सुकमा के आदिवासियों में महिला सम्मान बेमिसाल है
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सुकमा के आदिवासियों में महिला सम्मान बेमिसाल है

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नक्सलियों ने ग्राम सुराज अभियान की एक सभा पर हमला किया,अंगरक्षक का गला रेत दिया और फिर पूछा कलेक्टर कौन है ? एक शख्स  ने कहा,मैं हूँ कलेक्टर। इसके बाद नक्सली उन्हें मोटर साइकिल पर बिठाकर साथ ले गए। यह घटना 2012 की है जब सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनॉन का तब अपहरण हो गया था जब वे जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर मांझीपाड़ा गांव में ग्राम सुराज कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। सुकमा जिला छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग में उडिशा-आंध्र प्रदेश की सीमा से सटा हुआ दुर्गम जंगलों वाला इलाका है। ये रायपुर से लगभग 450 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित है।  माओवादी आतंक से बूरी तरह से ग्रस्त इस इलाके में नक्सलियों के दुस्साहस की कई कथाएं है। 2011 में सुकमा जिले से लगे उड़ीसा के मलकानगिरी जिले के कलेक्टर आरवी कृष्ण का भी अपहरण हुआ था।  वे दूरस्थ चित्रगोंडा क्षेत्र में एक पुलिया देखने गये थे और बाद में  उनका आंध्र प्रदेश की सीमा से लगते बडापाडा से नक्सलियों ने अपहरण कर लिया गया था। माओवादी केंद्रीय बलों को हटाए जाने और जेल में बंद अपने साथियों की रिहाई की मांग कर रहे थे।

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रेड कॉरिडोर के अंतर्गत आने वाले इस क्षेत्र को अतिसंवेदनशील माना जाता है लेकिन नक्सली आतंक से ग्रस्त इस इलाके की एक और सच्चाई महिला सम्मान है जिसकी कोई बराबरी नहीं हो सकती। सुकमा के घने जंगलों में कमर और शरीर के उपरी हिस्से पर सूती कपड़े का लुगड़ा बांधे अकेली आदिवासी महिलाओं को  महुआ बीनते या लकड़ी काटते आसानी से देखी जा सकती है। इन इलाकों में मुख्यतःगोंड,हल्बी या बैगा  महिलाएं आमतौर पर ऐसे ही वस्त्र पहनती है,जिन्हें स्थानीय भाषा में पाटा गंडा कहते है। गोंड का अर्थ तो वैसे भी पहाड़ माना जाता है। पिछड़ेपन,गरीबी और अशिक्षा के बाद भी इनके महिलाओं के प्रति आचरण पहाड़ की तरह ही  ऊंचे होते है।  महिलाएं न केवल घर का संचालन करती है बल्कि उनका मुखिया की तरह व्यवहार भी होता है। लड़की का रुतबा कुछ इस कदर होता है कि  गोंड़ जनजाति में विवाह के अवसर पर कहीं कहीं लड़की वाले बारात लेकर लड़के वाले के घर आते है। यहां पर विवाह का एक प्रकार लमसेना विवाह भी है,इस विवाह प्रथा में वर  अपने ससुराल में आ कर रहने लगता है। घने जंगलों में गुजर बसर करने वाले गोंडों का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन बेहद उत्कृष्ट है जहां महिलाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण नजर आती है।

 

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बस्तर में आदिवासी बाहुल्य है और यहां की संस्कृति में महिलाओं के प्रति गहरा सम्मान देखा जाता है। पुरुषों से ज्यादा महिलाएं काम करती है। घर,परिवार या समाज के विभिन्न उत्सवों में महिलाओं की भागीदारी,पुरुषों से कहीं ज्यादा होती है। बस्तर में हरियाली महोत्सव पर महिलाओं की सांस्कृतिक भागीदारी का बेहतरीन रूप उभर कर आता है। सावन मास में पहले इस उत्सव के साथ ही लोक पर्व,तीज-त्योहारों की बहार शुरू होती है। इस महोत्सव में किसान परिवार कृषि औजारों,अपने गाय-बैलों और ग्राम देवता की पूजा-अर्चना कर सुख-समृद्धि की कामना करते है। जगह-जगह गैंड़ी दौड़ का उत्सव मनाते है। इन उत्सवों में महिलाओं की भागीदारी हर स्तर पर नजर आती है। वे पूजा अर्चना से लेकर सांस्कृतिक नृत्यों और लोक गायन को आकर्षक तरीके से मनाती है।

 

