाइना जैसी बड़ी संरचनाओं का निर्माण मानव इतिहास की सफलताओं में दर्ज है। रोमनों ने अपने पूरे साम्राज्य में नगरीय ढांचों का निर्माण करवाया,जिनमें नहरें,कोठरियां,बंदरगाह,पुल,बाँध और सड़कें शामिल हैं। इंजीनियरिंग प्रबंधकों के पास तुरंत कई परिदृश्यों और डिज़ाइन समाधानों को अनुकूलित करने के लिए आवश्यक समस्या समाधान कौशल होते है। सफल सुरंग निर्माण के लिए स्थलाकृति और भूविज्ञान की अच्छी समझ और खुदाई के लिए सर्वोत्तम चट्टानी स्तर के चयन की आवश्यकता होती है।
उत्तराखंड में सिल्कयारा सुरंग के ढहने की जांच कर रहे दल के अनुसार इस संरचना में आपातकालीन निकास का अभाव था। अर्थात् बचने और भागने का कोई वैकल्पिक मार्ग बनाया ही नहीं गया था। ऐसा भारत में ही हो सकता है,क्योंकि विकसित देशों में किसी ऐसी परियोजना को मंजूरी मिल ही नहीं सकती और यदि मिलती भी है तो उस पर सुरक्षा एजेंसियों की सतत निगरानी होती है।
किसी भी सुरंग के निर्माण में मानक संचालन प्रक्रिया के अनुसार तीन किलोमीटर से अधिक लंबी सभी सुरंगों में आपदा के हालात में लोगों को बचने के लिए भागने का रास्ता होना चाहिए। करीब साढ़े चार किलोमीटर लंबी सिल्कयारा सुरंग के प्लान में भी बचकर निकलने के लिए एक मार्ग बनाया जाना था,लेकिन यह रास्ता बनाया नहीं गया। अगर भागने का रास्ता बनाया गया होता तो मजदूरों को सुरक्षित बाहर आने में सत्रह दिन नहीं लगते। सुरंग में फंसने के बाद बचाव के तीन प्लान बनाएं गए। सबसे पहले प्लान ए के तहत मलबे को हटाने और मजदूरों तक पहुंचने के लिए बुलडोजर का उपयोग करना था। बचाव टीमों को एहसास हुआ कि चट्टान ढीली हैं और मलबे को हटाने के बाद उसकी जगह और अधिक मलबा आने की आशंका है,इसलिए यह योजना छोड़ दी गई। इसके बाद प्लान बी में फंसे हुए मजदूरों तक 900 मिलीमीटर के व्यास वाला पाइप पहुंचाने के लिए एक बरमा मशीन का उपयोग किया जा रहा था। इस पाइप में से उन्हें रेंगकर बाहर निकालने की योजना थी,लेकिन बरमा मशीन बहुत शक्तिशाली नहीं थी और अप्रभावी साबित हुई। प्लान-सी के तहत एक मजबूत और अधिक ताकतवर अमेरिकी ड्रिल मशीन भारतीय वायुसेना के विमान से लाई गई। इस मशीन से मलबे में ड्रिलिंग शुरू की गई। इससे मलबे में छेद की गहराई शुरुआती 40 से बढ़कर 70 मीटर हो गई। लेकिन टूटने की एक आवाज सुनाई देने के बाद मशीन ने काम करना बंद कर दिया।
इसके बाद अन्य वैकल्पिक योजनाओं को एनडीआरएफ की टीम ने आजमाया और अंततः मजदूरों को बचा लिया गया। स्थितियों को सम्भालने के लिए अन्य देशों के विशेषज्ञों की मदद भी ली गई। इन सबके बीच दिलचस्प सवाल यह है कि ठेका लेने और निर्माण करने वाली कम्पनी का सुरक्षा ऑडिट कैसे हुआ तथा इस वृहत और महत्वकांक्षी परियोजना की निगरानी करने वाली संस्थाएं क्या कर रही थी।
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विकसित और विकासशील देशों में नागरिक सुरक्षा पर गहरा अंतर
- by brahmadeep alune
- December 2, 2023
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