संविधान सुरक्षित हैं क्योंकि न्यायपालिका स्वतंत्र है
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संविधान सुरक्षित हैं क्योंकि न्यायपालिका स्वतंत्र है

सुबह सबेरे                                                      

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने तीन वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की  मौजूदगी में अपना दर्द साझा करते हुए कहा था की कई गरीब और आदिवासी नागरिक,अदालत से जमानत मिल जाने के बावजूद केवल इसलिए जेल में रहते हैं क्योंकि वे जमानत राशि भरने में सक्षम नहीं हैं। महामहिम इस तथ्य से वाकिफ ही होंगी की न्याय किसी भी समाज, राष्ट्र और सभ्यता की नींव होता है। यह केवल अदालतों का कार्य नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था का मूल सिद्धांत है। हालांकि महामहिम ने भारत की न्याय व्यवस्था की एक गंभीर और चिरकालिक समस्या को उजागर भी किया था। अपने वक्तव्य के जरिए देश की प्रथम नागरिक ने न्यायपालिका से गरीब आदिवासियों के लिए कुछ करने का आग्रह किया था। महामहिम की साफगोई के अच्छे परिणाम हुए। न्यायालय ने संज्ञान लिया और इस वर्ष अक्टूबर में एक फैसला आया।

सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि अगर कोई गरीब व्यक्ति जमानत के लिए आर्थिक गारंटी देने में असमर्थ है,तो सरकार जिला विधिक सेवा प्राधिकरण के जरिए इसे मुहैया करेगी। इस तरह से उसकी रिहाई सुनिश्चित की जाएगी। कोर्ट ने कहा कि जमानत मिलने के बावजूद केवल पैसों की कमी के कारण किसी व्यक्ति को जेल में नहीं रखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला देश के उन हजारों गरीब कैदियों के लिए बड़ी राहत लेकर आया है जो मामूली आरोपों में जेल में बंद हैं। लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जमानत नहीं पा सके हैं। इस आदेश के बाद यह उम्मीद बढ़ गई की गरीबी किसी व्यक्ति के लिए न्याय से वंचित होने का कारण भविष्य में न बनेगी।

दरअसल न्यायपालिका देश में नागरिकों के अधिकारों की सबसे बड़ी संरक्षक है। भारत में यह भूमिका और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारा संविधान सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है और इन अधिकारों की रक्षा का अंतिम दायित्व न्यायपालिका के पास है। न्यायपालिका के पास न्यायिक समीक्षा है,जिससे वह किसी भी कानून या सरकारी निर्णय को रद्द कर सकती है यदि वह संविधान-विरोधी या अधिकारों के विरुद्ध हो। यह शक्ति नागरिकों को मनमानी से बचाती है और सरकार को संविधान के भीतर काम करने के लिए बाध्य करती है।

2005 में सलवा जुडूम छत्तीसगढ़ में उग्रवाद विरोधी एक जनआंदोलन के रूप में शुरू हुआ था। छत्तीसगढ़ सरकार की सहायता से शुरू किए गए इस आंदोलन का उद्देश्य नक्सलियों के खिलाफ ग्रामीणों को संगठित करना और सुरक्षा बलों को सहायता प्रदान करना था। इस आंदोलन के तहत बड़ी संख्या में ग्रामीण युवाओं को स्पेशल पुलिस ऑफिसर के रूप में भर्ती किया गया और उन्हें हथियार चलाने तथा नक्सल-विरोधी ऑपरेशन में शामिल होने का प्रशिक्षण दिया गया। कई गांवों को खाली कराकर लोगों को विशेष कैंपों में बसाया गया की वे नक्सलियों से दूरी बनाए रखें और सुरक्षा बलों को सहयोग कर सकें। 2005 से 2011 के बीच इस अभियान ने नक्सली संगठनों को स्थानीय समर्थन से वंचित कर कमजोर किया। लेकिन इसी अवधि में सलवा जुडूम पर गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे। अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं,मानवाधिकार संगठनों और पीड़ितों ने अभियानों के दौरान निर्दोष ग्रामीणों के उत्पीड़न,घरों को जलाने,महिलाओं पर अत्याचार,जबरन कैंपों में ले जाने और हिंसा फैलाने के आरोप लगाए। इन आरोपों पर आधारित कई याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गईं।

2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सलवा जुडूम और स्पेशल पुलिस ऑफिसर व्यवस्था को असंवैधानिक और अवैध करार दे दिया था। न्यायालय ने कहा था कि नाबालिगों या अप्रशिक्षित युवाओं को हथियार देकर लड़ाई में भेजना संविधान के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। राज्य का दायित्व कानून-व्यवस्था बनाए रखना है,न कि नागरिकों को हथियार उठाने के लिए प्रेरित करना। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह प्रक्रिया राज्य की विफलता का संकेत है और इससे कानून का राज कमजोर होता है। इस प्रकार सलवा जुडूम पर प्रतिबंध मानवाधिकार,विधि के शासन और संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा के दृष्टिकोण से आवश्यक कदम माना गया।

