राष्ट्रीय सहारा
अमेरिका की विदेश नीति राष्ट्रीय हित और अव्यवहारिक आदर्शवाद का विचित्र मिश्रण है,वहीं चीन माओं की साम्यवादी और विस्तारवादी आकांक्षाओं से बुरी तरह अभिशिप्त है। अमेरिका और चीन में वैचारिक और नीतिगत इतनी असमानताएं है की इन दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य रखना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता। इन दोनों देशों का वैश्विक स्तर पर इतना गहरा प्रभाव है कि उसे रूस यूक्रेन युद्द से लेकर फिलीस्तीन और इजराइल संघर्ष में भी देखा जा सकता है।
चीनी विदेश नीति का यह गहरा विश्वास है कि चीन विश्व की महाशक्ति है और उसे यह भूमिका निभानी ही है,वहीं राष्ट्रपति बाइडन यह साफ कर चूके है कि अमेरिका दुनिया के किसी भी देश की तुलना में आज चीन के सामने सबसे मज़बूती से खड़ा हैं,वहीं जहां अमेरिकी हितों और दुनिया के लिए फ़ायदे की बात होगी,वहां अमेरिका चीन के साथ काम करने को लेकर प्रतिबद्ध है।
दरअसल सैन फ्रांसिस्कों में एशिया-पैसिफ़िक इकोनॉमिक को-ऑपरेशन के मंच पर बाइडन और शी जिनपिंग की बहु प्रतीक्षित मुलाकात तो हुई लेकिन इसके बाद दोनों देशों के आपसी संबंधों में संभावनाओं से कहीं ज्यादा आशंकाएं गहरा गई। बैठक के बाद बाइडन ने जिनपिंग को तानाशाह कहकर अपने इरादें जाहिर कर दिए की वे चीन का विरोध करते रहेंगे। यह भी दिलचस्प है कि एशिया-पैसिफ़िक क्षेत्र को लेकर करीब एक दशक पहले बराक ओबामा ने जिस नीति पर काम करना शुरू किया था,राष्ट्रपति बाइडन उसी पर आगे बढना चाहते है। इस क्षेत्र में चीन की चुनौतियां बढती जा रही है और उसे संतुलित करना अमेरिकी हितों की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है। इसमें शी जिनपिंग की भूमिका आक्रामक रही है और अमेरिका के लिए यह बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। बाइडन ने अपनी राजनीतिक जीवन का बड़ा हिस्सा एशिया में गुजारा है और वे चीनी नीतियों से भलीभांति वाकिफ है।
एपेक के माध्यम से अमेरिका एक स्वतंत्र,निष्पक्ष और खुली आर्थिक नीति के एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहता है जिससे अमेरिका को व्यापक आर्थिक लाभ मिल सके। यह एक ऐसा आर्थिक समूह है जिसमें वैश्विक आबादी का लगभग 40 फीसदी तथा लगभग 3 बिलियन लोगों और वैश्विक व्यापार का लगभग 50 फीसदी हिस्सा शामिल है। एपेक के सदस्य देशों से अमेरिका के गहरें आर्थिक हित है और यह अमेरिकी माल निर्यात का बड़ा केंद्र भी है। इन सदस्य देशों में अमेरिका और चीन के साथ कुछ ऐसे देश भी है जिनसे चीन का विवाद है और अमेरिका चीन को दबाने के लिए उन्हें प्रश्रय देता रहा है। ऑस्ट्रेलिया,फिलीपींस,इंडोनेशिया,मलेशिया,वियतनाम,सिंगापुर,जापान,दक्षिण कोरिया,कनाडा,ताइवान और हांगकांग से चीन के रिश्ते सामान्य नहीं है और अमेरिकी के यह देश आर्थिक और सामरिक सहयोगी माने जाते है। एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग की स्थापना 1989 में सदस्य देशों या अर्थव्यवस्थाओं के बीच सतत विकास और बेहतर आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए एक क्षेत्रीय आर्थिक मंच के रूप में की गई थी। इसका लक्ष्य वस्तुओं,सेवाओं,पूंजी और प्रौद्योगिकी के प्रवाह को प्रोत्साहित करके सदस्यों के बीच आर्थिक और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देना,एक उदारीकृत व्यापार और निवेश व्यवस्था विकसित करना,निजी निवेश को प्रोत्साहित करना और खुले क्षेत्रवाद का समर्थन करना है। हालांकि चीन आर्थिक और सामरिक हितों के लिए एपेक के देशों के लिए सामरिक समस्याओं को लगातार बढ़ा रहा है। इन सबके बीच अमेरिका की चिंता लेटिन अमेरिका में चीन की बढ़ती भागीदारी भी है।
