सुबह सवेरे,भोपाल ,23 मार्च 2023

भगतसिंह ने शहादत से ठीक पहले साथियों को जो पत्र लिखा था,उसमें उन्होंने फांसी पर चढ़ने की ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा कि अब हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी। हालांकि उन्होंने अपने बलिदान को मातृभूमि की सेवा के हजारवें भाग से भी कम बताया था। इसका कारण उनके गुरुओं की देशभक्ति,सेवा,त्याग और सिखों का मातृभूमि के प्रति मर मिटने का वह जज्बा था जिसकी इतिहास और कोई मिसाल नहीं हो सकती थी।
जलियावाला बाग़ हत्याकांड से उद्देलित होकर भगत सिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे और रक्त से भीगी मिट्टी को एक बोतल में रखकर उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने की कसम ली। भगतसिंह के पास जीवन भर यह मिट्टी रही जो उन्हें फिरंगियों से गहरी नफरत का एहसास कराती थी और ब्रितानी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए उद्देलित करती थी।
एक बार माता पिता ने भगतसिंह की शादी की बात की तो उन्होंने साफ कहा कि,मैं स्वयं को भारत मां की आज़ादी के लिए अर्पण कर चूका हूं । इसलिए कभी मेरे विवाह के बारे में न सोचा जाये। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत रॉय की अंग्रेज़ों ने जब लाठी डंडों से पीटकर हत्या कर दी तो क्रांतिकारियों का खून खौल उठा। चंद्रशेखर आज़ाद,भगतसिंह और साथियों ने इसके ज़िम्मेदार सांडर्स को सबक सिखाने की ठान ली। राजगुरु ने सांडर्स को निशाना बना कर उसके पुलिस कार्यालय के सामने ही ढेर कर दिया।
भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव की फांसी की सजा ने आज़ाद को बहुत दुखी कर दिया था। आज़ाद रात दिन अपने साथियों को जेल से छुड़ाने की योजना बनाते रहते। तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए भी आज़ाद ने हार नहीं मानी और अंततः भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव को जेल से भगा लेने की योजना बना ही ली। लेकिन भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव भागने के बजाय फांसी पर चढ़कर देश के युवाओं को क्रांति और देशभक्ति का सन्देश देना चाहते थे। उन्होनें आज़ाद की योजना पर ख़ामोशी ओढ़ ली। भगतसिंह ने बचाव की लिए कोई वकील भी नहीं रखा और अपने मुकदमे की पैरवी खुद की। वे जज के सामने स्वतंत्रता और साम्राज्यवाद पर खुलकर अपनी बात रखते थे जिससे देश के युवा ज्यादा से ज्यादा स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बने। जेल में बंद एक स्वतंत्रता सेनानी ने जब इस बारे में भगतसिंह से पूछा कि,आप और आपके साथियों ने लाहौर षड्यंत्र केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया। इस पर भगत सिंह का जवाब था कि,इन्कलाबियों को मरना ही होता है,क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है,अदालत में अपील से नहीं।
भगत सिंह की रिहाई की मांग को लेकर देशभर में प्रदर्शन हुए,यहां तक की इंग्लैंड की संसद के निचले सदन के कुछ सदस्यों ने भी फांसी की सजा का विरोध किया। वास्तव में भगतसिंह और साथियों को फांसी पर चढ़ाये जाने के पीछे अंग्रेजों की क्रांतिकारियों के प्रति नफरत हावी थी। जबकि भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव फांसी पर चढ़ कर देश में आज़ादी के संदेश को और दृढ करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी सजा को स्वीकार किया,माफ़ी नहीं मांगी,जेल से भागने की आज़ाद की योजना स्वीकार नहीं की और ब्रिटिश साम्राज्य का अदालत में लगातार खुला विरोध किया। देश में जनजागृति की मिसाल कायम करते हुई इन महान वीरों ने फांसी के तख्ते को चूमा और हंसते हंसते अपने प्राणों को भारत माता के चरणों में न्यौछावर कर दिया।
