संविधान की परवाह किसे है…
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संविधान की परवाह किसे है…

संविधान की परवाह किसे है...

जब संविधान लिखा जा रहा था उस दौरान देश में कई बड़े सांप्र​दायिक दंगे हुए और धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा भी हुआ। इसके कारण इन दो देशों के बीच मानव इतिहास का सबसे बड़ा प्रवासी संकट पैदा हुआ,यह बेहद रक्तरंजित,अक्षम्य और अमानवीय था। इसी दौर में भारत में साढ़े पांच सौ से ज़्यादा रियासतों का मुश्किल भरा एकीकरण का काम संपन्न हुआ। संविधान निर्माताओं के सामने कई विषम चुनौतियों के बीच भारत की सांस्कृतिक एकता बनाएं रखने का संकट सामने था,जिससे भारत की विविधता और अनेकता में एकता बनी रहे। अत: संविधानिक रूप से भारत को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया गया। भारत की पहचान को संजोये रखने का यह साहसिक और दूरदर्शी प्रयास था।

आम तौर पर यह माना जाता है की पंथ निरपेक्षता की विशिष्टता तभी प्रकट होती है,जब राज्य धर्म प्रधान राजनीति से दूर और पृथक रहता है।  भारत के राष्ट्रीय जीवन के मूल्यों की रक्षा के लिए  पंथ निरपेक्षता को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। भारत के इतिहास में हाल ही में एक महत्वपूर्ण घटना देखने को मिली जब पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा ने राज्य में 7 नवंबर को सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव के लिए अपने अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से इंकार कर दिया। ज़ोरमथांगा ने पड़ोसी राज्य मणिपुर में कुकी मैतेई जातीय संघर्ष में जलाए गए दर्जनों चर्चों का हवाला देते हुए कहा कि वह मिजोरम में प्रधानमंत्री मोदी के साथ एक मंच साझा नहीं करेंगे। मिज़ोरम,ईसाई बाहुल्य राज्य है और चर्च मिज़ोरम में चुनावी प्रक्रिया को विनियमित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा की सोच साफ थी की इससे उनके ईसाई मतदाता नाराज हो सकते है और इसका असर चुनाव परिणामों पर हो सकता है।

भारत जैसे बहुजातीय,बहुधार्मिक और बहुभाषायी देश में किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री और देश के लोकतांत्रिक मुखिया प्रधानमंत्री का अलग अलग धर्मों का होना चुनाव प्रचार साथ करने में बाधा बन जाये,यह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरे की घंटी है। सत्ता प्राप्ति के लिए इस घटना का प्रचारित होना भी भारत को कबीलाई आधार पर बांटने जैसा है। इसे राजनीतिक मजबूरी के रूप में निरुपित अवश्य कर दिया गया लेकिन धार्मिक आधार पर राजनीतिक रूप से बंटने वाली यह स्थिति क्यों निर्मित हुई। यह वह तस्वीर है जिसका साया भारत के भविष्य को अंधेरे में झोंक सकता है।

वहीं मिजोरम के पड़ोसी राज्य मणिपुर में ईसाई कुकी और हिन्दू मैतई के बीच जारी भीषण संघर्ष में मणिपुर के मुख्यमंत्री वीरेंद्र सिंह पर मैत्रेइ होने और उनका हिंसक समर्थन करने के आरोप लगे। मणिपुर अब भी जल रहा है लेकिन फिर भी सीएम एन.बीरेन सिंह ने इस्तीफा देकर यह सुनिश्चित करने का साहस नहीं दिखाया की उनकी  कुर्सी से ज्यादा जरूरी भारत की एकता और अखंडता है। पूर्वोत्तर की सीमाई और साम्प्रदायिक संवेदनशीलता के बाद भी उनका मुख्यमंत्री के रूप में बने रहना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। मणिपुर की जनसंख्या लगभग 30 से 35 लाख है। यहां तीन मुख्य समुदाय हैं,मैतई,नगा और कुकी। मैतई ज़्यादातर हिंदू हैं,मैतई मुसलमान भी हैं,जनसंख्या में भी मैतई ज़्यादा हैं। नगा और कुकी ज़्यादातर ईसाई हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करें तो मणिपुर के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैतई समुदाय से हैं, बाकी 20 नगा और कुकी जनजाति से आते हैं। काश,एन.बीरेन सिंह यह समझ पाते की बहुमत की सरकार का अर्थ राज्य की जनता का जातीय और धर्म के आधार पर बंटवारा नहीं हो सकता।

