राष्ट्रीय सहारा
डॉ.अंबेडकर भारत के संभवतः सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और विशिष्ट अकादमिक डिग्री हासिल करने वाले शख्सियत थे। वे भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी बन सकते थे,लेकिन यदि उन्हें यह पेशकश की गई होती तो वे इसे शायद ही स्वीकार करते। इस बात की पूरी संभावना है की इससे वे यह कहकर इंकार कर देते की उनकी जगह किसी वंचित वर्ग के व्यक्ति को यह पद दिया जायें तो ज्यादा लाभदायक होगा। डॉ.अंबेडकर की सामाजिक न्याय की स्थापना के आग्रह के प्रति गहरा सम्मान दिखाते हुए ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश बी.आर.गवई ने कहा कि मैं डॉ.अंबेडकर के कारण सुप्रीम कोर्ट का जज हूं। डॉ.अंबेडकर के कारण है कि मेरे जैसा व्यक्ति,जो एक झुग्गी-झोपड़ी इलाके में एक नगरपालिका स्कूल में पढ़ता था,इस पद तक पहुंच सका। न्यायाधीश गवई भी दलित समुदाय से ही है। वे अगले महीने यानि मई 2025 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बनेंगे और दलित समुदाय से इस पद तक पहुंचने वाले दूसरे न्यायाधीश होंगे।
दरअसल आरक्षण को लेकर डॉ.अंबेडकर की स्पष्ट सोच थी की यह वंचित वर्ग के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता प्राप्त करने का एक संविधानिक अधिकार है। जस्टिस गवई ने कहा कि हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोगों को अंबेडकर की वजह से पहचान मिली। आज़ादी के आठवें दशक में प्रवेश कर चूके भारत में आज भी हाशिए पर पड़ा समाज अपनी मूलभूत जरूरतों और दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत है। उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आई है और वह बढ़कर करोड़ों में चली गई है। इसके बाद भी की एससी,एसटी और पिछड़ा वर्ग का आरक्षण राजनीति से सरकारी नौकरी तक देश में लागू है और अब यह सामान्य गरीब वर्ग तक भी पहुंच गया है।
भारतीय संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गई थी,उसका उद्देश्य केवल कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना था। डॉ.अंबेडकर का उद्देश्य एक समान और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना था और आरक्षण का प्रयोग तब तक किया जाना चाहिए जब तक समाज में वास्तविक समानता नहीं आ जाती। आरक्षण को एक स्थायी व्यवस्था न मानते हुए,डॉ.अंबेडकर ने इसे एक अस्थायी उपाय के रूप में देखा था। उनके लिए यह आरक्षण और उससे होने वाले विकास के द्वार किसी परिवार तक सीमित नहीं थे,यह समूचे समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त करने वाले थे।
लेकिन डॉ.अंबेडकर के उद्देश्य के इतर एससी एसटी का आरक्षण तब विवादों में घिर गया जब राजस्थान में भील बनाम मीणा और बिहार में दलित बनाम महादलित का नारा बुलंद हुआ। दलित या अनुसूचित जातियों की आबादी की बात की जाएं तो यह भारत की कुल आबादी का साढ़े सोलह फीसदी हैं। भारत में आदिवासियों की आबादी तकरीबन ग्यारह करोड़ है यह देश की कुल आबादी का साढ़े आठ फीसदी है। आदिवासियों को भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी गई है। बीसवीं सदी की शुरुआत में दलित और आदिवासियों की सामाजिक,शैक्षिक और आर्थिक स्थिति एक जैसी ही थी। गिने-चुने लोग ही थे,जो गिरी हुई हालत से ऊपर उठ सके थे। 21 वीं सदी में यह स्थिति बदली है। आरक्षण से आदिवासियों और दलितों के एक तबके को फ़ायदा हुआ है और अस्तित्व के लिए उनकी लड़ाई आसान हुई है। आदिवासियों और दलितों के एक तबके ने काफी तरक्की कर ली है,लेकिन अभी भी ज़्यादातर लोग उसी हालत में हैं,जिस स्थिति में वो आज से एक सदी पहले थे। जिस तरह से आरक्षण की नीति बनाई गई है,ये उन्हीं लोगों को फ़ायदा पहुंचाती आ रही है,जो इसका लाभ लेकर आगे बढ़ चुके हैं। नतीजा ये है कि दलितों और आदिवासियों में भी एक छोटा तबका ऐसा तैयार हो गया है जो अमीर है और जिसे व्यवस्था का लगातार फ़ायदा हो रहा है।
