सऊदी अरब में चीन की सेंध
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सऊदी अरब में चीन की सेंध

saudi arab china janstta

यह दुनिया की नई कूटनीतिक प्रतिज्ञाएं है जहां एक दूसरे से व्यापक रणनीतिक और आर्थिक सहयोग तो किया जा सकता है लेकिन वैचारिक स्तर पर यह अपेक्षा की जाती है कि कोई किसी भी देश के आंतरिक मामलों पर हस्तक्षेप न करें।  चीन के राष्ट्रपति का सऊदी अरब में ऐतिहासिक स्वागत हुआ,दोनों देशों के बीच कई समझौते भी हुए और इन सबके बीच चीन ने वन चाइना पॉलिसी पर सऊदी अरब का समर्थन जुटाते हुए यह भी साफ किया की दोनों देश एक दूसरे के आंतरिक मामलें में कोई हस्तक्षेप न करेंगे।

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अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने आर्थिक आज़ादी में राजनीतिक आज़ादी के अवसर बनने का दावा करते हुए एक बार कहा था कि,जब लोगों के पास सिर्फ़ सपने देखने की ही नहीं बल्कि सपनों को पूरा करने की भी आज़ादी होगी,तब वो चाहेंगे कि उनकी बात भी सुनी जाए। क्लिंटन ने चीन की साम्यवादी शासन की कठोरता के शिथिल होने की उम्मीद जताई थी।   लेकिन चीन ने अमेरिका और यूरोप के उदार शासन की मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए राजनीतिक नियंत्रण की व्यवस्था से ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का मुकाम हासिल करने में सफलता अर्जित कर ली है और उसका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना भी तय है।   इन सबके बीच चीनी विचारधारा आर्थिक फायदों की नई विश्व व्यवस्था का ऐसा जाल बुनने में सफल होती दिख रही है जहां मानवीय मूल्यों को रौंदने की आज़ादी होगी और उसका प्रतिरोध करने वाली एजेंसियां या देश चुप रहने पर मजबूर कर दिए जायेंगे।

 

सऊदी अरब इस्लामिक और सुन्नी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने में सबसे आगे है।  चीन वीगर मुसलमानों पर अत्याचारों को लेकर दुनिया के निशानें पर रहा है और मानवाधिकार संगठन खुलकर उसकी आलोचना करते है। वहीं इस्लामिक दुनिया की चीन को लेकर ख़ामोशी बेहद रहस्यमय रही है और अब उसका असर भी सामने आने लगा है। दरअसल 2018 में पत्रकार जमाल ख़ाशोगी की हत्या के मामले में प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अमेरिका के निशाने पर थे,लेकिन चीन और सऊदी अरब जैसे देशों में मानवाधिकार जैसे मुद्दे कभी केंद्र में रहे ही नहीं है। जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या पर अमेरिका की ओर से उठाए गए सवाल सऊदी अरब के शाही परिवार के लिए असहज करने वाले रहे हैं। अपने चुनाव प्रचार के दौरान सऊदी अरब को ख़राब मानवाधिकार रिकॉर्ड के चलते अलग-थलग करने की क़सम खाने वाले जो बाइडन  कुछ महीने पहले सऊदी अरब से संबंधों को ठीक करने आएं तो थे लेकिन सऊदी अरब की अमेरिका से निर्भरता कम करने की छटपटाहट को ख़ाशोगी विवाद ने बढ़ा दिया। सऊदी अरब विकास तो करना चाहता है लेकिन अभिव्यक्ति और अल्पसंख्यकों की आज़ादी का उसका रुख चीन की शासन प्रणाली से मेल खाता है।

 