तीज त्यौहार के साथ ही यहां विवाह के स्वरूप बेहद निराले है। बस्तर में घोटुल परम्परा महिलाओं की स्वतन्त्रता का प्रतीक है। बस्तर की ऐसी परंपरा है जिसमें आदिवासी युवक युवतियों को अपने जीवन साथी को चुनने की पूरी आजादी होती है। इसमें कुछ दिन तक लड़का और लड़की को एक दूसरे के साथ रहने की इजाजत दी जाती है। वे एक दूसरे को समझते है और समन्वय होने पर परिवार उनकी धूमधाम से विवाह कर देता है। घोटुल,गांव के किनारे बांस या  मिट्टी  की बनी झोंपड़ी होती है। घोटुल को सुन्दर बनाने के लिए उसकी दीवारों में रंगरोगन करके उस पर चित्रकारी भी की जाती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मंडप होता है। देश के कई हिस्सों में भ्रूण हत्या या खाप पंचायतों का खौफ लड़कियों की पसंद पर कहर बनकर टूटता है,वहीं बस्तर में महिला अस्मिता की सुरक्षा और स्वतन्त्रता प्रेरणादायक है। इन क्षेत्रों में भाई की मृत्यु हो जाने पर विधवा परित्यकता,पुर्नविवाह  की मान्यता है। विधवा भाभी देवर के लिए चूड़ी पहन सकती है। इससे साफ होता है की महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान का आदिवासी समाज में किस कदर ध्यान रखा जाता है। आजकल आदिवासी महिलाएं बांस की राखी बनाकर भी आर्थिक तौर पर मजबूर हो रही है। यह इतनी करीने से बनाई जाती है कि दिखने में बहुत आकर्षक और मजबूत होती है।

दंतेवाडा और सुकमा को जोड़ने वाली कटेकल्याण और प्रतापगढ़ की पहाड़ियों के नीचे एक हमीरगढ़ गांव है। नक्सल प्रभावित इस अतिसंवेदनशील इलाके में कोयला भट्टी से एक पगडंडी से यहां प्रवेश किया जाता है। इस इलाके में घने जंगल है और एक नदी है। दर्भा डिवीजन से जुड़े नक्सली इस क्षेत्र में नक्सली वारदात को अंजाम देकर कांकेर वैली और मलकानगिरी में इस रास्ते से भागते है।  कटेकल्याण की पहाड़ियां बड़े व्यापक क्षेत्र में फैली हुई है और यह नक्सलियों के छुपने का सुरक्षित ठिकाना मानी जाती है। इस क्षेत्र में सीआरपीएफ के जवान तलाशी अभियान चलाते तो रहते है लेकिन पहाड़ियों के ज्यादा अन्दर जाना बड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। यहां आईइडी ब्लास्ट होने की भरपूर संभावना बनी रहती है। लुडकीराज यहीं से पहाड़ियों से सटा इलाका है। इन घने जंगलों में महिलाओं को महुआ बीनते या ताड़ी लेकर बाज़ार जाते हुए देखा जाता है। इस क्षेत्र में गोंडी और हल्बी बोली जाती है तथा आदिवासी हिंदी को नहीं समझ पाते। इन इलाकों में महिलाएं पारम्परिक वस्त्रों ने दिखाई देती है।

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छत्तीसगढ़ की जीवन रेखा  माने जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 30 नक्सल प्रभावित जगदलपुर से सुकमा होते हुए तेलंगाना को जोड़ता है। नक्सली हमलों के लिए कुख्यात दर्भा घाटी से नीचे उतरकर तोंग्पाल आता है,यहां से मलकानगिरी,उड़ीसा की पहाड़िया दिखाई देती है। मलकानगिरी और सुकमा नक्सली हमलों के केंद्र के रूप में देश भर में कुख्यात है। इस क्षेत्र में दूर दराज के इलाकों में बीज,फल या ताड़ी बेचते हुए महिलाएं ही मिलती है।

नक्सली हमलों में भी महिलाओं की भूमिका बेहद खतरनाक तरीके से सामने आती रही है। सुकमा और बस्तर के दूर दराज के इलाकों में अभी भी हर घर से एक बेटी को भेजने के लिए नक्सली दबाव बनाते है। इन आदिवासी इलाकों में लिंग भेद का कहीं नामोनिशान नहीं दिखाई देता। नक्सली केडर में महिलाओं को बड़े पद और दायित्व दिए जाते है। यह भी देखने में आया है कि माओवादी हमलों में बहुतायत महिलाओं की होती है। हालांकि नक्सलियों का सामना करने वाले बस्तर फाईटरस के दस्तें भी सुकमा के बस स्टेशन पर तैनात रहते है। नक्सलियों के खिलाफ सर्चिंग अभियान में भी उनकी भागीदारी बनी रहती है। कई मोर्चों पर वे सीआरपीएफ के साथ कंधा से कंधा मिलाकर लड़ती है और नक्सलियों को मार गिराती है।

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दक्षिण बस्तर के सुकमा जिले के लेदा गांव में लिब्रू बघेल का टूटा फूटा स्मारक बना है। वे छत्तीसगढ़ की विशेष सशस्त्र बल के जवान थे। एक रोज जब वे घर लौटे तो नक्सलियों को इसकी भनक लग गई। नक्सलियों ने  लिब्रू बघेल पर दबाव बनाने की कोशिश की, की वह पुलिस की नौकरी छोड़कर नक्सलियों के साथ हो जाएँ। लिब्रू बघेल ने नक्सलियों को अपनी गोलियों से जवाब दिया और कुछ ही दिनों बाद वे शहीद हो गए। जवान भाई और बेटे की मौत भी इस परिवार को झुका नहीं सकी। अब  लिब्रू बघेल की बहन पुलिस की तैयारी कर रही है। जाहिर है बस्तर की महिलाओं का हौंसला कमाल का है जहां सम्मान और शौर्य की सामाजिक स्वीकार्यता बेमिसाल है।

 

 

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