करीब डेढ़ दशक से चीन की लैटिन अमेरिका और अफ़्रीकी देशों में सहायता कूटनीति ने अमेरिकी हितों को गहरी चुनौती पेश की है,यहीं कारण है कि चीन को एशिया तक सीमित रखने के लिए बराक ओबामा ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी साझेदारियों को बढ़ाने की नीति पर काम करना शुरू किया था। अमरीकी लड़ाकू विमान और सैन्य बलों की उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में तैनाती के साथ ओबामा ने यह साफ कर दिया था कि 21वीं सदी में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के भविष्य में अमरीका अहम भूमिका निभाएगा। अमेरिकी प्रशासन ने एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिकी हितों को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय रणनीति को आगे बढ़ाया जिसमें द्विपक्षीय सुरक्षा गठबंधनों को मजबूत करने,व्यापक आधार वाली सैन्य उपस्थिति बनाने और लोकतंत्र और मानवाधिकारों को प्रश्रय देना शामिल था। अमेरिका ने वियतनाम,ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस के साथ सैन्य संबंध बढ़ाएं,लाओस को सहायता दी तथा दक्षिण कोरिया और जापान के साथ रिश्तों को मजबूत किया गया।
हिन्द प्रशांत क्षेत्र के कई देश भी चीन के अवैधानिक दावों से परेशान है। यह व्यापारिक आवागमन का प्रमुख क्षेत्र है तथा इस मार्ग के बन्दरगाह सर्वाधिक व्यस्त बन्दरगाहों में शामिल है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र से लगे 38 देशों में दुनिया की करीब 65 फीसदी आबादी रहती है। इसमें से अधिकांश देश चीन की विस्तारवादी नीति और अवैधानिक दावों से परेशान है। चीन जापान विवाद के बीच अमेरिका जापान को खुला और मुखर समर्थन दे रहा है। जापान और अमेरिका के बीच साल 2004 में प्रक्षेपात्र रक्षा प्रणाली के संबंध में समझौता भी हुआ था। जापान की नई रक्षा नीति में दक्षिणी द्वीपों को प्राथमिकता देते हुए वहां सैनिकों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी की गई है,यह दक्षिणी द्वीप चीन के निकट है। कोरियाई प्रायद्वीप में चीन और उत्तर कोरिया को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका सैन्य कार्रवाई के लिए तैयार है। दक्षिण कोरिया में अठ्ठाइस हजार से ज्यादा अमरीकी सैनिक और युद्धपोत नियमित रूप से वहां तैनात रहते हैं।
बाइडेन ने जिनपिंग के साथ अपनी मुलाकात में शिनजियांग,तिब्बत और हांगकांग सहित चीन के मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता जताई। बाइडन जिनपिंग से यह भी चाहते है की वह उत्तर कोरिया,ईरान और रूस जैसे अधिनायकवादी देशों को संतुलित रखने में अमेरिका की मदद करें। यहां यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि नैतिकता के सिद्धांत में न तो जिनपिंग का भरोसा है और न ही बाइडन अमेरिका के व्यापक हितों को दरकिनार कर सकते है। ऐसे में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय फायदों को लेकर समझौते तो हो सकते है लेकिन इससे वैश्विक शांति की उम्मीद नहीं की जा सकती है। चीन की हिन्द महासागर में असामान्य गतिविधियों को लेकर ओबामा ने करीब एक दशक पहले कहा था कि अब एशिया से ही यह तय होगा कि दुनिया संघर्ष से आगे बढ़ेगी या सहयोग से। चीन की साम्यवादी नीति की अविश्वसनीयता एशिया का संकट बढ़ा रही है वहीं बाइडन भी इस समस्या को सुलझाने में निर्णायक स्थिति में नजर नहीं आ रहे है।
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