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विनाश की सड़कें….

3 मार्च-विश्व वन्यजीव दिवस

सड़कों को समृद्धि,विकास और स्वर्णिम भविष्य गढ़ने का प्रतिबिंब माना जाता है,यह मनुष्य के लिए तो हकीकत हो सकता है लेकिन वन्य जीवों के लिए कभी नहीं।

मध्यप्रदेश,तेंलगाना,छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र से लगे गढ़चिरोली के घने जंगल अपनी खूबियों के लिए विख्यात है। शाम ढल चूकी थी और रात के 9 बज रहे थे। मैं अपने साथी के साथ हेमलकसा से अल्लापल्ली लौट रहा था। हेमलकसा गढ़चिरौली से 186 किमी दूर,भामरागढ़ ब्लॉक में स्थित है। यह समय वन्य प्राणियों के उन्मुक्त होकर घुमने का होता है क्योंकि घने जंगल में गाड़ियों की आवाजाही बन हो जाती है। गढ़चिरोली अपने  खूबसूरत जंगलों,गोंड जनजाति की  बेहतरीन और प्राकृतिक उन्मुक्त जिंदगी और वन्य जीवों की बहुलता के लिए पहचाना जाता है। यहां के जंगलों में बाघ और हाथी आसानी से मिल जाते है। गढ़चिरोली जिले का अल्लापल्ली कस्बा सागौन शहर के रूप में जाना जाता है,जहां सभी वन प्रशासन कार्यालय मौजूद है।  
अल्लापल्ली से करीब 10 किलोमीटर पहले मोटर साईकिल की हेड लाईट रोड़ पर रेंगते हुए अजगर पर पड़ी तो हमने मोटर साईकिल को वहीं रोक दिया।  एक विशालकाय अजगर रोड़ को पार कर रहा था और इसमें उसे करीब 7 मिनट लगे। खैर हम कुछ आगे बढ़े तो रोड़ पर एक जंगली खरगोश मरा पड़ा था।   हमारे आगे जाने वाली ट्रक से ही संभवतः वह कुचल गया होगा क्योंकि उसका बिखरा हुआ खून बता रहा था की यह घटना कुछ देर पहले ही घटी होगी।  मेरे मन में यह ख्याल तुरंत आया की यदि अजगर रोड़ पर यदि जल्दी आ गया होता तो शायद बेचारा भी  कभी रोड़ नहीं पार कर पाता।   वहीं अपने खुद के जंगलों में घुमने को स्वतंत्र खरगोश का यह अपराध था की वह किसी गाड़ी के सामने आ गया या अपराधी हम है जो जंगलों में घुसकर इन जंगली जानवरों को मार डालते है।   

 

दरअसल सड़कों को समृद्धि,विकास और स्वर्णिम भविष्य गढ़ने का प्रतिबिंब माना जाता है,यह मनुष्य के लिए तो हकीकत हो सकता है लेकिन वन्य जीवों के लिए कभी नहीं।    संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 20 दिसंबर 2013 को,अपने 68वें अधिवेशन में वन्यजीवों की सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करने एवं वनस्पति के लुप्तप्राय प्रजाति के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए 3 मार्च को हर साल विश्व वन्यजीव दिवस मनाने की घोषणा की थी। वन्य जीवों को विलुप्त होने से रोकने के लिए सबसे पहले साल 1872 में वाइल्ड एलीफेंट प्रिजर्वेशन एक्ट पारित हुआ था।

