डॉ.आम्बेडकर से जब यह पूछा गया की क्या भारत में लोकतंत्र सफल होगा,तो उनका जवाब था की यह नाम मात्र का होगा। #डॉ.आंबेडकर ने देश के पहले आम चुनावों के बाद ही यह सवाल उठा दिया था कि क्या आपने लोगों को मनपसन्द उम्मीदवार चुनने की आज़ादी दी है। राजनीतिक पार्टी के उम्मीदवार पर क्या जनता सोच पाती है? फिर भले ही वह गधा ही क्यों न हो। ये सिस्टम असमानता पर आधारित है। साथ ही डॉ.आंबेडकर ने यह दावा भी किया था कि वर्तमान व्यवस्था ढह जाएगी।
दरअसल #लोकतंत्र में स्वतंत्रता और समानता दोनों की व्यवस्था सुनिश्चित करना ज़रुरी है। भारत के लोकतंत्र के कथित पहरुओं पर एक सख्त टिप्पणी लखनऊ खंडपीठ ने की। इस साल जुलाई में बसपा सांसद #अतुल राय की ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने कहा था कि यह संसद की सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि अपराधिक छवि वाले लोगों को राजनीति में आने से रोके और लोकतंत्र बचाएं। चूंकि संसद और निर्वाचन आयोग ज़रूरी क़दम नहीं उठा रहे हैं,इसलिए देश का लोकतंत्र अपराधियों,ठगों और क़ानून तोड़ने वालों के हाथों में जा रहा है। अदालत ने हर चुनाव के बाद जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में अकूत इजाफा होने पर चिंता जताते हुए कहा कि पहले बाहुबली और अपराधी चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को समर्थन देते थे लेकिन अब तो वे स्वयं राजनीति में आते हैं और पार्टियां उनको बेझिझक टिकट भी देती हैं। अदालत ने कहा कि यह तो और भी आश्चर्यजनक है कि जनता ऐसे लोगों को चुन भी लेती है। यहां पर डॉ.आंबेडकर की इस आशंका की पुष्टि होती है कि लोगों को उम्मीदवार चुनने की आज़ादी नहीं है और वह बिना सोचे किसी पर भी मुहर लगा देती है। डॉ.आंबेडकर और अदालत की चिंता की पुष्टि यह आंकड़े करते है। 2004 की लोकसभा में चुने गए 24फीसदी,2009 में 30 फीसदी,2014 में 34 फीसदी तथा 2019 की लोकसभा में 43 फीसदी सदस्य आपराधिक छवि वाले हैं।
संसद का प्रमुख कार्य होता है,कानून बनाना। लेकिन आंकड़ों से यह साफ होता है कि इस समय कानून बनाने वाले सबसे बड़े सदन में लगभग आधे से थोड़े ही कम लोग अपराधिक छवि के है। डॉ आम्बेडकर लोकतंत्र के विरोधी नहीं थे लेकिन उनका अंदेशा यह था कि लोकतंत्र चलाने वालों में सामन्तवाद हावी नहीं हो जाये। दरअसल सामन्तवाद के साये से ही भारत का लोकतंत्र अभिशिप्त हो रहा है। लोकतंत्र को मजबूत करने की अपेक्षा सांसदों से इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि सबसे ज्यादा असमानता को बढ़ावा देने वाले ये जनप्रतिनिधि ही है। इस समय आम आदमी के मुकाबले 1400 गुना रुपया आपके सांसद की जेब में है। डाटा इंटेलिजेंस यूनिट की एक खास रपट के मुताबिक 2019 में चुने गए सांसदों की औसत आय आम जनता की औसत आय से करीब 1400 गुना ज़्यादा है। याने हर वो रुपया जो आपकी जेब में है,उसके लिए आपके सांसद की जेब में 1400 रुपए हैं। 13 राज्य थे जहां सांसदों की संपत्ति राज्य की प्रति व्यक्ति आय से 100-1000 गुना के बीच थी। 15 राज्य ऐसे थे जहां नेताओं की आय राज्य की प्रति व्यक्ति आय से 1000 गुना से भी ज़्यादा थी। यह भी बेहद दिलचस्प है कि भारत के सबसे बड़े अमीर किसे और कितना चंदा देते है,पता नहीं चलता तथा इसमें पारदर्शिता की कमी समस्या को बढ़ा रही है।
