राष्ट्रीय सहारा,हस्तक्षेप
जर्मनी का मिश्रित प्रतिनिधित्व का मॉडल लोकतान्त्रिक चुनावों के लिए आदर्श माना जाता है। जर्मनी में मिश्रित सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। इस प्रणाली में,पार्टी को उसके प्राप्त वोटों के अनुपात में सीटें दी जाती हैं। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि चुनाव में किसी पार्टी के वोटों की वास्तविक संख्या को प्रतिनिधित्व में समाहित किया जाए। यह मॉडल दो भागों से बनता है। क्षेत्रीय सीटें, सामान्य बहुमत आधारित प्रणाली के तहत प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए उम्मीदवारों को दी जाती हैं। इसका उद्देश्य यह है कि हर क्षेत्र का स्थानीय प्रतिनिधि संसद में हो। वहीं आनुपातिक सीटें देश भर में प्रत्येक पार्टी को उनके प्राप्त वोटों के अनुपात में दी जाती हैं। यह प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि वोटों के अनुसार पार्टी को संसदीय प्रतिनिधित्व मिले,चाहे किसी राज्य में उनकी सीटें कम क्यों न हों। यह मॉडल दोनों प्रकार के संतुलन को ध्यान में रखता है,जिससे क्षेत्रीय संतुलन और आनुपातिक संतुलन दोनों का समावेश होता है। इस प्रकार की प्रणाली, छोटे राज्यों या क्षेत्रों को संसद में उचित प्रतिनिधित्व देती है,जबकि बड़े राज्यों को उनके वोटों के अनुपात में सीटें मिलती हैं।
यूरोप के सबसे बड़े देशों में से एकजर्मनी की भौगोलिक परिस्थितियां बेहद जटिल है।दक्षिण के ऊंचे,सीधे पहाड़,उत्तर के रेतीले लुढ़कते मैदान,शहरीकृत पश्चिम की वनाच्छादित पहाड़ियाँऔर कृषि प्रधान पूर्व के मैदान। यह स्थिति भारत की प्राकृतिक और भौगोलिक जटिलताओं जैसी ही है। जर्मनी में 16 राज्य हैं,जिनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी भौगोलिक और जलवायु विशेषताएँ हैं जो उसे दूसरे राज्यों से अलग बनाती हैं। इन भौगोलिक जटिलताओं का प्रभाव न केवल राज्य की आंतरिक नीतियों पर पड़ता है,बल्कि यह संघीय राजनीति और चुनावों को भी प्रभावित करता है।जर्मनी में कई पर्वतीय क्षेत्र हैं,जो भू-आकृति और भौगोलिक स्थिति के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं। ये क्षेत्र न केवल प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान करते हैं,बल्कि राज्य के सामाजिक और आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं। जर्मनी की उत्तरी सीमा उत्तर सागर और बाल्टिक सागर से लगती है,जिससे उसके तटीय इलाके में अलग-अलग भौगोलिक और जलवायु विशेषताएं हैं। यहां पर भौगोलिक और जलवायु विशेषताओं की इसलिए चर्चा की गई है क्योंकि इसका लोगों और उनकी जरूरतों पर भी असर पड़ता है। इसे भारतीय परिस्थितियों और क्षेत्रवाद के परिपेक्ष्य में भी भलीभांति अनुभव किया जा सकता है ।
भारत में समान प्रतिनिधित्व के आधार पर लोकसभा में चुनाव पहले पास्ट द पोस्ट प्रणाली के आधार पर होते हैं। जिसमें प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में सबसे अधिक वोट प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजेता होता है। इस प्रणाली में,छोटे राज्यों को भी उनका उचित प्रतिनिधित्व मिलता है,लेकिन जनसंख्या के आधार पर बड़े राज्यों को अधिक सीटें मिलती हैं। राज्यसभा के सदस्य का चुनाव राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा किया जाता है,जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत होते हैं। प्रत्येक राज्य को अपनी जनसंख्या के हिसाब से सीटें मिलती हैं, लेकिन यहां आनुपातिक आधार पर सीटों का आवंटन किया जाता है।
भारत में चुनावी प्रक्रिया और प्रतिनिधित्व व्यवस्था बहुत जटिल है,क्योंकि यह विविधता से भरे समाज,क्षेत्रीय असंतुलन और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को समाहित करती है। भारत में चुनावी प्रतिनिधित्व का आधार जनसंख्या और क्षेत्रीय संतुलन दोनों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। लेकिन इसके साथ कई तरह की चुनौतियां भी उत्पन्न होती हैं। भारत में संसद में प्रतिनिधित्व का आधार जनसंख्या,क्षेत्रीय संतुलन और आरक्षण जैसी विभिन्न आवश्यकताओं पर आधारित है। यह सुनिश्चित करता है कि देश के सभी हिस्सों,चाहे वे बड़े हो या छोटे,सभी को उनके सही हिस्से का प्रतिनिधित्व मिल सके। हालांकि,समय-समय पर सुधार की आवश्यकता हो सकती है जिससे यह प्रणाली और अधिक न्यायपूर्ण,समावेशीऔर प्रभावी बन सके। भारत में लोकसभा और