अमेरिका से रणनीतिक सहयोग पर  पुनर्विचार की जरूरत
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अमेरिका से रणनीतिक सहयोग पर  पुनर्विचार की जरूरत

राष्ट्रीय सहारा,हस्तक्षेप

सामरिक साझेदारी और साझा सुरक्षा हित अमेरिका को अपने वैश्विक उद्देश्य पूरे करने में सहायता करते रहे हैं। ट्रम्प की वैदेशिक नीति ने अमेरिकी की स्थापित वैश्विक अवधारणा को बदलते हुए इसे आर्थिक फायदों और व्यापारिक संरक्षणवाद पर केंद्रित कर दिया है। ट्रंप का दृष्टिकोण पारंपरिक कूटनीतिक दृष्टिकोणों से हटकर अत्यधिक व्यावहारिक नजर आता है और इसे पहलगाम में हुए आतंकी हमलें के बाद भारत ने बखूबी महसूस भी किया है। इस समूचे घटनाक्रम में अमेरिकी प्रतिक्रिया बेहद सामान्य रही है।

बदलती वैश्विक परिस्थितियों तथा चीन और अमेरिका की कड़ी प्रतिद्वंदिता के बीच अमेरिका की एशिया प्रशांत नीति के केंद्र में भारत है। भारत अमेरिका का एक सैन्य,रणनीतिक साझेदार,आर्थिक और व्यापारिक सहयोगी तथा  वैश्विक कूटनीतिक शक्ति के रूप में अमेरिका के हितों को बढ़ावा देता है। भारत और ईरान के सम्बन्ध अमेरिकी हितों का खयाल रखने के कारण प्रभावित हो चूके है। भारत और ईरान के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध गहरे हैं,ट्रंप प्रशासन के पहले दौर में,भारत को अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाना पड़ा। ट्रंप प्रशासन ने मई 2018 में ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका को बाहर निकाल लिया और दोबारा कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए। भारत ईरान से तीसरा सबसे बड़ा तेल खरीदार था। लेकिन जब अमेरिका ने ईरान को लेकर कड़ी नीति अपनाई तब भारत ने ईरान से तेल आयात पूरी तरह बंद कर दिया। भारत के लिए यह बेहद घाटे का सौदा था जिसे भारत ने स्वीकार किया। अब भी भारत अमेरिकी हितों का संवर्धन करते हुए अपनी वैदेशिक नीति का संचालन करता है,पर अमेरिका भारत के हितों के प्रति जवाबदेह नजर नहीं आता और इससे भारत को सतर्क रहने की जरूरत है।

भारत अमेरिका के शीर्ष रक्षा खरीददारों में से एक है। भारत और अमेरिका नियमित रूप से त्रिपक्षीय या बहुपक्षीय सैन्य अभ्यास करते हैं। हिन्द महासागर की सुरक्षा रणनीति,ऊर्जा,समुद्री नियंत्रण,तकनीक और वैश्विक शक्ति संतुलन को लेकर भारत और अमेरिका के बीच सहयोग निरंतर बढ़ा है। अमेरिका भारत के साथ मिलकर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के प्रभाव को संतुलित करता है। यह एक भू-राजनीतिक सहयोग है क्योंकि यह समुद्री सुरक्षा,शक्ति संतुलन और रणनीतिक नियंत्रण से जुड़ा है। भारत को दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन,इंडोपैसिफिक में नौसैनिक रणनीति और चीन की घेराबंदी जैसी रणनीतियां  बनानी पड़ती हैं वहीं अमेरिका की विदेश नीति बहुआयामी,सामरिक और स्वहित केंद्रित होती है।

चीन वन बेल्ट वन रोड परियोजना को साकार कर दुनिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है और उसके केंद्र में हिन्द प्रशांत क्षेत्र की अहम भागीदारी है। भारत अपनी सुरक्षा मजबूरियों के चलते अमेरिका का स्वभाविक सहयोगी बन गया है। चीन पाकिस्तान की बढ़ती साझेदारी ने  भारत की सामरिक समस्याओं को बढ़ाया है। चीन पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट का प्रमुख भागीदार है। श्रीलंका का हंबनटोटा पोर्ट,बांग्लादेश का चिटगाँव पोर्ट,म्यांमार की सितवे परियोजना समेत मालद्वीप के कई निर्जन द्वीपों को चीनी कब्ज़े से भारत की समुद्री सुरक्षा की चुनौतियां बढ़ गई है। दक्षिण चीन सागर का इलाक़ा हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच है और चीन,ताइवान,वियतनाम,मलेशिया,इंडोनेशिया,ब्रुनेई और फिलीपींस से घिरा हुआ है। यहां आसियान के कई  देशों के साथ चीन विवाद चलता रहता है। चीन पर आर्थिक निर्भरता के चलते अधिकांश देश चीन को चुनौती देने में नाकामयाब रहे थे। क्वाड के बाद कई देश खुलकर चीन का विरोध करने लगे थे और यह भारत की  कोशिशों से ही संभव हुआ था। लेकिन चीन को सीमित करने के लिए बढ़ते भारत अमेरिकी सहयोग को ट्रम्प की संरक्षणवाद की नीति ने झटका दे दिया। वहीं पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति से भारत आशंकित है। मध्य और दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बनाएं रखने के लिए अमेरिका पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति को बेहद खास मानता है। अमेरिका ने  पाकिस्तान को गैरनाटो प्रमुख सहयोगी का दर्जा दिया है जिससे उसे सैन्य सहायता और अन्य सहयोग  मिलना सुनिश्चित हुआ है। अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य अभियानों के लिए पाकिस्तान की भूमिका अहम रही। दोनों देशों के रिश्तों में उतार चढ़ाव के बाद भी अमेरिका के लिए पाकिस्तान एक  आवश्यक सहयोगी  है। दोनों देशों के रिश्ते रणनीतिक जरूरतों  पर आधारित है।

