संसद को बांझ औरत कहने वाला महात्मा…!
गांधी है तो भारत है

संसद को बांझ औरत कहने वाला महात्मा…!

सुबह सवेरे                                                                

  बापू बिहार में थे और माउन्टबेटन को उनसे बहुत जरुरी वार्ता करनी थी। माउन्टबेटन ने बापू को बुलावा पहुंचाया और निजी विमान भेजने की पेशकश की तो बापू ने विनम्रता से मना करते हुए कहा की उनकी यात्रा की ट्रेन की तीसरे दर्जे में ही होती है। कुछ दिनों बाद बापू ट्रेन से दिल्ली पहुंच गए। माउन्टबेटन के साथ उनकी पत्नी भी इस महान नेता से मिलने को बहुत उत्सुक थी। उन्होंने बापू के स्वागत और शिष्टाचार में कोई कमी न रखी फिर भी बापू निराशा थे। माउन्टबेटन ने परेशान होकर बापू से पूछा,बापू हमारे शिष्टाचार में कोई कमी रह गई क्या…! नहीं ऐसी कोई बात नहीं,बापू ने बताया की उनके पास गीता,टीन के बर्तन,जिसमें वह खाना खाते है और एक पुरानी घड़ी थी,जिसे मई कमर में बांध कर रखता था।

माउन्टबेटन ने बापू की कमर की और देखकर कहा,लेकिन बापू आपकी कमर में आज घड़ी तो नहीं है। बापू ने बताया की वह घड़ी रेल में चोरी हो गई। फिर बापू बोले,अगर मुझे एक दिन का एक एक क्षण ईश्वर के काम में लगाना होता है तो यह मालूम होना चाहिए कि कब क्या समय है… । यह कहते हुए उनके आंसू छलछला गए की जिस व्यक्ति ने वह घड़ी चुराई उसे यह समझना था की उसने मेरी आस्था के टुकड़े को चुरा लिया। माउन्टबेटन ने महात्मा गांधी से भारत के भविष्य को लेकर बात की थी,और विभाजन को लेकर उनका मन टटोला था। बापू ने माउन्टबेटन से कहा,आप भारत के एक रहने की योजना बताइये,मैं उसे साकार करने के लिए और लोगों को मनवाने के लिए देश के कोने कोने का  दौरे करूंगा.. । कुछ ही घंटे बाद जब बापू  प्रार्थना सभा में जा रहे थे और एक पत्रकार ने उनसे बात की तो बापू उससे मुस्कुराते हुए बोले,ऐसा लगता है की मैंने धारा का रुख बदल दिया है… ।

अब माउन्टबेटन को जिन्ना से मिलना था। माउन्टबेटन को लगता था की उनमें अपनी बात मनवाने की खास काबिलियत है और वे जिन्ना को भारत में बने रहने के लिए मनवा लेंगे। माउन्टबेटन कहते है,गांधी में एक सुकून,सादगी और महान विद्वत्ता थी लेकिन जिन्ना का रवैया बर्फ की सिल्ली की तरह जमा हुआ सर्द और कड़ा था। उनके चेहरे पर दम्भी और अरुचि की साग झलक थी। अप्रैल 1947 में  माउन्टबेटन और जिन्ना की छह मुलाकतें हुई। माउन्टबेटन लिखते है,मैंने जिन्ना को  बंटवारें की हठधर्मी से डिगाने के लिए हर तरकीब प्रयोग की। हर तरह से उनसे अनुरोध किया। लेकिन जिन्ना टस से मस न हुए। उन पर पाकिस्तान के असम्भव सपने को साकार करने का ऐसा जुनून स्वर था कि कोई भी दलील उन्हें अपनी जगह से डिगा नहीं सकती थी। वहीं जिन्ना ने माउन्टबेटन को ही भी चेतावनी भी दे दी कि जितनी जल्दी हो बंटवारा कर ले,नहीं तो हिंदुस्तान का नामोनिशान मिट जायेगा। माउन्टबेटन,यह देखकर हैरान थे कि एक उच्च पढ़ा लिखा इन्सान कैसे अपने दिमाग को बंद कर घोर साम्प्रदायिकता पर डटे रहते हुए उसे जायज़ ठहराना चाहता है।

भारत के महान नेता महात्मा गांधी के मन में समय की कीमत को लेकर बड़ी आस्था थी। वे रेल के तीसरे दर्जे में आजीवन यात्रा कर भारत की हकीकत को समझने की कोशिश करते रहते थे। वहीं जिन्ना साम्प्रदायिक फितरत को अमली जामा पहना कर दुनिया से चल दिए। समय कालचक्र के धुंधलके में खोता हुआ आगे बढ़ता जा रहा है,बापू के जाने के बाद के 75 साल के भारत की यथार्थता पर बात करने का यह बेहद उचित अवसर है।

विभाजन की विभीषिका में जलते हुए भी बापू ने भारत के उजले भविष्य की सुनहरी कल्पना को साकार करने के लिए स्वतन्त्रता,बन्धुता और समानता पर आधारित संविधानिक देश बनने पर जोर दिया। इसके बावजूद की बापू भारत की जातीय,क्षेत्रीय,भाषाई,भौगोलिक और धार्मिक जटिलता को जानते थे। वे यह भी जानते थे की केन्द्रीकरण वाली शक्तियां और केन्द्रीकरण वाले नेता जिन्ना की तरह अहम और दम्भी हो जायेगे। वे निरंकुश होकर जनता के आत्मनिर्णय को नजरअंदाज करते हुए स्वनिर्णय को देश की आवाज समझने लगेंगे। जिससे यह विविधता वाला देश फिर हिंसा और रक्तपात से जल उठेगा।

