सत्ता की आत्मघाती सनक 
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सत्ता की आत्मघाती सनक 

राष्ट्रीय सहारा

मध्यपूर्व में सत्ता में बने रहने की सनक और सत्ता से उखाड़ फेंकने वालों की कोशिशों के बीच हिंसक प्रतिद्वंदिता का पुराना इतिहास रहा है। अरब कबीलाई संस्कृति को अपनी गौरवशाली परम्परा से जोड़कर देखते है,अत: अधिकांश देश अमीर और शहजादों से अभिशिप्त रहे। वहीं जहां लोकतंत्र की गुंजाईश दिखाई दी,उसे शिया और सुन्नी विवाद की आड़ में खत्म कर दिया गया। यूरोप ने सदा इजराइल को मध्यपूर्व में लोकतंत्र का आदर्श मॉडल कहा। लेकिन अब स्थिति बदल गई है,अरब देशों के बीच बसे इस  एकमात्र गैर मुस्लिम देश की राजनीति भी सत्ता में बने रहने की सनक का शिकार होकर हिंसक रास्ते पर आगे बढ़ रही है।

करीब आठ दशक पहले बड़ी मुश्किल से अस्तित्व में आया इजराइल स्वस्थ लोकतंत्र और लोक कल्याणकारी राजनीति के साथ कदम ताल मिलाते मिलाते अरब राष्ट्रवाद की तानाशाह सत्ता को आत्मसात करने की ओर अब तेजी से आगे बढ़ रहा है। 1948 में अलग देश का दर्जा पाने वाले इजराइल के संसदीय इतिहास में अब तक किसी पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं बनाई,इस कारण सरकारें तेजी से बदलती रही। लिकुड पार्टी के नेता नेतन्याहू डेढ़ दशक से ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहने का रिकार्ड बना चूके है। इजराइली सियासत में अब तक कोई नेता इतने लंबे वक्त तक सत्ता के शिखर पर नहीं रह सका है। नेतन्याहू की इजराइल की सत्ता के शिखर पर बने रहने की कोशिशों ने देश की राजनीति को बदल दिया है।

नेतान्याहू का संबंध एक धर्म निरपेक्ष परिवार से रहा। वे जिस राजनीतिक दल लिकुड पार्टी से आते है,उसकी  नीतियां उदार और मिलीजुली रही। नेतान्याहू ने अपनी राजनीतिक पारी को पुख्ता करने के लिए कमजोर गठबंधनों,मध्यमार्गी और दक्षिणपंथी गठबंधनों के साथ वामपंथी दल को भी अपना सहयोगी बनाने से परहेज नहीं किया। लेकिन अब नेतान्याहू अतिधार्मिक समूहों के साथ यहूदी आक्रामकता को बढ़ावा दे रहे है। सत्ता में बने रहने के लिए उनकी यह नीति बेहद कारगर रही है,लेकिन इसी कारण इजराइल असुरक्षित होकर हिंसा की आशंका से भयाक्रांत भी है। 2020 में इजराइल में नेतान्याहू का ऐतिहासिक विरोध पूरे देश में हो रहा था। इसके साथ ही यह नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था जिसमें युवाओं के हाथों में नेतान्याहू के पोस्टर के साथ लिखा होता था की,आपका समय समाप्त हो गया है। इजराइल की समस्याओं को लेकर जो लोग सड़कों पर थे उसमें उम्र,वर्ग, जातीयता,नस्ल और लिंग  का कोई भेद नहीं था। धोखाधड़ी,विश्वासघात,बढ़ती बेरोजगारी,भ्रष्टाचार और कोरोना वायरस संकट से निपटने के तरीकों को लेकर लोग सरकार  के खिलाफ सड़कों पर उतर आयें थे। इस्राइली नागरिकों ने देशभर के मुख्य राजमार्गों और जंक्शनों को भी बंद कर दिया। इस्राइल में कोरोना वायरस को लेकर लोगों को अपनी नौकरियां गवांनी पड़ी है। इससे व्यवसायों पर गहरा असर पड़ा है। इसे जनता पीएम की विफलता मान रही है और उनसे लगातार इस्तीफा देने की मांग कर रही थी।

