लोकदेश
विकास के नाम पर बेतहाशा कार्बन के उत्सर्जन से वायुमंडल में लगातार तापमान में वृद्धि हो रही है और इसका असर दुनिया भर में देखा भी जा रहा है । आर्कटिक में एक विशाल बर्फ से ढका महासागर है,इसे दुनिया का सबसे ठंडा क्षेत्र माना जाता है। पिछले कुछ वर्षों से आर्कटिक से सिर्फ़ बर्फ़ ही नहीं ग़ायब हो रही है बल्कि जलवायु परिवर्तन की वजह से यहां के जंगलों में भयंकर आग लग रही है। आग इतनी भयानक है कि बर्फ़ में भी आग लग जा रही है। आर्कटिक में दुनिया के कुल जंगलों का एक तिहाई हिस्सा मौजूद है। प्रकृति के अप्रत्याशित परिवर्तनों से हिमालय भी प्रभावित हो रहा है। नैनीताल की नैनी झील के पीछे दिखने वाले हरे-भरे पहाड़ आग और धुएं से प्रभावित है तो इसका प्रभाव नेपाल तक दिखाई दे रहा है। उत्तरी अमरीका के पर्माफ्रॉस्ट यानी हमेशा बर्फ़ से ढंके रहने वाले इलाक़े जैसे अलास्का में भी बर्फ़ तेज़ी से पिघल रही है। यहां अब बर्फ़ की जगह पानी नज़र आने लगा है। बर्फ़ में क़ैद मीथेन जैसी ख़तरनाक गैस वातावरण में घुल रही है। बर्फ़ीले इलाक़ों की गर्मी बढ़ने से केवल मीथेन या कार्बन डाई ऑक्साइड ही हवा में नहीं मिल रही है बल्कि इसकी वजह से वर्षों से दबे हुए जानलेवा जीवाणु भी बाहर आ रहे हैं। स्वीडन में एटमी कचरे को बर्फ़ के नीचे दबा कर रखा गया है। अगर बर्फ़ इस प्रकार पिघलती रही तो ये एटमी कचरा भी खुले में आ जाएगा,जिससे रेडियोएक्टिव तत्व वातावरण में मिलकर कोहराम मचा सकते है।
कार्बन ही धरती का तापमान बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है। जाहिर है कार्बन का उत्सर्जन नियंत्रित करके मानव अस्तित्व को संकट से उबारा जा सकता है लेकिन विकास की अंधी दौड़ के चलते यह संभव नहीं दिखाई पड़ता। अमेरिका जैसे देश अपने औद्योगिक संस्थानों से निकलने वाले जानलेवा धुएं को रोकने को बिल्कुल तैयार नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे विकास की रफ्तार रुक जाएगी और बेहिसाब बेरोजगारी बढ़ेगी। वहीं भारत जैसे देश विकास के नाम पर करोड़ों वृक्षों को काट रहे है। इसका सीधा असर भारत की जलवायु पर होगा और सूखे और बाढ़ की स्थितियां बढ़ सकती है। इस समय वायुमंडल में जितना भी कार्बन जमा हुआ है उसके लिए ज्यादातर जिम्मेदार अमेरिका और यूरोप के देशों की विलाशितापूर्ण जीवन शैली है। अमेरिका ने सबसे ज्यादा ग्रीन हॉउस गैसों का उत्सर्जन किया है लेकिन वह पेरिस समझौते को लेकर भी नकारात्मक रुख अपनाएं हुए है। 2015 में पेरिस में 195 देशों के बीच यह सहमति बनी थी कि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को नियंत्रित किया जायेगा। पेरिस समझौते के जरिए वैश्विक समुदाय से यह अपेक्षा की गई की बिना किसी दबाव के सभी देश स्वयं अपने उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं,इसमें किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई का भी प्रावधान नहीं है।
प्रशांत महासागर में करीब 34 लाख किलोमीटर के दायरे में फैले द्वीपों के देश किरिबाती के लोग अपने अस्तित्व पर मंडराते संकट को देख रहे है। पृथ्वी के निरंतर बढ़ते तापमान के कारण 30 से 35 साल के बाद यह द्वीप डूब जाएगा। यही हाल खूबसूरत मालद्वीप का भी है। भारत के दक्षिणी सिरे से करीब 595 किलोमीटर दूर करीब 1200 द्वीपों में बसा यह देश अपना अस्तित्व बचाएं रखने के लिए दुनिया के अन्य देशों से गुहार लगा रहा है कि वे कार्बन उत्सर्जन कम करें या इसका विकल्प खोजे। वैज्ञानिकों का दावा है कि समुद्र में जलस्तर एक या दो फुट बढ़ने से कई देशों का अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा। इससे प्रभावित देशों में बंगलादेश,चीन,थाईलैंड,मिस्र तथा इंडोनेशिया जैसे देश भी होंगे जबकि भारत के कई तटीय इलाके भी जलमग्न हो जायेंगे। भारत की साढ़े सात हजार किलोमीटर लम्बी तटरेखा के आसपास करीब 25 करोड़ लोग रहते है,इनका जनजीवन तापमान वृद्धि से बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक अगले नब्बे वर्षों में दुनिया का तापमान 1.4 से 5.8 तक बढ़ जायेगा,जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा। अनेक देशों के तटवर्ती इलाके जलमग्न हो जायेंगे,नये रेगिस्तान बनेगे या सूखे इलाकों में भी भयंकर बढ़ जैसे हालात बनेंगे। पिछले सौ सालों में रूस में स्थित काकेशस पर्वत में कुल ग्लेशियरों में से आधों की बर्फ खत्म हो चुकी है,अनुमान है की 2035 तक सभी मध्य पूर्वी हिमालयी ग्लेशियर खत्म हो जायेंगे। चीन में जहां समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है वहीं 40 सालों में तियेंशन पर्वत के ग्लेशियर की बर्फ़ 25 प्रतिशत सिमट गयी है। भारत की जीवनधारा गंगा को जीवनदान देने वाला गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर सालाना की दर से सिकुड़ता जा रहा है।
2019 में स्पेन के मैड्रिड शहर में संयुक्त राष्ट्र के 25 वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में मशहूर पर्यावरणविद ग्रेटा ने वैश्विक स्तर के नेताओं के बारे में कहा कि वो बड़ी-बड़ी बातों से भ्रम पैदा करना बंद करें और ‘रियल एक्शन’ करके दिखाएं। भारत ने 2015 में पेरिस समझौते के तहत वादा किया था कि वह तीन सौ करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखने लायक जंगल लगायेगा। लेकिन देश में विकास के नाम पर जिस प्रकार बेतहाशा पेड़ काटे जा रहे है,उससे साफ है कि तापमान नियन्त्रण की वैश्विक कोशिशों में भारत की भूमिका नकरात्मक ही है। मुंबई में मेट्रो प्रोजेक्ट के लिए आरे के जंगल काटे जाने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चूका है। देश में अलग-अलग प्रोजेक्ट्स और योजनाओं के लिए पिछले 5-6 वर्षों में एक करोड़ से अधिक पेड़ काटे जा चुके हैं। 2019 में सरकार ने लोकसभा में भी माना था कि पिछले पांच साल में एक करोड़ नौ लाख पेड़ काटे गए हैं।
दूसरी ओर विकसित देश औद्योगिक विकास को रोकना ही नहीं चाहते और वे इसके लिए गरीब,पिछड़े और अल्पविकसित देशों को जिम्मेदार ठहराते है। अमरीका में आज भी हर व्यक्ति 15,000 किलोवाट बिजली खर्च करता है, जबकि भारत में आज भी करोड़ों लोगों के पास बिजली नहीं है। विकसित देशों की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की महज 22 प्रतिशत है,लेकिन वे 88 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों एवम् 73 प्रतिशत ऊर्जा का इस्तेमाल करते है,साथ ही दुनिया की 85 प्रतिशत आय पर भी उनका नियंत्रण है। विकासशील देशों की जनसंख्या सकल विश्व जनसंख्या की 78 प्रतिशत है,जबकि वे मात्र 12 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों और 27 प्रतिशत ऊर्जा का ही इस्तेमाल करते है। उनकी सकल आय विश्व की कुल आय की मात्र 15 प्रतिशत ही है।
विश्व में अमेरिका का एक नागरिक हर साल लगभग 16 मीट्रिक टन से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है। इसके बाद कनाडा,रूस,जापान और जर्मनी का नम्बर आता है। जापान ने 2050 तक ग्रीनहाउस गैसों को शून्य करने और कार्बन-तटस्थ समाज बनने का लक्ष्य रखा है। जापान उस दिशा में काम कर रहा है और वहां नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। जापान ने दुनिया को पर्यावरण के खतरों से आगाह करते हुए यह नसीहत दी है कि हम सबकों यह नजरिया बदलने की जरूरत है कि जलवायु के खिलाफ मुखर उपायों से परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा और औद्योगिक संरचना और अर्थव्यवस्था में विकास होगा। असल में संकट यही है कि दुनिया के अधिकांश देश पर्यावरण की कीमत चुकाकर विकास को तरजीह दे रहे है। यह विकास विनाशकारी है,यह समझने को न तो आम लोग तैयार है और न ही दुनिया की अधिकांश सरकारें। अफ़सोस,विनाश की ओर ख़ामोशी से बढ़ती दुनिया अतिवृष्टि,बाढ़,अकाल,सुनामी और सूखे की विभीषिका के संकेतों को भी नजरअंदाज कर रही है।
Leave feedback about this