बापू ने लोकतंत्र की अंतिम पायदान पंचायतों को मजबूत करके भारत के बेहतर भविष्य के रास्ते को तलाशा। वे गांवों के नेतृत्व को बेहतर और प्रगतिशील बनाना चाहते थे। 28 जुलाई 1946,हरिजन सेवक के अंक में महात्मा गांधी लिखते है,आज़ादी नीचे से शुरू होना चाहिए,हर एक गांव में जम्हूरी सल्तनत या पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता या ताकत होगी। इसका मतलब यह है की हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा। अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होगी ताकि वह अपना सारा कारोबार खुद चला सके। यहां तक की वह सारी दुनिया के खिलाफ अपनी रक्षा खुद कर सके। उसे तालीम देकर इस हद तक तैयार करना होगा की वह बाहरी हमले के मुकाबलें में अपनी रक्षा करते हुए मर मिटने के लायक बन जाएं। इस तरह आखिर हमारी बुनियाद व्यक्ति पर होगी। इसका यह मतलब नहीं की पड़ोसियों पर या दुनिया पर भरोसा न रखा  जायें। या उनकी राजी ख़ुशी से दी हुई मदद न ली जाएं। कल्पना यह है की सब लोग आज़ाद होंगे और सब एक दूसरे पर अपना असर डालेंगे। जिस समाज का हर एक आदमी यह जानता है की उसे क्या चाहिए और इससे भी बढकर जिसमें यह माना जाता है की बराबरी की मेहनत करके भी दूसरों को जो चीज़ नहीं मिलती,वह खुद भी किसी को नहीं लेनी चाहिए। वह समाज जरुर ही बहुत ऊंचे दर्जे की सभ्यता वाला होना चाहिए।      

हालांकि बापू की गांव को मजबूत करने की आवाज को केन्द्रीकृत शक्तियों ने कुंद कर दिया। भारत को गांवों से चलाया जाना चाहिए था,पर वह दिल्ली से चलने लगा। दिल्ली से चलने वाली पृथ्वीराज चौहान की सल्तनत,तुर्कों,मुगलों और अफगानों का हश्र सबके सामने था।  दिल्ली ने हिंदी से जोड़ने की देश को जरूरत बताई तो 1950 के दशक में ही भाषा के आधार पर देश को बांटने की कवायद शुरू हो गई। तेलुगुभाषी पोट्टी श्रीरामुलु  ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की तीव्र मांग थी और  अनिश्चितकालीन उपवास शुरू  कर दिया। अनशन के 56वें ​​दिन उनकी मृत्यु के कारण व्यापक हिंसा हुई और सरकार को राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेश बनाए गए। 1966 में भारतीय पंजाब का विभाजन कर उसे हिमाचल और हरियाणा में बांट दिया। इसका एक कारण था की सिखों के बहुमत वाले राज्य की पहचान बने। पंजाब भारत के एक मात्र ऐसा राज्य है  जहां सिख बहुमत में हैं।

पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर करीब छह महीने से सांप्रदायिक हिंसा में जल रहा है।  बहुसंख्यक मैतैयी और अल्पसंख्यक कुकी समूहों के बीच हिंसा छिड़ने के बाद से मणिपुर में डर का माहौल देखा जा रहा है। इस दौरान बेरहमी से की गई हत्याएं और महिलाओं के ख़िलाफ यौन अपराध भी देखने को मिले हैं। अब तक 200 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं। यह हिंसा इम्फाल घाटी से शुरू हुई थी। इसका समाधान भी इम्फाल घाटी में ही होना था लेकिन इसका समाधान दिल्ली से करने की कोशिशें की गई। बापू सत्ता को दिल्ली से चलते हुए नहीं देखना चाहते थे,इसलिए वे स्वयं नौ आखली गए,कोलकाता गए और भीषण साम्प्रदायिक दंगे समाप्त करने में सफलता हासिल की। बापू वोटिंग से नहीं सर्वसम्मति वाली सत्ता चाहते थे। एक बार उन्होंने ब्रिटिश संसद को बांझ औरत की तरह बताते हुए कहा था की वह लोगों के हितों की रक्षा करने में सक्षम नहीं रही। भारत आज जहां पर खड़ा है,गांवों में पिछड़ापन,गरीबी और बेरोजगारी बदस्तूर बढ़ी है। जातीय,क्षेत्रीय,भाषाई और धार्मिक विवाद भी बढ़ रहे है। बापू होते तो इनके समाधान के लिए स्वयं निकल पड़ते,गांव गांव जाकर लोगों से मिलते और उनका विश्वास अर्जित करते। अब के भारत में शीर्ष के नेताओं को इसकी फुर्सत नहीं है और वे विकेंद्रीकृत सत्ता के विचार को रौंदने के लिए प्रतिबद्दता दिखाने से परहेज भी नहीं करते।  शीर्ष के नेता सत्ता के क्षत्रप बनकर अहम में डूबे हुए है और यही जिन्ना का प्रतिबिम्ब है। व्यवस्थाओं को अपने काबू में रखने की शीर्षस्थ नेताओं की कोशिशों में व्यापक लोकहित  पर आधारित सर्वमान्यता का विचार गायब कर दिया गया है। यह भी दिलचस्प है कि बापू की घड़ी खोने के साथ ही  देश में समयसीमा,व्यवस्थाओं से गायब हो गई है। विडम्बना ही है कि यह भारत बापू को स्वीकार नहीं करता और यही इसके संकट बढने का सबसे बड़ा कारण भी है। 

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