राज्यसभा चुनावों के लिए वर्तमान पद्धतियों के मुकाबले जर्मनी की मिश्रित पद्धति ज्यादा जटिल हो सकती है। भारत में फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली का पालन किया जाता है,जो अपेक्षाकृत सरल है और इसका सीधा और स्पष्ट परिणाम सामने आता है, जबकि एमएमपी या मिश्रित सदस्य आनुपातिक प्रणाली में दो वोट होते हैं,एक क्षेत्रीय और दूसरा पार्टी के लिए और सीटों का आवंटन भी अलग-अलग तरीकों से किया जाता है,जिससे यह प्रक्रिया अधिक जटिल हो सकती है। भारत के विविध और विशाल चुनावी क्षेत्र में इस प्रकार की जटिल प्रणाली को लागू करना आम नागरिकों के लिए समझना और हाथ में लेना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
भारत की जनसंख्या और राज्यों की विविधता जर्मनी से बहुत अलग है। जर्मनी की तुलना में भारत का आकार बहुत बड़ा है और यहां के विभिन्न राज्यों की जनसंख्या,सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता की वजह से चुनावी प्रक्रिया में असंतुलन हो सकता है।जर्मनी में हर राज्य को उसके सांविधिक और जनसंख्या आधार पर समान प्रतिनिधित्व मिलता है जबकि भारत में उत्तर प्रदेश,बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों को अधिक सीटें मिलती हैं,जबकि छोटे राज्यों को कम। यह दक्षिण और उत्तर पूर्व के राज्यों को देखकर समझा जा सकता है। यहां यह चुनौती भी है कि भारत की जाति,धर्म,भाषा,क्षेत्रीय विचारधारा की वजह से ज्यादा राजनीतिक दलों का होना दुविधाएं बढ़ाता है। अगर जर्मनी की पद्धति को अपनाया जाता है,तो विभिन्न राजनीतिक गठबंधनों और स्थानीय दलों के बढ़ने की संभावना होगी,जो राष्ट्रीय स्थिरता को प्रभावित कर सकता है और इससे संप्रभुता संबंधी चुनौतियां बढ़ सकती है।
जर्मनी की चुनाव पद्धति में क्षेत्रीय और आनुपातिक प्रतिनिधित्व दोनों का मिश्रण होने के कारण छोटे और क्षेत्रीय दलों को अधिक प्रतिनिधित्व मिलता है। भारत में भी क्षेत्रीय दलों का बड़ा प्रभाव है, खासकर उत्तर भारत, दक्षिण भारत, और पूर्वोत्तर भारत में। अगर भारत में जर्मनी की चुनावी पद्धति लागू होती है, तो क्षेत्रीय दलों का प्रभाव और भी बढ़ सकता है,जो कभी-कभी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन सरकारों को अस्थिर बना सकता है। भारत में गठबंधन सरकारों के दौर में ऐसा कई बार हुआ है जब राष्ट्रीय हितों पर क्षेत्रीय दलों ने हावी होने की नीति अपनाई है।इन सबके बीच बदलते दौर में यह महसूस किया जा रहा है कि भारत में चुनाव प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है जिससे समान प्रतिनिधित्व, न्यायपूर्ण चयन और प्रदर्शन की दक्षता सुनिश्चित हो सके। भारत में चुनावी प्रक्रिया में सुधार के लिए मिश्रित पद्धति के विचार पर गंभीर विचार किया जा सकता है, खासकर छोटे दलों और समाज के कमजोर वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के दृष्टिकोण से। बेशक इसमें जटिलताएं है तथा यह पद्धति स्थिरता और सरकार के गठन में चुनौतियां भी बढ़ा सकती है,जिन्हें समय-समय पर समीक्षा और सुधार के साथ नियंत्रित किए जाने की जरूरत होगी।
इस समय परिसीमन को लेकर भारत में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच राजनीतिक विवाद गहराया हुआ है। दक्षिण भारत के विभिन्न राजनीतिक दल जिस प्रकार से केंद्र सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहे है उससे चुनाव आयोग और चुनाव से जुडी अन्य संविधानिक निकायों के सामने चुनौतियां बढ़ सकती है। देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए परिसीमन से आने वाली परेशानियों के समाधान ढूंढने होंगे। जाहिर है भारत में क्षेत्रीय संतुलन पर आधारित जर्मनी के मिश्रित प्रतिनिधित्व के मॉडलको अपनाने पर गहरी चर्चा की जा सकती है। जर्मनी की चुनाव पद्धति को स्वीकार करने से भारत में कई संविधानिक,प्रौद्योगिकीय और सामाजिक चुनौतियां सामने आएंगी। भारत की राजनीतिक और सामाजिक विविधता को ध्यान में रखते हुए,इस पद्धति को अपनाने में स्थिरता और संतुलन बनाए रखने के लिए एक सशक्त और सूझबूझ से नीति निर्धारण की आवश्यकता होगी। इस पद्धति में सुधार के लिए मिश्रित दृष्टिकोण को अपनाने का विचार किया जा सकता है,जिसमें आनुपातिक प्रतिनिधित्व और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व दोनों को संतुलित तरीके से लागू किया जा सके।
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