सऊदी अरब अमेरिका से हथियारों का बड़ा खरीददार रहा है,लेकिन पिछलें कुछ वर्षों में अमेरिका की नीति ने उसे असहज भी किया। यमन में शांति स्थापित करने के लिए बाइडेन प्रशासन का फरवरी 2021 में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए हथियारों की बिक्री को लेकर किए सौदों को अस्थायी रूप से निलंबित करने का फ़ैसला किया जो ईरान की प्रतिद्वंदिता के चलते सऊदी अरब के लिए अप्रत्याशित था। अमेरिकी सरकार के साथ ही वहां की कई एजेंसियां सऊदी अरब पर दबाव डालने का काम करती रही है। अमेरिकी सरकार की एजेंसी यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रीलिजियस फ्रीडम ने धार्मिक आज़ादी का उल्लंघन के लिहाज से सबसे चिंताजनक देशों की ब्लैक लिस्ट में सऊदी अरब का नाम शामिल किया है। सऊदी अरब पर यह आरोप लगाया गया है कि वह इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म के पूजा स्थलों के निर्माण को प्रतिबंधित करता है। सरकार की ओर से विरोध करने वाले धार्मिक नेताओं को भी हिरासत में रखना जारी है। सऊदी अरब में शिया मुसलमानों को शिक्षा,रोजगार और न्यायपालिका में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही सेना और सरकार के उच्च पदों तक भी उनकी पहुंच नहीं है और सरकारी संस्थाएं अभी भी इन इलाकों में शिया समुदाय के धार्मिक आह्वानों पर रोक लगाए हुए हैं। सऊदी अरब में शिया मुसलमानों को शिक्षा,रोजगार और न्यायपालिका में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सऊदी अरब मध्यपूर्व में अमेरिका का अहम सुरक्षा सहयोगी है और इस क्षेत्र में शिया विद्रोही गुटों को रोकने में उसकी भूमिका अहम रही है। सऊदी अरब,संयुक्त राज्य अमेरिका का सबसे बड़ा विदेशी सैन्य बिक्री ग्राहक है तथा सऊदी के तीन प्रमुख सुरक्षा संगठन रक्षा मंत्रालय,नेशनल गार्ड और आंतरिक मंत्रालय अमेरिकी सहायता से ही संचालित होते रहे है।  लेकिन हाल के वर्षों में सऊदी अरब  ने अपने सामरिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए अमेरिका के मूल्य आधारित संबंधों से आगे देखने की जरूरत  को महसूस किया और उसे चीन में संभावनाएं बेहतर दिखी। सऊदी अरब रूस के साथ अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर रहा है और चीन के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ बना रहा है जो अमेरिका के सामरिक प्रतिस्पर्धी हैं।

 

अमेरिका तेल के निर्यातक के रूप में अधिक आत्मनिर्भर होता जा रहा है,इसलिए चीन सऊदी तेल के लिए सबसे बड़ा बाजार बनकर उभरा है। यूरोप में चीन की बढ़ती चुनौती से मुकाबला करने के लिए यूरोप के कई देश और अमेरिका लामबंद हुए है,ऐसे में चीन अपनी उस विचारधारा को शक्ति दे रहा है जिसके अनुसार एशिया की सारी समस्याओं का समाधान उसके पास ही है।

 

चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट की महत्वाकांक्षाओं को साकार रूप देने के लिए कृतसंकल्पित है और वह कई करीब 20 अरब देशों से समझौतें कर चूका है।  इसमें ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रकचर के क्षेत्र में 200 से ज्यादा परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं तथा चीन और अरब देशों के बीच साझा व्यापार नई ऊंचाइयों को छू रहे है। रूस यूक्रेन युद्द के दौरान  तेल की कम सप्लाई से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतें बढ़ रही हैं और इसका असर पश्चिमी देशों पर पड़ रहा है। वहीं सऊदी अरब ने चीन को कच्चे तेल की सबसे अधिक सप्लाई की है। चीन सऊदी अरब को इस बात के लिए भी राज़ी करने की कोशिश कर रहा है कि कुछ व्यापार के लिए भुगतान की मुद्रा डॉलर की बजाय युआन  यानि चीनी करेंसी में हो। इसका अर्थ साफ है कि चीन के इरादे डॉलर प्रभाव को कम करने तथा युआन  को वैश्विक स्तर पर मजबूत करने की और बढ़ रहे है। चीन और अरब देशों की दोस्ती तेल सप्लाई से कहीं आगे जाकर अब हथियार और सैन्य सामानों की ख़रीद तक जा चुकी है। सऊदी अरब और यूएई ने चीन से सैन्य उपकरणों का सौदा किया है जिसमें हथियारबंद ड्रोन तैयार करने का सौदा अहम है। सऊदी अरब ने बाइडेन की तेल का उत्पादन बढ़ाने की अपील को दरकिनार कर रूस के प्रतिनिधित्व वाले ओपेक प्लस के साथ मिलकर प्रतिदिन 20 लाख बैरल तेल का उत्पादन घटाने का फ़ैसला कर पश्चिमी देशों की चिंता ही बढाई है। सऊदी अरब और चीन की बढ़ती नजदीकियां अमेरिका की एशिया केंद्रित नीति  के लिए झटका है। बाइडन मध्य पूर्व में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के प्रभाव को कम करने के साथ ही अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं। इस वर्ष जुलाई में बाइडन ने मध्य पूर्व के कई देशों की यात्रा करके अपने इरादों को जाहिर भी किया था।

