जब राजद्रोह राष्ट्रभक्ति की जरूरत बन जाएं … !
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जब राजद्रोह राष्ट्रभक्ति की जरूरत बन जाएं … !

सुबह सवेरे

 

 सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये,क्योंकि गलत राय सरकार और राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी। यह विचार सत्रहवीं सदी मे ब्रिटेन मे राजशाही को मजबूत बनाएं रखने के लिए कानून के रूप मे अधिनियमित किया गया था। बाद मे भारत मे भी अंग्रेजों को इसकी जरूरत 1857  की क्रांति के बाद महसूस हुई।  1870 में संभावित विद्रोह के डर से औपनिवेशिक शासकों द्वारा देशद्रोह कानून को भारतीय दंड संहिता या आईपीसी में शामिल किया गया था।

आजादी के आंदोलन मे इस कानून का अंग्रेजों के खूब दुरुपयोग किया।  सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखने,बोलने और प्रस्तुत करने के आरोप मे आजादी के कई मतवाले काल कोठरी मे कैद कर दिए गए।  बापू अपने विचारों को व्यक्त करने से पीछे नहीं हटते थे। वे कहते भी की बिना अभिव्यक्ति के आजादी निरर्थक है। उन्होंने साप्ताहिक अखबार यंग इंडिया मे अंग्रेजी सरकार की नीतियों की आलोचना की। नतीजा यह हुआ की बिरिटीश पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया और बाद मे अदालत ने उन्हे लोगों को सत्ता के खिलाफ भड़काने के आरोप मे छह साल की कैद की सजा सुना दी। यह पहली बार नहीं था।  इसके पहले 1891 अंग्रेजों ने बंगबासी अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस के खिलाफ पहला मामला दर्ज किया था। उन्होंने एज आफ कांस्टेंट बिल का विरोध किया था। 1908 मे  बालगंगाधर तिलक ने चापेकर बंधुओं को फांसी की सजा देने पर अंग्रेज सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए निंदा की थी,नतीजा उन्हे देशद्रोही बताया गया था।  इसी प्रकार 1921 मे स्वर्ण मंदिर के मामलों में अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेप के खिलाफ राजनेता और धार्मिक संगठन के प्रमुख मास्टर तारा सिंह के भाषण को राजद्रोह माना गया था।

देश का संविधान लिखा जा रहा था तब इस कानून पर खूब बहस हुई।  यह कहा गया की धारा 124A औपनिवेशिक विरासत का अवशेष है और एक लोकतंत्र में अनुपयुक्त है। यह वाक् और अभिव्यक्ति की संवैधानिक गारंटीकृत स्वतंत्रता के वैध अभ्यास में एक अवरोध है। फिर भी इस कानून को हटाने पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई।  फिर अदालत ने इस पर संज्ञान लिया। 1950 के दशक में दो अलग-अलग उच्च न्यायालयों ने धारा 124A को स्वतंत्रता का उल्लंघन मानते हुए निरस्त कर दिया था। एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में में दिये गए एक संक्षिप्त आदेश में सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के कार्यान्वयन को प्रभावी ढंग से निलंबित कर दिया। लेकिन 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने इन फैसलों को उलट दिया। न्यायालय ने पाया कि धारा 124A लोक व्यवस्था के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक वैध प्रतिबंध के रूप में बचाव-योग्य है।