नेतान्याहू का जब सत्ता से जाना तय लग रहा था,तब उन्होंने यहूदीवाद को सहारा लेकर लोगों के सामने खुद को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। सार्वजनिक संस्थानों में यहूदी पहचान लागू करने के लिए प्रतिबद्धता दिखाते हुए दक्षिणपंथी पार्टियों के वोट बैंक में सेंध लगा दी। विरोधी पार्टी के कई नेता,नेतान्याहू के समर्थन में खड़े हो गए। विपक्ष की एकता को धराशाई करते हुए नेतान्याहू ने फिलिस्तीन के विभिन्न इलाकों में यहूदी बस्तियां बसाने का पासा भी फेंका। जब नवंबर 2022 में चुनाव हुए तो इज़राइल की यहूदी पहचान का नेतान्याहू का दांव कामयाब रहा और मतदाताओं ने उन्हें अप्रत्याशित बढ़त दिला दी। नेतान्याहू देश के फिर प्रधानमंत्री बने,इस बार उनके सहयोगी दलों को देखकर यह कहा गया की यह देश की सबसे कट्टरपंथी सरकार है। हालांकि जब देश में बीबी के नाम से मशहूर नेतन्याहू ने पद और गोपनीयता की शपथ ली तब नेतन्याहू को नारेबाजी का सामना करना पड़ा। संसद के बाहर भी उनके विरोधियों ने बैनर पोस्टर लेकर विरोध प्रदर्शन किया। नेतन्याहू खुद को एक ऐसे राजनेता के तौर पर प्रस्तुत करते है जो  इसराइल को मध्य पूर्व की ख़तरनाक ताकतों से सुरक्षित  रखता है,फ़लस्तीन को लेकर बहुत सख्त हैं और शांति वार्ता से ज़्यादा कड़ी सुरक्षा को तवज्जो देता है। ईरान को सीमित करता है  तथा दुनिया में नये सहयोगियों को तैयार करता है।

एक बार फिर इजराइल में नेतान्याहू के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हो रहे है। इसराइल की सड़कों पर हज़ारों प्रदर्शनकारी उतरे हैं,प्रदर्शनकारी नेतन्याहू के इस्तीफ़े और जल्दी चुनाव करवाए जाने की मांग कर रहे हैं। इन लोगों की मांग ये भी है कि हमास के क़ब्ज़े में अब भी जो 130 इसराइली बंधक हैं,उन्हें छुड़वाने के लिए जल्द से जल्द डील की जाए। इनमें से कुछ लोगों के बारे में माना जा रहा है कि वो मारे जा चुके हैं। इन सबके बीच फ़लस्तीन को लेकर नेतान्याहू का रुख बेहद सख्त है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार,ग़ज़ा के भीतर ही 17 लाख से अधिक लोगों को एक जगह छोड़कर दूसरी जगह जाने पर मजबूर होना पड़ा है। रिहायशी इलाके बर्बाद और मलबे में तब्दील हो गए है।  फ़लस्तीन के शिक्षा संस्थान,अस्पताल ध्वस्त हो गई है। युद्ध, बीमारी,भुखमरी और मौतों ने फ़लस्तीनियों को बर्बाद कर दिया है। इसराइल और हमास के बीच जंग शुरू होने के छह महीने बाद भी नेतान्याहू न तो अपने बंधकों को छुड़ा पायें है और न ही वे हमास को पूरी तरह  खत्म कर पायें है। संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत ने सर्वसम्मति से इसराइल को आदेश दिया है कि वह अकाल से ग़ज़ा को बचाने के लिए राहत सामग्री की आपूर्ति को बाधित न करे। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने यह चेतावनी दी  है कि अगर समय रहते ग़ज़ा में मानवीय सहायता नहीं पहुंची तो वहां कुछ ही हफ़्तों में अकाल पड़ सकता है।

नेतन्याहू ने एक समय हेब्रोन के 80 प्रतिशत भाग को फ़लस्तीनी प्राधिकरण के नियंत्रण में सौंपने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और कब्जे वाले वेस्ट बैंक से अधिक निकासी के लिए सहमति जताने का  साहस दिखाया था। 2009 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसराइल के साथ एक फ़लस्तीनी राज्य की अपनी सशर्त स्वीकृति की घोषणा भी की थी और यह अभूतपूर्व था।  अब नेतन्याहू की राजनीति पूरी बदल चूकी है। युद्द के बाद वे  चारों और से बूरी तरह घिर चूके है।  हमास,हिजबुल्ला,हूथी विद्रोहियों के साथ ईरान से निपटने की चुनौती सामने है। फ़लस्तीन को लेकर इसरायली आक्रमकता से विश्व समुदाय नाराज है। लेकिन नेतान्याहू फिर भी बेपरवाह राष्ट्राध्यक्ष की तरह व्यवहार करते हुए नजर आ रहे है। उन्हें वैश्विक और घरेलू स्तर पर आलोचनाओं की कोई परवाह नहीं है। नेतान्याहू,वैश्विक नेता और मध्यपूर्व के सबसे बड़े संकटमोचक बनने से कहीं ज्यादा खुद को सत्ता में बने रहने को तरजीह दे रहे है।   देश की सत्ता के शीर्ष पर बने रहने की उनकी यहीं सनक इजराइल और मध्यपूर्व की शांति की उम्मीद को ध्वस्त कर रही है।

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