बस्तर में नक्सलियों को आमतौर पर दादा लोग कहा जाता है,लेकिन इनके दादा बनने की शुरुआत बालपन से ही हो जाती है। #नक्सल गांवों में बाल संघ काम करता है। इसमें छह साल से करीब 13 साल के बच्चें होते है। नक्सली यह मानते है कि बच्चों पर सुरक्षा बल या पुलिस की पैनी निगाहें नहीं होती। अत: यह बच्चें नक्सलियों के लिए सूचनाओं का बड़ा माध्यम होते है। बच्चों की नजरें #सीआपीएफ़ की मूवमेंट के साथ नये लोग के आगमन पर भी होती है और वे यह खबरें ग्राम रक्षा दल को देते है। ग्राम रक्षा दल नक्सलियों को गांव गांव मजबूती देने का मजबूत आधार होता है। नक्सलियों की बैठक हो या उन्हें सहायता देना,#ग्राम रक्षा दल यह सुनिश्चित करता है की इसमें हर गांव की भागीदारी हो। वह बाल संघ के सदस्यों पर बारीकी से नजर रखता है और इसमें प्रतिभा के अनुसार उन्हें भिन्न भिन्न काम में लगाया जाता है। #बाल संघ में कभी लिंग भेद नहीं किया जाता और इसमें लड़कियों की संख्या अमूमन ज्यादा ही होती है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि जनजातीय समाज में लड़कियों की हैसियत बहुत मजबूत होती है।
बालसंघ के तेज तर्रार और आक्रामक माने जाने वाले सदस्यों को 14 साल तक होते होते हथियार चलाना सीखा दिया जाता है और वे #लोकल #गुरिल्ला #स्क्वाड में शामिल कर लिए जाते है। यह स्क्वाड 12 से 15 लोगो की टीम होती है,जिसके पास हथियार भी होते है। यही टीम आईईडी प्लांट करने और छोटे छोटे हमलों को अंजाम देती है। हिंसा के इसी रास्ते को तय करते हुए नक्सली #एरिया कमांडर,#ज़ोन कमांडर से लेकर इंचार्ज और सलाहकार तक बन जाते है। #दरभा डिविजन,दक्षिण बस्तर में आता है। इसमें तीन एरिया कमेटी काम करती है,कटे कल्याण एरिया कमेटी,कांगेर वाली एरिया कमेटी और मलांगगिरी एरिया कमेटी। इस साल मार्च में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में #कांगेर वैली एरिया कमेटी की सदस्य #मुन्नी कटे कल्याण की पहाड़ियों में मारी गई थी। वह उड़ीसा की #मलकानगिरि की पहाड़ियों के नीचे सुकमा जिले के गांव #चीतल नार कुंजामी पारा की रहने वाली थी। उसका पति सुकराम मरकाम इस क्षेत्र का कुख्यात नक्सली है। सीआरपीएफ नक्सलियों की पहचान होने पर उनके घर वालों को जाकर समझाती है कि वे अपने परिवार के नक्सलियों को आत्मसमर्पण का कहें तो उनका पुनर्वास की व्यवस्था सरकार कर देगी। हालांकि सीआरपीएफ को इसमें कम ही सफलता मिलती है।
सुकमा जिले के अंतिम छोर पर एक गांव बसा है #कुमाकोलेंग। यहां बच्चों का स्कूल है। यह सीआरपीएफ के कैम्प से सटा हुआ है। स्कूल को लेकर नक्सली इलाकों में असमंजस होता है,नक्सलियों को लगता है कि बच्चें पढ़ लिखकर शहर चले जाएंगे जिससे उनका अभियान कमजोर हो सकता है। वे स्कूलों को जला देते है,फिर भी मास्टर साहब रास्ते में कहीं भी मिल जाते है और वे बेखौफ होते है। नक्सलियों को सीआरपीएफ को छोड़कर किसी से कोई परेशानी नहीं है,स्थानीय पुलिस से भी नहीं। वैसे भी नक्सली इलाकों में लेवी का बढ़िया कारोबार होता है। #लेवी एक प्रकार की सुरक्षा राशि है जो नक्सली सरकारी कर्मचारियों,व्यापारियों और ठेकेदारों से हर माह वसूल करते है। और यह काम लोग ख़ुशी ख़ुशी करते है,किसी झंझट से बचने के लिए।
