प्रजातन्त्र -6 दिसम्वर-डॉ.आंबेडकर पुण्यतिथि
रक्त,जाति,समुदाय और वर्ग की श्रेष्ठता से अभिशिप्त समाज में वंचितों की अस्मिता की रक्षा करने की चुनौती से जूझते बाबा साहब अंबेडकर राजनीतिक और संविधानिक अधिकारों से करोड़ों लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाना चाहते थे। बाबा साहब का यह मानना था की देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्थाओं में विशेष अधिकार प्राप्त जन प्रतिनिधि वंचित वर्ग को संरक्षण देकर उन्हें सशक्त बनायेंगे। भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए सुरक्षित सीटें प्रदान की गई हैं,ताकि उनकी राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित हो सके। बाबा साहब अंबेडकर की मृत्यु के साढ़े छह दशक बाद यह दिखाई पड़ रहा है की जातीय आधारित नेता समाज में इंसाफ और अधिकारों के लिए लड़ने की बजाय अपने अपने हित में विशेष लाभ और रियायतें लेने की फिराक में रहते हैं। देश के राजनीतिक एजेंडे में दलित और आदिवासियों का स्थान बड़ा ऊंचा प्रदर्शित तो किया जाता है लेकिन हकीकत इतर है। दलितों और आदिवासियों की स्थिति में जमीनी स्तर पर कोई खास बदलाव नहीं आया है।
आर्थिक और सामाजिक असामनता,भारतीय समाज की हकीकत रहीहै। हैरानी इस बात पर है की गैर बराबरी को बदस्तूर जारी रखने की राजनीतिक पूंजीवादी ताकतों को दलित आदिवासी वर्गों के कथित राजनीतिक नेतृत्व कर्ताओं का आंख मूंद कर समर्थन हासिल है। देश के सबसे बसे लोकतांत्रिक सदन में जीत हासिल करने वाले 543 में से 504 उम्मीदवार करोड़पति हैं जिसमे बड़ी संख्या में सुरक्षित सीटों से जीतने वाले उम्मीदवार भी शामिल है। जबकि दलित आदिवासियों की बड़ी आबादी दिन रात संघर्ष के बाद बड़ी मुश्किल से अपना पेट भर पाती है। राजनीतिक पार्टियां इन नेताओं का भरपूर उपयोग करती है और इन्हें सामाजिक चेहरे के रूप में प्रदर्शित कर भरपूर वोट बटोरने में कामयाव हो जाती है। 543 संसदीय क्षेत्रों में कुल चौबीस फीसदी यानि 131 सीटें में अनुसूचित जाति के लिए 84 और अनुसूचित जनजाति के लिए 47 आरक्षित हैं। डॉ.आंबेडकर के सपनों के भारत को बनाने और सामाजिक न्याय स्थापित करने की जिम्मेदारी लिए संसद में प्रवेश पाने वाले इन सांसदों की लोकतांत्रिक संस्था में भागीदारी का विश्लेषण तीन मापदंडों के आधार पर किया जा सकता है,प्रश्न उठाना,बहस में भाग लेना और निजी सदस्य विधेयक पेश करना।
भारत के कई क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग गरीबी और बेरोजगारी और पलायन से जूझने को मजबूर है तथा सामजिक उत्पीड़न के रोज शिकार हो रहे है। वहीं इस वर्ग के प्रतिनिधि संसद में न तो प्रश्न उठाने में आगे है,न ही बहस में भाग लेने में उनकी कोई खास दिलचस्पी है और ही निजी सदस्य विधेयक पेश करने में कोई उल्लेखनीय भागीदारी है। बहस में उनकी संचयी भागीदारी मात्र सत्रह फीसदी है,पूछे जाने वाले प्रश्नों की श्रेणी में यह बीस और निजी सदस्य विधेयक पेश करने के मामले में यह घटकर सोलह फीसदी रह जाती है।
लोकसभा में नियमित रूप से उपस्थित होने वाले शीर्ष दस लोगों में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए सदस्य पीछे रह जाते हैं। आरक्षित सीटों का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों या बहसों की संख्या से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि वे निगरानी प्रदान करने में भूमिका निभाते हैं। यानी,वे जिन समुदायों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं,उनकी चिंताओं को उठाने में उनकी भूमिका। इस श्रेणी के शीर्ष पांच प्रश्नकर्ताओं द्वारा पूछे गए दस नवीनतम प्रश्नों का विश्लेषण करने पर,आश्चर्यजनक रूप से यह संसद खुद के समुदायों की चिंताओं को उठाते हुए नहीं देखते हैं।
इस साल अक्टूबर में दलितों के ख़िलाफ़ एक दशक पहले राज्य को झकझोर देने वाले हिंसा के मामले में कर्नाटक के एक ज़िला एवं सत्र न्यायालय ने 98 लोगों को आजीवन कारावास और पांच लोगों को साधारण जेल की सज़ा सुनाई है। मंजू देवी के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि,अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक हालात को सुधारने के लिए किए गए विभिन्न उपायों के बावजूद,उनकी हालत नाज़ुक बनी रहती है और उन्हें अधिकारों से वंचित रखा जाता है और आगे कई तरह के अपराधों,तिरस्कार, अपमान और उत्पीड़न का निशाना बनाया जाता है। लेकिन दलित आदिवासियों के प्रतिनिधि उत्पीड़न और शोषण के मामलों से कोई सरोकार नहीं रखते। इन सांसदों ने संसद में जो सवाल उठाएं है वे कुत्तों के काटने का खतरा,फिल्म पर्यटन को बढ़ावा और ऑनलाइन गेमिंग उद्योग पर आधारित हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार इन वर्गों द्वारा उठाएं गए दसनवीनतम सवालोंमें से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों पर मात्र एक सवालआधारित रहा ।
आरक्षित सीटें समाज के वंचित वर्गों की विशिष्ट चिंताओं का प्रतिनिधित्व करने का एक माध्यम हैं। आदिवासियों और दलितों के खिलाफ बढ़ते अत्याचारों को लेकर न तो कभी आरक्षित वर्ग के सदस्यों ने सामूहिक रूप से प्रदर्शन किया है और न ही राजनीतिक दलीय हित से ऊपर उठकर कोई सामूहिक बयान जारी किया है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो दलितों के साथ अत्याचार के 150 से ज्यादा मामले अब भी रोजाना दर्ज किए जाते हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि 2018 से 2022 के बीच दलित अत्याचार के मामले 35 फीसदी तक बढ़ गए हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2018 के बाद से हर साल मामले लगातार बढ़े हैं। यह भी दिलचस्प है की इस अधिनियम के तहत मामलों में सज़ा की दर में गिरावट आई है,इसका अर्थ यह है की एक ताकतवर तबका न्याय प्रक्रिया को बाधित कर रहा है लेकिन यह मुद्दा अनुसूचित जाति औरजनजाति के सांसदों के लिए चिंता का विषय नहीं बनता। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत नवीनतम सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इन वर्गों पर अत्यचारों का करीब सत्रह फीसदी राजस्थान में होता है। राजस्थान में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गंगानगर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद निहाल चंद चौहान ने लोकसभा में 289 सवाल पूछे। हालांकि,उन्होंने भी अनुसूचित जाति समुदाय के मुद्दों पर कोई बात नहीं की। यह आईना अन्य राज्यों से चुने गए अन्य सांसदों का भी है।
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