पंथनिरपेक्षता के बाद आगे बढ़ते है समाजवाद पर। समाजवाद एक लोकतान्त्रिक विचारधारा है जिसका उद्देश्य समाज में इस प्रकार की आर्थिक व्यवस्था लाना है जो व्यक्ति को पूर्णतया समभाव,न्याय एवं स्वाधीनता प्रदान कर सके। भारत की राजनीति में यह शब्द अतिप्रचलित है,जिसका कई राजनीतिक  पार्टियां अपने घोषणापत्र में इस्तेमाल करती हैं। आज़ादी के बाद  समानता स्थापित करने के लिए भारत सरकार ने भूमि सुधार और प्रमुख उद्योगों और बैंकिंग क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण  किये। लेकिन बाद में उदार अर्थव्यवस्था के नाम पर उदारीकरण,निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ।  

अब सुनहरे और कथित आगे बढ़ते हुए भारत की असल तस्वीर को देखते है। डॉ.भीमराव आंबेडकर आर्थिक और सामाजिक ग़ैरबराबरी को राष्ट्र निर्माण में सबसे बड़ी बाधा मानते  थे। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार भारत दुनिया के सबसे असमानता वाले देशों में शुमार है।यहां  शीर्ष 1 फीसदी आबादी के पास 2021 में कुल राष्ट्रीय आय का  पांचवां भाग मौजूद  है और नीचे के आधे हिस्से के पास मात्र 13 फीसदी  हिस्सा। भारत द्वारा अपनाएं गए आर्थिक सुधारों और उदारीकरण ने अधिकतर शीर्ष 1 फीसदी को लाभान्वित किया है। महिला श्रम आय का हिस्सा 18 फीसदी के बराबर है और यह दुनिया में सबसे कम में से एक है। स्वास्थ्य क्षेत्र में असमानताएं है जिसमें सामाजिक विभाजन नजर आता है।   यूनाइटेड नेशन्स वूमन की तरफ़ से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की औसत दलित स्त्री उच्च जातियों की महिलाएं अन्यों के मुकाबलें करीब साढ़े चौदह साल पहले मर जाती है। सैनिटेशन की ख़राब स्थिति और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते उनकी जीवनरेखा कमज़ोर पड़ती है।  

17वीं लोकसभा के 542 सांसदों में से 475 सदस्य करोड़पति हैं।  जबकि लोकसभा में 266 सदस्य ऐसे हैं जिनकी संपत्ति पांच करोड़ या उससे अधिक है। भारत में गरीबी का स्तर अफ्रीका के गरीबों के जैसा ही है और कई मामलों में अफ़्रीकी के बेहद गरीब देश के लोग भारत के गरीबों के मुकाबलें बेहतर स्थिति में है। डॉ.आम्बेडकर इस बात से आशंकित थे की देश का पांच फीसदी से भी कम आबादी वाला सम्‍भ्रांत वर्ग देश के लोकतंत्र को हाईजैक कर लेगा। इसके कारण 95 फीसदी तबके को संविधान का लाभ नहीं मिलेगा।

संविधान पर राजनीतिक हमलें होते है,कई संविधानिक संस्थान भी संविधान की भावना के अनुरूप उसका संचालन करने में असमर्थ दिखाई पड़ती है। लोकप्रिय सत्ताएं संविधान के साथ खिलवाड़ कर सकती है,यह बात संविधान निर्माता अच्छी तरह जानते थे और वे इस बात से बेखबर नहीं थे। संभवतः इसीलिए उन्होंने भारत के कथित भाग्य निर्माताओं नेताओं पर सम्पूर्ण भरोसा नहीं दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक और रक्षक बनाया। पंथ निरपेक्षता और समानता अभी भी सेना में बरकरार है। बाकी    लोकतांत्रिक सत्ताओं और अन्य निकायों का अवलोकन करते रहिये,संविधान की परवाह किसे है,इसके जवाब मिलते रहेंगे।    

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