सुबह सवेरे
कहते है की मरते वक्त कोई झूठ नहीं बोलता। भारत में कानून भी इसे स्वीकार करता है और मजिस्ट्रेट के सामने पीड़ित की गवाही को पत्थर की लकीर माना जाता है। 2020 के हाथरस की दलित युवती के कथित हत्या और बलात्कार के मामले में हाथरस की अदालत ने एक अभियुक्त को दोषी पाया है और तीन अन्य को बरी कर दिया है। अदालत के फ़ैसले की सबसे ख़ास बात यह है कि अदालत ने किसी को भी लड़की की हत्या और बलात्कार का दोषी नहीं पाया। अभियुक्त संदीप को ग़ैर-इरादतन हत्या और एससीएसटी एक्ट की धाराओं के तहत दोषी पाया गया और उन्हें उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई।
यह भी दिलचस्प है कि हाथरस की पीड़ित लड़की ने मरने से ठीक पहले मजिस्ट्रेट के सामने बयान भी दिए थे और अभियुक्तों का नाम भी बताया था। कोर्ट ने जो कहा,वह भी गौर करने वाली बात है। बकौलहाथरस के विशेष न्यायाधीश त्रिलोकपाल सिंह ने अपने फ़ैसले में लिखा है कि इस प्रकरण में पीड़िता घटना के आठ दिन बाद तक बातचीत करती रही हैं और बोलती रही हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त का आशय निश्चित रूप से पीड़िता का हत्या करने का रहा था। इसलिए अभियुक्त संदीप का अपराध ग़ैर-इरादतन हत्या की श्रेणी में आता है ना ही हत्या की श्रेणी में आता है।
बलात्कार के आरोप से भी सभी को बरी कर देने पर जज ने कहा,उस संबंध में मेरा विचार है कि साक्ष्य की उपरोक्त विवेचना में पीड़िता के साथ बलात्कार होना साबित नहीं हुआ है तथा अभियुक्तगण रवि,रामू व लवकुश के द्वारा पीड़िता के साथ कथित रेप भी नहीं पाया गया है। इसलिए सभी आरोपी बलात्कार के आरोप से दोषमुक्त किए जाने योग्य हैं। अदालत के अनुसार अभियुक्त संदीप सिसौदिया के ख़िलाफ़ ग़ैर-इरादतन हत्या और एससीएसटी एक्ट की धाराओं के तहत संदेह से परे सबूत पाए गए हैं और इसीलिए उन्हें उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई है।
अदालत के फैसलें सबूतों पर होते है,हाथरस में लड़की की चिता को पुलिस ने आधी रात को बिना परिवार की सहमति के जला दिया था। मतलब पीड़िता को न्याय मिलने की संभावना आधी रात को अंत्येष्टि के साथ समाप्त हो गई थी। उसका मरने के ठीक पहले मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया बयान न्याय की उम्मीद जगा रहा था। सीबीआई की जांच में भी चारो आरोपी दोषी पायें गए थे। लड़की का परिवार सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक दबाव के बाद भी मृत बेटी को न्याय दिलाना चाहता है,हालांकि उनका संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है।
राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिद्वंदिता में फेक न्यूज के जरिए अफवाह फैलाकर भाषाई और क्षेत्रीय विवाद पैदा करना देश की एकता और अखंडता के लिए बड़ा खतरा हो सकता है। बिहार के एक नेता ने ऐसा किया और इससे बिहार और तमिलनाडू में अफरा तफरी का माहौल उत्पन्न हो गया। संसद में व्यापक बहस हुई। तमिलनाडु के उद्योगों में उत्तर भारतीय प्रवासी कामगार बड़ी संख्या में काम करते है। उत्तर की राजनीति धर्म कर्म पर केंद्रित ज्यादा रहती है और इसीलिए रोजगार की तलाश लोगों को दक्षिण की और ले जाती है। प्रवासी मज़दूर न केवल फ़ैक्ट्री बल्कि तमिलनाडु के तटीय इलाक़ों में मछली उद्योग में भी बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं। प्रवासी