हमारे देश में वन्य जीवों की सुरक्षा को लेकर जवाबदेही कानून के रूप में तो नजर आती है लेकिन व्यवहार में कभी नहीं.  वन्य जीवों और आदिवासियों के उन्मुक्त जीवन को करीब डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेजों ने बाधित किया था जब उन्होंने भारतीय वन अधिनियम, 1865 लागू किया जिसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को वृक्षों से आच्छादित किसी भी भूमि को सरकारी जंगल घोषित करने और उसके प्रबंधन के लिये नियम बनाने का अधिकार दिया। इसके बाद आज़ाद भारत में 1972 के अधिनियम ने वन्य जीवन की कमर तोड़ने में कोई कमी नहीं रखी। इस अधिनियम के द्वारा राज्य सरकार को आरक्षित भूमि के अलावा किसी भी भूमि का गठन करने का अधिकार मिल गया जिस पर सरकार का मालिकाना अधिकार हो और ऐसे वनों के उपयोग के संबंध में नियम जारी करने की शक्ति दे दी गई। इस शक्ति का उपयोग ऐसे वृक्षों जिनकी लकड़ी,फल या अन्य गैर-लकड़ी उत्पादों में राजस्व बढ़ाने की क्षमता है पर राज्य नियंत्रण स्थापित करने के लिये किया गया है। उस दौरान सरकार ने दावा किया था कि इस अधिनियम का उद्देश्य भारत के वनस्पति आवरण की रक्षा करना था। जबकि अधिनियम के पीछे का असली मकसद वृक्षों की कटाई और वनोपज से राजस्व अर्जित करना था।

 

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 जंगली जानवरों और पौधों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण, उनके आवासों के प्रबंधन, जंगली जानवरों, पौधों तथा उनसे बने उत्पादों के व्यापार के विनियमन एवं नियंत्रण के लिये एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है। लेकिन संरक्षित क्षेत्रों से गुजरने वाली  सड़कों को लेकर क़ानूनी और सरकारी लचीलेपन से वन्य जीवों की जिंदगी को खतरें में डाल दिया है। भारत में कुल मिलाकर 104 राष्ट्रीय उद्यान,551 वन्यजीव अभयारण्य,131 समुद्री संरक्षित क्षेत्र,18 बायोस्फीयर रिजर्व,88 संरक्षण रिजर्व और 127 सामुदायिक रिजर्व हैं। भारत में मौजूदा राष्ट्रीय उद्यान देश के भौगोलिक क्षेत्र के  महज डेढ़ फीसदी है। भारत की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, पारिस्थितिक स्थिरता बनाए रखने हेतु वन के तहत कुल भौगोलिक क्षेत्र का आदर्श प्रतिशत  कम से कम 33 फीसदी  होना चाहिये। यह वर्तमान में देश की केवल  चौबीस फीसदी भूमि को कवर करता है और तेज़ी से संकुचित हो रहा है। अभ्यारण्यों और वन क्षेत्रों से गुजरने वाले लोग धर्म स्थलों और अन्य जगहों पर रुकते हैभोजन की तलाश में इसके आस पास प्राणियों की आवाजाही बढ़ जाती है और कई गाड़ियों की चपेट में आकर मर जाते है।
वन्यजीव गलियारे को लेकर हमारी योजनायें तो खूब बन रही है लेकिन वह साकार रूप में कब आयेंगी,यह अंदाजा लगाना मुश्किल है। वन्यजीव गलियारे एक ऐसी वानस्पतिक श्रृंखला कहे जा सकते हैं जो दो समान पारिस्थितिकी के वन्यजीव आवासों को जोड़ते हैं। इनके माध्यम से किसी क्षेत्र में पाए जाने वाले प्राकृतिक वन्यजीव आवास एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। ये वन्यजीवों को विस्तृत आवास क्षेत्र,पर्याप्त आहार और दीर्घकालिक आनुवंशिक विनिमय के अवसर प्रदान करते हैं। वन्यजीव गलियारे पूरे परिदृश्य में संबंध हैं जो निवास के क्षेत्रों को जोड़ते हैं। वे स्वस्थ वातावरण में होने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाओं का समर्थन करते हैं,जिसमें भोजन और पानी जैसे संसाधनों को खोजने के लिए प्रजातियों की आवाजाही भी शामिल है। भारत 1983 से दीर्घकालिक राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजनाएं (एनडब्ल्यूएपी) तैयार कर रहा है। राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (एनडब्ल्यूएपी) का तीसरा संस्करण, जो 2017 से 2031 तक की अवधि को कवर करता है. यह भी दिलचस्प है कि योजना में कहा गया है कि भारत में वन्यजीव क्षेत्र बड़े पैमाने पर मानव आवास,बिजली और सिंचाई से संबंधित बुनियादी ढांचे, औद्योगिक संपदा और विभिन्न प्रकार की मानवीय गतिविधियों से जुड़े हुए हैं।

