लोकदेश
भारतीय सभ्यता और संस्कृति में वन तप,त्याग,ध्यान,साधना और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। भारत के धार्मिक ग्रंथों में वन का अत्यधिक महत्व है। रामायण में भगवान श्री राम का वनवास एक महत्वपूर्ण घटना है जो हमें जीवन के सिद्धांतों,आदर्शों,मूल्यों,समर्पण,त्याग और धर्म की महत्ता को सिखाती है। इसी तरह वेदों और उपनिषदों में भी वनों और उनके वातावरण को महत्वपूर्ण माना गया है। घने जंगलों से गुजरते हुए आदिवासी एक दूसरे से राम राम कहकर अभिवादन करते है। राम का संस्कृत में अर्थ होता है आनंद देने वाला या सुख देने वाला होता है। अर्थात् आदिवासी राम राम कहकर एक दूसरे की खुशहाली की कामना करते है।
श्री राम का वनवास पंचवटी और दंडकारण्य के विभिन्न जंगलों में बीता जो उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की विभिन्न जगहों पर स्थित हैं। दंडकारण्य क्षेत्र पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियों और पूर्व में पूर्वी घाटों से लेकर छत्तीसगढ़,उड़ीसा और आंध्र प्रदेश राज्यों में 92 हजार वर्ग किलोमीटर के उतार-चढ़ाव वाले पठार तक फैला हुआ है। दंडकारण्य एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है, जो रामायण से जुड़ा हुआ है। यह प्राचीन काल में एक घना और विशाल वन क्षेत्र था। दंडकारण्य का उल्लेख रामायण में कई बार किया गया है, और यही वह स्थान है जहां भगवान श्री राम ने 14 वर्षों के वनवास के दौरान महत्वपूर्ण समय बिताया था। दंडकारण्य के जंगलों में निवास करने वाले आदिवासी लोगों ने राम के साथ समय बिताया और उनका आदर्श जीवन देखा, जिससे वे श्री राम के प्रति श्रद्धा और सम्मान उत्पन्न हुआ। दंडकारण्य में रहने वाली गोंड और कोंकणी जनजातियां राम की पूजा करते हैं और उनके प्रति विशेष श्रद्धा रखते हैं।
राम का वनवास और उनके साथ उनके परिवार का जीवन,आदिवासी समुदाय के संघर्षपूर्ण जीवन से मेल खाता है। वनवास के दौरान भगवान राम ने जंगली जीवन को अपनाया और वन में निवास किया,जो आदिवासियों के जीवन का हिस्सा है। आदिवासी लोग राम के जीवन से प्रेरणा लेते हैं,विशेष रूप से उनके त्याग,सत्यनिष्ठा और कर्तव्य के प्रति निष्ठा से। राम के द्वारा राक्षसों का वध करने और धर्म की रक्षा करने के कारण,उन्होंने राम को एक वीर और न्यायप्रिय देवता के रूप में पूजा। आदिवासी समुदाय के लिए राक्षसों के वध की कथाएं भी महत्वपूर्ण हैं,क्योंकि इन कथाओं में बुराई के खिलाफ अच्छाई की जीत की बात होती है। आदिवासी लोग अपनी स्थानीय परंपराओं में राक्षसों और बुराई से मुकाबला करने के विचार को महत्वपूर्ण मानते हैं। राम के राक्षसों से युद्ध और उनके द्वारा धर्म की रक्षा करना इस दृष्टि से बहुत प्रेरणादायक था।
आदिवासी समुदायों के बीच रामायण की अनेक लोककथाएं प्रचलित हैं,जिनमें भगवान राम के जीवन के विभिन्न पहलुओं और उनके संघर्षों का वर्णन किया जाता है। इन कथाओं के माध्यम से राम के आदर्शों का प्रचार होता है और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। कुछ आदिवासी क्षेत्रों में राम के मंदिर भी बने हैं,जहां लोग पूजा करते हैं और अपने जीवन में राम के आदर्शों को अपनाने का प्रयास करते हैं। दंडकारण्य में रहने वाले आदिवासी राम की पूजा करते हैं क्योंकि उन्होंने भगवान श्री राम को एक आदर्श और मार्गदर्शक के रूप में देखा। राम का जीवन उनके लिए सत्य, धर्म, साहस और संघर्ष का प्रतीक है, और राम की पूजा करना उनके जीवन में एक नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत बन गया है। इस प्रकार आदिवासी समाज ने श्री राम को न केवल एक देवता के रूप में पूजा, बल्कि उन्हें अपने जीवन के आदर्श के रूप में स्वीकार किया। यह पूजा भगवान राम के उन गुणों का सम्मान है,जो जीवन के कठिन संघर्षों में भी धर्म और सत्य का पालन करते हुए विजय प्राप्त करने के संदेश को व्यक्त करते हैं।
दंडकारण्य क्षेत्र में भगवान श्री राम से जुड़े कई प्रसिद्ध मंदिर हैं जो उनके जीवन की घटनाओं और आदर्शों को श्रद्धा से जोड़ते हैं। इन मंदिरों का महत्व न केवल धार्मिक है बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये राम के वनवास और उनके संघर्षों को याद करने के स्थान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है। वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।
दंडकारण्य क्षेत्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था। दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया। उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है।
नासिक क्षेत्र में सीता सरोवर,राम कुंड,त्र्यम्बकेश्वर बेहद खास है। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है। बेलकट्टा के राम मंदिर छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव में स्थित है जो दंडकारण्य के भीतर आता है। यह मंदिर उस स्थान से जुड़ा हुआ है जहां भगवान राम ने अपनी जीवन यात्रा के दौरान राक्षसों का नाश किया और आदिवासी लोगों से संपर्क किया। यहाँ के लोग भगवान राम को उनके आदर्शों और न्यायप्रियता के कारण पूजा करते हैं। यह स्थान भी विशेष रूप से राम नवमी के दौरान भक्तों से भरा रहता है। जबलपुर के त्रिपुरी मंदिर दंडकारण्य क्षेत्र के निकट है और इसे राम के वनवास से जुड़े स्थानों में गिना जाता है। यहाँ पर श्रद्धालु विशेष रूप से राम की पूजा करते हैं, और इसे राम त्रिपुरी मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में राम-सीता की पूजा की जाती है और यह क्षेत्र ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
दंडकारण्य क्षेत्र में राम के जीवन और उनके वनवास से जुड़ी घटनाएं आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा बनी हुई हैं। आदिवासी समुदाय ने रामायण के माध्यम से भगवान राम के जीवन और उनके आदर्शों को बहुत नजदीक से जाना और उन्हें आदर्श राजा,आदर्श पति,आदर्श पुत्र और धर्म के पालनकर्ता के रूप में स्वीकार लिया है। उनके इन गुणों का आदिवासी समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। श्री राम के वनवास और संघर्षों को आदिवासी समुदाय ने अपने संघर्षों और जीवन के अनुभवों से जुड़ा महसूस करते है। आदिवासी लोग श्री राम को अपने जीवन में आदर्श मानते हैं और उन्हें एक मार्गदर्शक के रूप में पूजते हैं। यहीं कारण है की घने जंगलों से गुजरते हुए आदिवासी एक दूसरे से राम राम कहकर अभिवादन करते है। राम का संस्कृत में अर्थ होता है आनंद देने वाला या सुख देने वाला होता है। अर्थात् आदिवासी राम राम कहकर एक दूसरे की खुशहाली की कामना करते है।
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