भगतसिंह का पूरा परिवार ही देश भक्त था,जिस दिन भगत का जन्म हुआ,उनके चाचा जेल से रिहा हुए थे। परिवार ने इसीलिए उनका नाम भागां अर्थात् अच्छे भाग्य वाला रखा था। जब भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाई गई तो इस महान देश भक्त की माता ने गर्व से अभिभूत अपने बेटे से एक वचन लिया। दरअसल भगत सिंह ने अपनी माँ को वचन दिया था कि वो फांसी के तख़्ते से इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा लगाएंगे। मां को दिए वचन को पूरा करते हुए इस वीर ने फांसी के फंदे को चूमा,इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया और हंसते हंसते मौत को गले लगा लिया।
देश के लिए मर मिटने का जज्बा भगतसिंह में कूट कूट कर भरा था,एक बार माता पिता ने भगतसिंह से शादी कर घर बसाने की जिद कि तो उन्होंने साफ कहा की मैं स्वयं को भारत मां की आज़ादी के लिए अर्पण कर चूका हूँ। इसलिए कभी मेरे विवाह के बारे में न सोचा जाये।
फांसी देने के बाद भी अंग्रेज बूरी तरह से डरे हुए थे क्योंकि भीड़ बड़ी संख्या में जेल के बाहर जुट चुकी थी। अंग्रेज अधिकारियों का विचार था कि इन सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही किया जाएगा,लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआँ उठते देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है। इसलिए जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई,उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और सामान के नीचे शवों को छुपा दिया गया। फिर चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलज किनारें रात 10 बजे तीनों शहीदों का अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। अगले दिन दोपहर के आसपास ज़िला मैजिस्ट्रेट के दस्तख़त के साथ लाहौर के कई इलाकों में नोटिस चिपकाए गए जिसमें बताया गया कि भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु का सतलज के किनारे हिंदू और सिख रीति से अंतिम संस्कार कर दिया गया है।
लाहौर से फैसलाबाद जाते हुए रास्ते में एक गांव पड़ता है बंगा। यहीं पर भगतसिंह का जन्म हुआ था। बंटवारे के वक्त इस गांव से सारे हिन्दू और सिख भारत आ गए लेकिन आज भी भगतसिंह की यादें इस गांव में सुरक्षित है। भगत सिंह की हवेली को पाकिस्तान में राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है,यह बात और है कि उस हवेली की देखभाल सरकार नहीं बल्कि विभाजन के समय भारत से गए हुए एक मुसलमान साकिब वरक करते है। 1947 में ये घर उनके दादा फज्ल कादिर वरक को अलॉट हुआ था और उस दौर से ही दुनियाभर से लोग इसे देखने आते रहते हैं। उस गांव में रहने वाले बुजूर्ग मुहम्मद सिद्दीक बताते है कि,भगत सिंह कहते थे कि ये मुल्क हमारा है,यहां की जमीन भी हमारी है,लेकिन हुक्मरानी और कानून अंग्रेज का चले,ये मुझे मंजूर नहीं। इसी जद्दोजहद में उन्होंने अपनी जान कुर्बान कर दी। भगतसिंह को चाहने वाले भारत और पाकिस्तान दोनों जगह मिल जायेंगे,इसका प्रमुख कारण यह भी है कि वे राष्ट्र को धर्म से पहले रखते थे।
पिछले कुछ वर्षों में यह देखने में आया है कि पंजाब के कुछ भटके हुए लोग अलग राष्ट्र यानि अलग सिख होमलैंड खालिस्तान की मांग करते है। खालिस्तानी मीरी-पीरी यानी राजकाज और धार्मिक नेतृत्व पर विश्वास करते है। वे चाहते हैं कि ये दोनों काम गुरुद्वारे ही करें। पंजाब के आम आदमी के लिए भगतसिंह ही हीरो है। इसीलिए ये लोग खालिस्तानियों से इत्तेफाक नहीं रखते। उनके लिए गुरुद्वारे श्रद्धा,भक्ति और आस्था का प्रतीक है तथा वे मानते है कि राजनीति के लिए धार्मिक स्थल का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। आखिर शहीद-ए-आजम भगतसिंह भी धर्म को राजनीति से अलग करते हुए इसे व्यक्तिगत बताते थे साथ ही इसमें दूसरों के दखल को वे गैर जरूरी बताते थे।
#ब्रह्मदीप अलूने