मगध विश्वविद्यालय में जन्तु विज्ञान के एक शोधार्थी मोहम्मद दानिश मसरूर ने 2020 से लेकर 2022 के  बीच  सड़क दुर्घटना में मरने वाले जीव जंतुओं पर एक शोध किया। इस शोध में इन्होंने शहरी, कृषि, नदी और जंगली क्षेत्र में हाईवे पर गाड़ियों से मारे जाने वाले पशु पक्षियों और अन्य जानवरों की सूचना एकत्रित की ।  उनका यह शोध बिहार के एक सीमित  क्षेत्र में फैले लगभग 48 किलोमीटर क्षेत्र पर आधारित था ।  महज इतने कम क्षेत्र में भी दो सालों में लगभग 1100 जंतुओं के मरने की बात कही गई ।  जिसमें पक्षियों की संख्या लगभग 600, सरीसृप की संख्या लगभग 170, स्तनधारी जीवों की संख्या लगभग 216 और उभयचर प्राणी की संख्या 35 बताई गई है ।  

भारत में राज्य वन रिपोर्ट की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश का कुल वन क्षेत्र 7,13,789 स्वक्वायर किलोमीटर में फैला है। जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.72  फीसदी है ।  यह भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.89 फीसदी  है। भारत में कुल मिलाकर 104 राष्ट्रीय उद्यान, 551 वन्यजीव अभयारण्य, 131 समुद्री संरक्षित क्षेत्र, 18 बायोस्फीयर रिजर्व, 88 संरक्षण रिजर्व और 127 सामुदायिक रिजर्व हैं। सामान्य तौर पर, वन्यजीव-वाहन टकराव की रिपोर्ट बहुत कम दर्ज की जाती है। पूरे भारत में ऐसे आंकड़े भयावह हो सकते है
कर्नाटक वन विभाग ने कुछ साल  पहले कोडागु में थोडिकाना को दक्षिण कन्नड़ जिले के सुलिया से जोड़ने वाली सड़क के निर्माण की अनुमति देने से इनकार कर दिया था,क्योंकि यह तालकावेरी वन्यजीव अभयारण्य और पट्टीघाट रिजर्व फॉरेस्ट से होकर गुजरना था। विभाग ने कहा था कि सड़क का निर्माण वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) का उल्लंघन होगा। भारत वन्यजीव तस्करी के लिये शीर्ष 20 देशों में से एक है और हवाई मार्ग से वन्यजीव तस्करी के लिये शीर्ष 10 देशों में से एक है। इसका एक प्रमुख कारण जंगलों और वनों को सहेजने की प्रवृत्ति में कमी आना है। काश…!कर्नाटक वन विभाग की सजगता के  उदाहरण देश के अन्य स्थानों पर देखने को मिल पाते

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में भारत का पहला साउंड और लाइट प्रूफ हाइवे बनकर तैयार हो गया है। जिले से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग- 44 पर NHAI द्वारा बनाए गए इस खास हाइवे की कुल लंबाई 29 किलोमीटर है। पेंच राष्ट्रीय उद्यान के बीच से गुजरने वाला यह देश का पहला राष्ट्रीय राजमार्ग है इस हाइवे पर गुजरने वाले वाहनों की लाइट और साउंड सड़के से बाहर नहीं जा सकेगी। इस खास हाइवे को बनाने का उद्देश्य वन्यजीवों की सुरक्षा है। हाइवे को इस तरह तैयार किया गया है कि, इससे वन्यजीवों को एक्सीडेंट्स से तो बचाया ही जा सकेगा, साथ ही साथ वाहनों की आवाज और रोशनी से भी वन्यजीव  सुरक्षित रहेंगे।

लेकिन ऐसे  हाइवे की जरूरत पूरे भारत में है। अंततः विकास की सड़के मासूम वन्य प्राणियों के जीवन के लिए अभिशाप बन गई है ।
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