 

चीन रेल और सड़क के साथ-साथ बंदरगाह विकास जैसी बुनियादी संरचनात्मक परियोजनाओं पर नियंत्रण के माध्यम से क्षेत्र में मध्यपूर्व में जिस प्रकार आगे बढ़ रहा है उसके बहुआयामी प्रभाव हो सकते है। मध्य-पूर्व के देशों की तेल आधारित अर्थव्यवस्था की चुनौतियां कम नहीं है। यहां आपसी प्रतिद्वंदिता के चलते कई देश गृह युद्द की आग में झुलस रहे है तथा प्राकृतिक गैस पाइपलाइन को बार बार क्षतिग्रस्त करने से इन देशों की आर्थिक समस्याओं में इजाफा ही हुआ है। मध्य-पूर्व एशिया में चीन का रेल और सड़क का जाल पिछड़े हुए इलाकों में विकास की नई  रोशनी दिखा रहा है। करीब 90 वर्ष पहले मध्य पूर्व में प्रभाव स्थापित करने के लिए  ब्रिटेन और फिर अमरीका ने तेल को लेकर  कुछ योजनाएं बनाईं जिनमें तेल की कूटनीति की पर आधारित रणनीति शामिल थी।  दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीका की ये कोशिश रही है कि तेल के भंडारों से उनको लगातार,बिना किसी परेशानी के तेल मिलता रहे और तेल के उत्पादन और उसकी बिक्री बिना किस रुकावट के चलती रहे। अमरीका ने 1950 के दशक से ही कई देशों की अंदरूनी राजनीति में तेल के कारण दख़ल देना शुरू कर दिया और इसके परिणाम यह हुए की जहां मध्य पूर्व में अशांति फैली वहीं अमेरिका को लेकर इन क्षेत्रों में नाराजगी भी बढ़ गई।

 

वैश्वीकरण के युग ने  वैश्विक स्तर पर भू राजनीति को बदल कर दिया।  खाड़ी देशों ने तेल को ताकत बनाकर उसकी आपूर्ति को अपने हितों के आधार पर संचालित किया तो अमरीका,रूस,चीन और यूरोप के बीच प्रतिद्वंदिता भी बढ़ गई। इस समय चीन खाड़ी देशों को यह भरोसा दिला रहा है कि उनके पास यदि तेल खत्म भी हो गया तो चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के बूते उनके विकास की नई राह खुलेगी। चीन की यह नीति खाड़ी देशों को इसलिए भी लुभा रही है क्योंकि यह आने वाली सदी की संभावनाओं  की योजना है।

 

सऊदी अरब कच्चा तेल मुक्त विज़न 2030 पर तेजी से काम कर रहा है। क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान चाहते हैं कि सऊदी अरब को हरित देश बनाया जाए। दुनिया के यह सबसे  बड़ा तेल उत्पादक देश इस बात से चिंतित रहा है कि तेल के बाद उसके देश के पास कमाई का क्या साधन होगा। तेल की कीमतों में बड़ी गिरावट ने कुछ वर्ष पहले ही सऊदी अरब की कमाई आधी कर दी थी। अब सऊदी अरब व्यापार और पर्यटक केंद्र के रूप में खुद को उभारने की व्यापक योजना पर काम कर रहा है जहां उसके बड़े भागीदार भारत और चीन जैसे देश है। जाहिर है खाड़ी के देशों का तेल से अलग होकर सोचना अमेरिका,ब्रिटेन और यूरोप के लिए सुविधाओं और सम्पन्नता के द्वार बंद होने जैसा है वहीं चीन का उभार मानवीय मूल्यों की कब्रगाह पर ऊंची अट्टालिकाएं खड़ा करने जैसा होगा।

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