मज़दूरों में बड़ी संख्या आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों की है। ये लोग ओडिशा,बिहार,झारखंड,पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से तमिलनाडु आते हैं। तिरुपुर के वस्त्र उद्योग में मौजूदा समय में तीन लाख प्रवासी मज़दूर काम कर रहे हैं। तमिलनाडु का पश्चिमी हिस्सा यानी कोयंबटूर और तिरुपुर के आस-पास का इलाक़ा उद्योगों के लिए मशहूर है। पिछले कुछ सालों में इन इलाकों में प्रवासी मज़दूरों की संख्या में काफ़ी बढ़ी है।
बिहार के एक नेता ने यह दावा किया की बिहारी मजदूरों पर तमिलनाडू में व्यापक हमलें किये गये है। पुलिस जांच के दौरान नेता की पोस्ट की गई जानकारियां भ्रामक पाई गई। नेता पर एफआईआर दर्ज हुई लेकिन तमिलनाडु पुलिस की आपत्ति के बाद भी आरोपी को जमानत मिल गई ।
तमिलनाडू पुलिस ने दोनों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के प्राथमिकी दर्ज की है। उसमें दंगा भड़काने के इरादे से जानबूझकर उकसाना,शांति भंग करने के लिए जानबूझकर अपमान और सार्वजनिक शरारत करने वाले बयान के तहत गलत जानकारी फैलाने का मामला दर्ज किया है। तमिलनाडु पुलिस ने आरोपी पर क्षेत्र और भाषा के आधार पर लोगों के बीच वैमनस्यता फैलाने का आरोप लगाया है।
भारत जैसे संघात्मक देश में उसकी विविधता को निशाना बनाने की कोशिशें अलगाववाद को किस हद तक बढ़ावा दे सकती है,यह किसी से छुपा नहीं है। महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों को हिंसक निशाना बनाने वाली ताकतें,राजनीतिक संरक्षण से फलीभूत हुई है। वैसे भी दक्षिण के भाषाई और क्षेत्रीय आंदोलन ने भारत की एकता को प्रभावित तो किया ही है। अब प्रवासी मजदूरों के जरिए भ्रामक खबरों से उत्तर दक्षिण का विवाद कितना गहरा सकता था,यह अंदाजा लगाया जा सकता है। इसकी हिंसक प्रतिक्रिया उत्तर और दक्षिण,दोनों ही जगह देखने को मिल सकती थी और कई बेगुनाह मारे जा सकते थे।
हाथरस के मामले पर पीड़िता के भाई के लिए पहेली यह है कि बहन के डाईंग डिक्लरेशन यानि मौत से ठीक पहले दिया गए बयान में सभी का नाम लिया है। वो मजिस्ट्रेट ने लिखा है। तो भी उसे कैसे ठुकरा सकते हैं। वहीं तमिलनाडू की पुलिस,देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचाने वालों को रिमांड पर लेना चाहती थी लेकिन उनको जमानत मिल जाने से वे भी सकते में है।
भारतीय न्याय व्यवस्था यह विश्वास करती है कि गुनहगार के बचने से ज्यादा जरूरी यह है कि किसी निर्दोष को सजा न मिले। इसके लिए भले ही न्याय में देरी हो। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि न्याय की लंबी लड़ाई किसी कठिन परीक्षा से कम नहीं होती। अर्थ,साहस और विश्वास का समन्वय बनाएं रखना आसान नहीं होता। भारत के सामान्य नागरिक के लिए यह रास्ता बहुत कठिन होता है तथा पुलिस राजनीतिक दबाव में काम करने के लिए मजबूर कर दी जाती है।
हाथरस से लेकर तमिलनाडू तक,राजनीतिक प्रभाव और दबाव शासन व्यवस्था पर हावी नजर आता है। इन भारी भरकम परिस्थितियों से सामान्य जन का लड़ना और पुलिस का पारदर्शिता से आगे बढ़ना खड़ा पहाड़ चढ़ने जैसा है। ऐसे में न्याय की उम्मीदें बनाएं रखना,भरी दुपहरी में पक्की सड़क पर नंगे पैर चलने जैसा होता है।
#ब्रह्मदीप अलूने
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