देशद्रोह को अपराध घोषित करने वाले इस प्रावधान का इस्तेमाल आज़ादी के बाद के क्रमिक शासनों द्वारा लोकतांत्रिक असंतोष के दमन के लिये किया गया है। लोकतान्त्रिक और आजाद भारत मे देशद्रोहिता के आरोप मे जो मुकदमे दर्ज किए गए,वे भी बड़े  दिलचस्प है।  पाटीदार आंदोलन को हवा देने वाले हार्दिक पटेल राजद्रोह के जिम्मेदार ठहराएं गए तो  2003 में राज्य सरकार के खिलाफ भाषण देने पर राजस्थान सरकार ने विहिप नेता प्रवीण तोगडिय़ा के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज  कर लिया।  महाराष्ट्र में राज्य सरकार के खिलाफ विरोध करने और मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा पाठ करने को लेकर सांसद नवनीत राणा व विधायक पति रवि राणा के खिलाफ  राज्य सरकार ने इसी धारा के तहत केस दर्ज किया था।  तमिलनाडु के कुंडकुलम में एक गाँव पर इसलिये देशद्रोह कानून थोप दिया गया था, क्योंकि वे वहाँ परमाणु सयंत्र बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। इतना ही नहीं,2014 में झारखंड में तो विस्थापन का विरोध कर रहे आदिवासियों पर भी देशद्रोह कानून चलाया गया था।

देश मे राजद्रोह कानून की वर्तमान में स्थिति यह है की यह  भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है। यह कानून राजद्रोह को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करता है जिसमें  किसी व्यक्ति द्वारा भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति मौखिक,लिखित,संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है। विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।  राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी प्राप्त करने से रोका जा सकता है। आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होता है,साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे न्यायालय में पेश होना ज़रूरी है। दो साल पहले यह कानून तब फिर चर्चा मे आया जब सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी,जिसमें देशद्रोह कानून पर फिर से विचार करने की मांग की गई थी। न्यायालय ने कहा,सरकार के प्रति असंतोष” की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं के आधार पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करने वाला कोई भी कानून भारतीय संविधान मे उल्लेखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध है और संवैधानिक रूप से अनुमेय भाषण पर द्रुतशीतन प्रभाव का कारण बनता है।

अब विधि आयोग ने इस विवादित क़ानून को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी बताया है. यहीं नहीं रिपोर्ट मे यह भी कहा गया है की  भारत की आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित रखने के लिए यह कानून ज़रूरी है। आयोग ने कहा है कि ये क़ानून हटाने के लिए सिर्फ़ ये वजह काफ़ी नहीं है कि ये क़ानून औपनिवेशिक दौर का है। भारतीय लोकतंत्र मे आंतरिक सुरक्षा के लिए इस कानून को बनाएं रखने का अर्थ यह है की सत्ता के खिलाफ लिखने, बोलने या दृश्य फिल्म की प्रस्तुति पर राजद्रोह हो सकता है।  आधुनिक लोकतंत्र मे यह विश्वास किया जाता है की संविचार की स्वतंत्रता का अधिकार,अंतरात्मा की स्वतंत्रता का अधिकार और असंतोष का अधिकार को स्वस्थ्य और परिपक्व लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्थाओं के बाद ही लोकतंत्र में लोगों की सहभागिता बढ़ेगी। इसके साथ ही समाज के लिये अप्रासंगिक विचारों को निकाल देना देश की शासन व्यवस्था का उतरदायित्व है। आजादी के बाद कई सरकारें बनी और chli गई। लेकिन वे इसव कानून को समाप्त करने का साहस नहीं जुटा पाई।  भारत मे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 प्रचलित है। यह कानून केंद्र या राज्य सरकार  को अधिकार देता है कि वह किसी व्यक्ति को राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रतिकूल किसी भी तरह से कार्य करने से रोकने के लिये उसे हिरासत में ले सकता है।\ सरकार किसी व्यक्ति को सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने से रोकने या समुदाय के लिये आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिये भी हिरासत में ले सकती है।

जाहिर है आंतरिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने वाले कानूनों की मौजूदगी के बाद भी राजद्रोह के औपनिवेशिक कानून पर संशय चिंता का विषय है। अंग्रेजों को कानून मे सुधार करने के लिए बार बार मजबूर करने वाले आजादी के मतवालों ने राजद्रोहिता नहीं की होती तो वे शायद ही देशभक्त कहलाते। फिर लोकतान्त्रिक देश मे राजद्रोहिता को देशद्रोहिता से जोड़ना किसी अभिशाप से कम नहीं है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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