देश में यह भी देखा गया है की जब प्रशासन और सरकारें नियमों,प्रक्रियाओं और सुरक्षा के नाम पर मानवीय मूल्यों को भूल जाती हैं,तब न्यायालय मानवाधिकारों की अंतिम रक्षा-रेखा बन जाता है। न्यायपालिका संविधान के तहत यह सुनिश्चित करती है कि किसी भी नागरिक की गरिमा,स्वतंत्रता और समानता का हनन न हो। चाहे पुलिस अत्याचार हो,प्रशासनिक मनमानी या कमजोर वर्गों पर अन्याय हो। न्यायालय हस्तक्षेप कर राज्य को उसकी सीमाएं  और जिम्मेदारियां याद दिलाता है। न्यायिक समीक्षा और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के माध्यम से अदालतें लोकतंत्र को मानवीय बनाती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि कानून का शासन संवेदना और न्याय दोनों के साथ चले। अपने फैसलों में न्यायपालिका के यह संदेश लोगों में न्याय का भरोसा जगाते है। दो वर्ष पहले  मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने मातहत आधिकारी के ट्रांसफर और स्टे पर आधिकारियों की मनमानी को लेकर दो आईएएस अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि आप अधिकारी हैं,राजा नहीं। न्यायालय ने अवमानना के एक मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए अधिकारियों को सजा सुनाई और उन पर जुर्माना भी लगाया। सजा सुनाने के बाद कोर्ट ने दोनों अधिकारियों को तुरंत कोर्ट रूम से पुलिस हिरासत में भेजने के निर्देश भी दिए।

संवैधानिक अधिकार मानवाधिकारों का कानूनी आधार हैं और न्यायपालिका उनकी संरक्षक,जो यह सुनिश्चित करती है कि हर नागरिक सुरक्षित,स्वतंत्र और सम्मानजनक जीवन जी सके।  दिव्यांग जन को लेकर एक मामलें में न्यायालय का एक फैसला फिर मिसाल बन कर आया। मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा की भर्ती और सेवा शर्तें नियम के खिलाफ एक याचिका दृष्टिबाधित अभ्यर्थी की मां ने दायर की तो अदालत ने न केवल इस पर कड़ा संज्ञान लिया बल्कि  जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर माहेदवन की बेंच ने कहा कि किसी दिव्यांग व्यक्ति को उसके अधिकारों से वंचित करने का आधार मेडिकल एक्सपर्ट द्वारा किया गया क्लीनिकल असेसमेंट नहीं हो सकता। पीठ ने मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियम की शर्तों में दृष्टिबाधित और दृष्टिहीन अभ्यार्थियों को न्यायिक सेवाओं में नियुक्ति से बाहर रखने वाले अंश को निरस्त करते हुए कहा कि दृष्टिबाधित और दृष्टिहीन भारत में न्यायिक सेवाओं में नियुक्ति के लिए आवेदन करने के पात्र हैं। पीठ ने फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति महादेवन ने कहा,मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियम 1994 के नियम 6-ए को निरस्त किया जाता है,क्योंकि यह दृष्टिबाधित और दृष्टिहीन उम्मीदवारों को न्यायिक सेवाओं में नियुक्ति से बाहर रखता है। पीठ ने 2016 के दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम के अनुसार,दिव्यांग व्यक्तियों की पात्रता का आकलन करते समय उन्हें उचित सुविधाएं दी जानी चाहिए। पीठ ने फैसले में आगे कहा कि वह संवैधानिक व्यवस्था और संस्थागत अक्षमता से निपटता है और इस मामले को सबसे महत्वपूर्ण मानता है और कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों को न्यायिक सेवा में भेदभाव का सामना नहीं करना चाहिए। राज्य को समावेशी व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई करनी चाहिए।

न्यायपालिका समय-समय पर ऐसे फैसले देती है जो यह सिद्ध करते हैं कि संविधान के मूल्य स्थिर नहीं बल्कि बदलते सामाजिक संदर्भों में निरंतर विकसित होते हैं। न्यायपालिका न केवल संविधान के  शब्दों की रक्षा करती है, बल्कि उसके भाव,आत्मा और मूल्य-तत्वों को भी अभिव्यक्ति देती है। संविधान केवल लिखित प्रावधानों का दस्तावेज़  होने के साथ ही उसमें निहित न्याय, स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व जैसे उच्च आदर्शों का जीवंत दर्शन है। न्यायपालिका इन आदर्शों को व्याख्या,निर्णय और न्यायिक सक्रियता के माध्यम से समाज में लागू करती है। मसलन गरीब लोगों को आरक्षण देने पर न्यायपालिका का बेहद सकारात्मक रुख सामने आया।

2019 में सरकार ने कानून में संशोधन कर कमजोर वर्गों को आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण देने का नियम बनाया था। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी और आलोचकों का तर्क था कि यह भेदभावपूर्ण है क्योंकि इसमें पहले से आरक्षण प्रणाली के अंतर्गत आने वाले जाति समूहों को शामिल नहीं किया गया है और यह शीर्ष अदालत के 1992 के उस फैसले के खिलाफ है जिसमें आरक्षण की सीमा  पचास फीसदी तय की गई थी। इस पर न्यायाधीशों ने कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण भारत के मूल ढांचे या संविधान का उल्लंघन नहीं करता है और इसे सरकार द्वारा सकारात्मक कार्रवाई के रूप में माना जाना चाहिए।

बेशक,भारत में अच्छा संविधान है लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता की  संविधान और संविधानिक ढांचे को मजबूत रखने में न्यायपालिका ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बहरहाल न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष रहनी ही चाहिए। उसकी स्वतंत्रता लोकतंत्र को मजबूती देती है,सत्ता के दुरुपयोग पर रोक लगाती है और न्याय के मूल्यों की रक्षा करती है। इसी कारण लोकतंत्र की विश्वसनीयता और संविधान की सर्वोच्चता कायम रहती है।

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