इन सबके बाद भी यह समझने की बिल्कुल भूल नहीं होना चाहिए की नक्सली निरक्षर या कम पढ़े लिखे होते है। नक्सलियों के समूह में डॉक्टर,इंजीनियर से लेकर अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले भी मिल जाएंगे। नक्सलियों में #मिलिशिया काम करता है और इसके बाद प्रत्येक नक्सली को कॉमरेड कहा जाता है। नक्सलियों में यह विश्वास किया जाता है कि नक्सली मूवमेंट में शामिल होने के बाद और #कामरेड बनते है जातिगत और वर्गीय पहचान से अलग एक नए नाम के साथ उसका दोबारा जन्म होता है। फिर यही पहचान आजीवन बनी होती है। नक्सलियों में केंद्रीय समिति के सदस्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होती है और यह लोग देश के विख्यात विश्वविद्यालयों से पढ़े लिखे होते है।नक्सलियों के सही नाम का पता लगाना मुश्किल होता है। नये लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए नक्सली कई तरीके अपनाते हैं। इसमें से एक प्रमुख तरीका है किसी कामरेड की वीरता का बार बार बखान करके युवाओं को यह विश्वास दिलाना की लड़ाई में शामिल होना उनके सम्मान को बढ़ाता है और मरने पर समाज में शहीद का दर्जा मिलता है।
नक्सलियों की अपनी गुप्तचर शाखा होती है और इसमें सब्जी,फल बेचने वाले या महुआ बीनने वाले शामिल होते है। उनकी नजर सीआरपीएफ के कैम्प और उनकी आवाजाही पर नजर रखने पर होती है। नक्सलियों की कोशिश होती है कि बिना मोबाइल के सूचनाओं का आदान प्रदान हो जाएँ। नक्सलियों की यह गुप्तचर शाखा के लोग बाज़ार में जलेबी की दूकान लगाने समेत छोटे मोटे काम करते है।
नक्सली इलाकों में जब कोई युवा और युवती सुबह दौड़ने जाते है तो इसकी खबर नक्सलियों तक जल्द पहुंच जाती है कि कहीं वह पुलिस या सेना में जाने की तैयारी तो नहीं कर रहा। यदि इसकी संभावना लगती है तो परिवार और उस युवा को समझाया जाता है और दबाव डालकर नक्सल समूह में भर्ती कर लिया जाता है। इन इलाकों में नक्सलियों की बात न मानने का मतलब मौत ही है। इन इलाकों में रहने वाले परिवारों को समझाया जाता है कि सरकारी नौकरी का मतलब आदिवासियों का शोषण और अत्याचार है। अत: खुद की रक्षा करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि नक्सली संगठन में शामिल होकर हथियार उठा लिए जाएं। नक्सलियों के मरने पर बड़े बड़े स्मारक बनाएं जाते है। वहां पुलिस और सुरक्षाकर्मियों से बदला लेने की कसमें खिलाई जाती है। नक्सली स्मारक को लोकार्पित करने के लिए किसी बड़े नक्सली नेता को आमंत्रित किया जाता है और वहां जश्न मनाया जाता है। यह जश्न इतना व्यापक होता है कि युवा इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते और सबसे ज्यादा भर्ती इसी समय होती है।
नक्सली #रेड कोरिडोर के विभिन्न इलाकों में बाकायदा भर्ती सप्ताह मनाते है और इसकी जिम्मेदारी एरिया कमांडर को दी जाती है।
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