चंदा लेने से जुड़े नियमों के तहत राजनीतिक दलों को 20 हजार से ज़्यादा चंदा देने वाले दानकर्ताओं के नाम सार्वजनिक करना होता है। सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट नाम की एक कंपनी ने बीजेपी को अकेले 251 करोड़ रुपये चंदे के तौर पर दिए। ये बीजेपी को मिलने वाले कुल चंदे का 47 फीसदी है। इसी कंपनी ने 14 करोड़ रुपये कांग्रेस को भी दिए हैं। सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट का नाम शायद पहले नहीं सुना होगा। ये एक कंपनी है जो कॉरपोरेट दुनिया से पैसा लेकर राजनीतिक दलों को चंदा देती है। यदि राजनीतिक तौर पर जनकल्याण की बात कहीं जाएँ तो प्रत्येक राजनीतिक दल में धनबल को उच्च स्थान पर रखा जाता है। नई लोकसभा में कुल 475 सांसद करोड़पति हैं। 17वीं लोकसभा के 542 सांसदों में से 475 सदस्य करोड़पति हैं।
सत्तारूढ़ #भाजपा के 88 फीसदी सांसद और देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के 96 फीसदी सांसद करोड़पति है। इस बार #लोकसभा में 266 सदस्य ऐसे हैं जिनकी संपत्ति पांच करोड़ या उससे अधिक है। #बीजेपी के 303 सांसदों में 88 फीसदी करोड़पति हैं। वहीं #शिवसेना के सभी 18 सांसदों ने अपनी संपत्ति एक करोड़ रुपए से अधिक बताई है। कांग्रेस के जिन 51 सांसदों के हलफनामों दायर किए है। उनमें से 96 फीसदी सांसद करोड़पति हैं। इसी तरह डीएमके के 23 में से 96 फीसदी,#तृणमूल कांग्रेस के 91 फीसदी और #वाईएसआर कांग्रेस के 86 फीसदी की संपत्ति एक करोड़ से अधिक है।
अपराध और सम्पत्ति के गठजोड़ से बन रहा राजनीतिक रसूख को रोकने के लिए चुनाव आयोग से जनता आशा कर सकती है। चुनाव आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 2018 में कई याचिकाएं दायर की गईं थी। सुप्रीम कोर्ट ने इन सब याचिकाओं को क्लब करते हुए इसे पांच जजों की संविधान पीठ को रेफ़र कर दिया था। सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने सरकार से कई गंभीर सवाल किए। अदालत ने यहां तक कह दिया कि हर सरकार अपनी हां में हां मिलाने वाले व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त नियुक्त करती है। अदालत ने यह भी कह दिया कि देश को टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की ज़रूरत है।
गौरतलब है कि तिरुनेल्लई नारायण अय्यर #शेषन 1990 से 1996 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे थे। इस दौरान उन्होंने बिहार की चुनावी गुंडागर्दी और राजनेताओं की मनमानी पर लगाम लगाकर इतिहास रच दिया था। टीएन शेषन ने चुनाव खर्च की सीमा और उम्मीदवारों को जांच के लिए अपने खर्चों का पूरा लेखा-जोखा देने का प्रावधान लागू किया। उन्होंने राजनेताओं द्वारा सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग पर सख्त पहरा लगा दिया। इन्हीं के कार्यकाल में लोगों ने भलीभांति जाना कि आचार संहिता को कितना प्रभावी बनाया जा सकता है। शेषन के जमाने में ही मतदाता परिचय पत्र बने और बोगस वोटिंग पर एक तरह से विराम लगा। शेषन ने बेहतर और पारदर्शी चुनाव के लिए बूथों पर केन्द्रीय बलों की नियुक्ति,चुनाव में खर्च की सीमा,चुनाव के समय शराब की बिक्री पर प्रतिबन्ध और लायसेंसी हथियार जमा करने की कानून योजना को अमली जमा पहनाया।
डॉ.आंबेडकर कानून का शासन कायम हो इसलिए बेहतर प्रतिनिधित्व की बात कहते थे। वहीं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि नेता कानून तोड़ने वाले हैं,तो नागरिक जवाबदेह और पारदर्शी शासन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और ऐसे में कानून के शासन से चलने वाला समाज दूर की कौड़ी है। जाहिर है देश को लोक कल्याणकारी लोकतंत्र के संचालन के लिए #टी.एन.शेषन की जरूरत है लेकिन अफ़सोस अब न तो डॉ.आंबेडकर है और न ही टी.एन. शेषन।
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