कानून बनाना विधायिका का काम है और सुप्रीम कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस बात पर सहमत है की एससी,एसटी आरक्षण में बदलाव होना चाहिए और इसमें क्रीमीलेयर का प्रावधान होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने एक अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण बारे में ऐतिहासिक फै़सला सुनाते हुए कहा था कि सरकार इन समुदायों के आरक्षण सीमा के भीतर अलग से वर्गीकरण कर सकती है। क्रीमी लेयर से मतलब उस वर्ग से है जो आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रगति कर चुका है। इस श्रेणी में आने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है।
सुप्रीम कोर्ट के एससी एसटी आरक्षण में कोटा लागू करने की इजाजत देने के खिलाफ दलित आदिवासी संगठनों ने भारत बंद बुलाया था। इस दौरान नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गनाइजेशन ने इसे दलित और आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ बताया था। 2018 में भी ऐसा ही फैसला देते हुए अदालत ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का नियम लागू होगा। जस्टिस नरीमन ने कहा था,आरक्षण की व्यवस्था का मकसद नागरिकों के बीच पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाना है जिससे वे भारत के अन्य नागरिकों की तरह समानता के आधार पर पर हाथ से हाथ मिलाकर चल सकें।
यह भी दिलचस्प है की बड़े और मलाईदार पदों पर बैठे एससी एसटी के लोग उच्च और महंगे शिक्षा संस्थानों में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाकर उसी आरक्षण का लाभ उठा रहे है जिसका मक़सद आदिवासियों और दलितों की भलाई और उनकी तरक़्क़ी था,लेकिन इसने गिने चुने लोगों को फ़ायदा पहुंचाया है। इसकी वजह से ज़ाति-व्यवस्था के समर्थक इस ज़ातीय बंटवारे को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं,जो कि आदिवासी और दलित हितों के लिए नुक़सानदेह है। एससी,एसटी पर क्रीमी लेयर के विरोध में कथित रौबदार दलित आदिवासियों ने आवाज बुलंद की तो आम गरीब आदिवासी सडकों पर उमड़ पड़े। जबकि कथित अभिजात्य हो चूकी उनकी संतान सड़कों के बजाय उस समय महंगे कोचिंग संस्थानों में पढ़ रही होगी।
डॉ.अंबेडकर ने कल्पना की थी कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित और आदिवासी अपनी बिरादरी के दूसरे लोगों को भी समाज के दबे-कुचले वर्ग से बाहर लाने में मदद करेंगे। मगर,हुआ ये है कि तरक्कीयाफ़्ता आदिवासियों और दलितों का ये तबका,सामाजिक तौर पर ख़ुद को ऊंचे दर्जे का समझने लगा है। आदिवासियों और दलितों की ये क्रीमी लेयर बाक़ी दलित आदिवासी आबादी से दूर हो गई है। डॉ.अंबेडकर ने एक ऐसे फॉर्मूले की आवश्यकता पर बल दिया था,जो अवसर की समानता को उन समुदायों के लिए आरक्षण प्रदान करने के साथ संतुलित कर सके,जिन्हें ऐतिहासिक रूप से प्रशासन से बाहर रखा गया था। अभी भी दलित आदिवासी का एक बड़ा तबका आरक्षण के फायदों से दूर है और उन्हें इसका फायदा तब ही मिल पायेगा जब वे आरक्षण भोगी अभिजात्य वर्ग को चुनौती देने का साहस करेंगे। डॉ.अंबेडकर को भी इस अभिजात्य वर्ग की कल्पना रही होगी इसीलिए उन्होंने अपने जीवनकाल में ही एक सम्मेलन में आरक्षण समाप्त करने की बात कह दी थी।

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