अमेरिका की विदेश नीति और सैन्य रणनीतियां आमतौर पर सीधी सैन्य भागीदारी से बचने पर आधारित रहती हैं,जब तक कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक शांति के लिए आवश्यक न हो। अफगानिस्तान में अमेरिका ने इसलिए सैन्य हस्तक्षेप किया था क्योंकि वहां की तालिबान सरकार ने अल कायदा को मदद और पनाह दी थी। यदि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होता है,तो अमेरिका भारत का रणनीतिक साझेदार होने के बाद भी किसी सैन्य भागीदारी से  दूर रहेगा। पाकिस्तान और भारत दोनों के साथ उसके व्यापारिक और सुरक्षा हित हैं। ऐसे में अमेरिका से किसी सहयोग की आशा नहीं की जा सकती।

अमेरिका केवल वहीं हस्तक्षेप करता है जहां उसके हित प्रभावित हों। अमेरिका अपने विरोधियों पर प्रतिबंध,आर्थिक दबाव,कूटनीतिक अलगाव जैसी रणनीति अपनाता है। चीन,रूस,ईरान,उत्तर कोरिया आदि की शक्ति को सीमित  करने के लिए वह अलग अलग रणनीति पर काम करता रहा है। अमेरिका मित्र राष्ट्रों के हितों के लिए किसी अलगाव की नीति अपनाने से परहेज करता है। ट्रम्प तो बहु पक्षीय सुरक्षा संगठनों को अमेरिकी हितों के लिए बेकार बता चूके है। नाटो गठबंधन ने यूरो-अटलांटिक क्षेत्र,भूमध्य सागर और खाड़ी क्षेत्र के देशों के साथ संरचित साझेदारी का एक नेटवर्क विकसित किया है साथ ही दुनिया भर के अन्य भागीदारों के साथ व्यक्तिगत संबंध भी बनाए हैं। नाटो कई भागीदार देशों के साथ संवाद और व्यावहारिक सहयोग करता है और राजनीतिक और सुरक्षा-संबंधी मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला पर अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ता है। ट्रम्प ने बार-बार नाटो की आलोचना की और यूरोपीय देशों को अपने सुरक्षा खर्च खुद उठाने की बात कही है। राष्ट्रपति ट्रंप ने यूक्रेन को समर्थन देने के बदले में दो शर्तें पेश की एक तो यह कि यूक्रेन के परमाणु संयंत्र अमेरिका के नियंत्रण में आ जाएं और दूसरे अमेरिका को यूक्रेन की खनिज संपदा के दोहन का अवसर मिले। यूक्रेन को लेकर ट्रम्प की नीति से यह स्पष्ट हो गया की अब अमेरिका के लिए रणनीतिक सुरक्षा समझौते महत्वपूर्ण नहीं रहे है। अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक नई और स्थायी अंतरराष्ट्रीय संरचना बनाने की कोशिश की थी। इसमें संयुक्त राष्ट्र,विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौता और कई सुरक्षा समझौते और गठबंधन शामिल थे जिनमें सबसे खास नाटो था।  ट्रम्प नाटो की उपयोगिता और यूक्रेन के भू-राजनैतिक महत्व को नकार सकते है तो वे अमेरिका की एशिया प्रशांत नीति और क्वाड से भी पीछे हट सकते है।

भारत के हितों का ध्यान रखते हुए पाकिस्तान को लेकर कोई कड़े कदम उठाएं,इसकी संभावना बेहद कम है। सामरिक महत्वाकांक्षाएं अक्सर रणनीतिक होती है जबकि आर्थिक और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में यथार्थवाद हावी होता है। ट्रम्प की नीतियों से साफ है की भारत और अमेरिका के आर्थिक सम्बन्ध तो गतिशील हो सकते है लेकिन रक्षा रणनीति को लेकर इस देश पर भरोसा नहीं किया जा सकता। रक्षा मामलों को लेकर अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता किसी निर्णायक युद्द में भारी पड़ सकती है। भारत अपनी भू-रणनीतिक स्थिति के कारण किसी एक महाशक्ति के साथ पूर्ण सहयोग पर चलने की नीति को नहीं अपना सकता। भारत को रूस,अमेरिका और यूरोपियन देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्धों की समान जरूरत है। इस्लामिक देशों के साथ भारत के मजबूत रिश्तें बने है,वहीं इजराइल राइल के सेंसर,हेरोन ड्रोन,हाथ में पकड़कर चलाए जा सकते वाले थर्मल इमेजिंग के उपकरणों और रात में देखने में मदद करने वाले औज़ारों ने भारत को नियंत्रण रेखा के उस पार से घुसपैठ रोकने और कश्मीर घाटी में आतंकवाद के ख़िलाफ़ अभियानों में काफ़ी मदद दी है। भारत,इज़राइल से जो हथियार ख़रीदता है,उनमें मानवरहित विमान,मिसाइलें और रडार सिस्टम का दबदबा है। पाकिस्तान से युद्द की स्थिति में रूस और इजराइल का सामरिक समर्थन,इस्लामिक देशों की तटस्थता और यूरोप का आतंकवाद के खिलाफ समर्थन भारत के लिए उम्मीदें बढ़ा सकता है,वहीं अमेरिका को लेकर भारत को अपनी भविष्य की नीति पर नए तरीके से विचार करने की जरूरत है। अंततः अविश्वसनीय सहयोगियों के सहारे युद्द के मैदान में होना आत्मघाती हो सकता है और अमेरिका भारत के लिए ऐसा ही अविश्वसनीय रणनीतिक साझेदार की भूमिका में दिखाई पड़ रहा है।

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