बातें कम स्कैम ज्यादा
article

बातें कम स्कैम ज्यादा

स्वतंत्र समय,#नीरज बधवार,जिनके व्यंग्य अच्छों अच्छों की शामत ला देते है…!

                                                                   

कहते हो व्यंग्य में तत्कालीन व्यवस्था का उपहास उड़ाया जाता हैं। पर इस दौर में शायद ही कोई ऐसा माई का लाल हों जो व्यवस्था का उपहास उड़ा ले। इन सबके बीच यह भी तो सच है कि हर युग में  चुनिंदा जन्म ले ही लेते है और फिर यदि वह लेखक हो तो फिर तो समझों अच्छों अच्छों की शामत आ गई। जब से इंटरनेट क्रांति हुई है,लेखन में अपना कम परायों का परोसना आसान हो गया है। ऐसे दौर में नीरज बधवार ऐसे व्यंग्यकार है जो  शब्दों और रचनात्मकता की कला से दूसरों को परोस भी देते है और दिमाग का दही छानने का कारनामा भी दिखा देते है। वे युवा है और प्रयोगधर्मिता से उन्हें कोई परहेज भी नहीं है।

किताबी दुनिया में पढ़ने का शौक जब सिमट रहा है वहीं उनकी किताब “बातें कम स्कैम ज्यादा”खूब धूम मचा रही है। व्यंग्यकार नीरज बधवार की इस किताब के कुछ अंश हम पाठकों तक पहुंचा रहे है जो उन्हें सोचने,हंसने और बुदबुदाने को मजबूर कर देते है तो हैरानी की बात नहीं होगी। नीरज बधवार के व्यंग्य आप इन्सान की जिंदगी से होते है और उन्हें बखूबी छूते है।  एक शायर ने कहा है कि,चाहिए अच्छों को जितना चाहिए ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए। बधवार की लेखनी कुछ ऐसी ही है की जब उन्होंने चाहा ही लिया तो फिर लिखना जरूरी हो जाता है,फिर चाहे खुद के बारें में हो या दूसरों को लेकर। अमूमन हर किताब के अंत में लेखक का परिचय होता है और उसमें सादगी कम महानता का बखान ज्यादा हो जाता है। “बातें कम स्कैम ज्यादा” में नीरज बधवार का परिचय आपराधिक रिकार्ड के रूप में नजर आता है,जो पाठकों को बहुत गुदगुदाता है।

 

 

हम भारतीयों को ‘थोड़ा’ समझ ही नहीं आता…!

जकरबर्ग ये लो हम भारतीयों का सारा डेटा में नीरज ये बताते हैं कि हम भारतीय डेटा लीक को लेकर इतने फिक्रमंद क्यों हैं। हम भारतीयों की सारी ज़िंदगी तो वैसे भी खुली किताब है। इसके बाद वो एक-एक करके बड़े शरारती अंदाज़ में भारतीय होने के कुछ लक्षण बताते हैं।
असली भारतीय वही है जो नई कार लेने के बाद 6 महीने तक सीट से उसकी पन्नी नहीं उतारता,क्योंकि पन्नी हटाने से चीज़ खराब हो जाती है। इसी चक्कर में कुछ लोग सारी ज़िंदगी अपने दिमाग से भी पन्नी नहीं हटाते और वो unused रह जाता है।
बस में आधा टिकट लेने के लिए हम 6 साल के बच्चे को 3 का बताते हैं। कपड़े लेते वक्त उसी 6 साल के बच्चे के लिए 9 साल का स्वेटर लेते हैं। स्वेटर नया होता है तो बच्चा छोटा होता है। जब तक बच्चा बड़ा होता है तो स्वेटर घिसकर छोटा हो चुका होता है।

हवाई सफर करते वक्त भारतीय बोर्डिंग पास लेने से पहले फेसबुक पर चेक इन करते हैं। मगर रोड़वेज़ की बस से जाते वक्त कभी नहीं बताते कि Going To Meerut from Sarai Rohilla Bus Station with Montu and 175 others. जिंदगी में एक बार एयर ट्रेवल करते हैं और फिर सारी जि़ंदगी बैग से उसका टैग नहीं उतारते। बैग पुराना हो जाता है तो टैग का ताबीज़ बनाकर उसे गले में डाल लेते हैं मगर फेंकते नहीं।

एक टीशर्ट को हम 7 साल तक पहनते हैं मगर कभी फेंकते नहीं। पुरानी होने पर उससे रसोई की पट्टी साफ की जाती है। और पुरानी होने पर कामवाली डस्टिंग करती है। फिर छोटा भाई साइकिल साफ करता है। फिर उसका पोछा बनाया जाता है। पोछा दो फाड़ हो जाने पर उससे बाथरूम की ढीली टूटियां कसी जाती है।

रिमोट के सेल वीक होने पर उसकी पीठ पर थप्पड़ मारकर चलाते हैं। पढ़ाई में वीक बच्चों को टीचर थप्पड़ मारकर पढ़ाते हैं। कुछ रिमोट थप्पड़ मारने से चल भी जाते हैं मगर कुछ ढीठ बच्चे…

दिवाली पर सोनपापड़ी के डिब्बे को हम आगे ट्रांसफर कर देते हैं…एक रिश्तेदार दूसरे को, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को। इस तरह एक सोनपापड़ी का डिब्बा सालभर में वास्कोडिगामा से ज़्यादा ट्रेवल करता है। पिछले दिनों कानपुर में एक शख्स उस वक्त गश खाकर गिर पड़ा जब उसी का दिया सोनपापड़ी का डिब्बा 17 साल बाद दिवाली पर उसे कोई गिफ्ट कर गया।

हम भारतीयों को ‘थोड़ा’ समझ ही नहीं आता। Power Nap लेने के चक्कर में हम 2-3 घंटे तक सो जाते हैं। चाय के साथ कुछ हल्का खाने के नाम पर भुजिया खाने लगें, तो आधा किलो भुजिया खा जाते हैं। अच्छे लगें, तो हम सिरके वाले प्याज खाकर पेट भर लेते हैं। भूख लगी हो तो हाजमोला की गोलियां खाकर पेट भर लेते हैं। शादी में तब तक गोल गप्पे खाते हैं जब तक उसका पानी नाक से बाहर न आ जाए। तब तक मंचूरियन ठूंसते रहते हैं जब तक एक-आधा बॉल कान से निकलकर बाहर न गिर पड़े। खाने के बाद मुंह मीठा करने के लिए रखी सौंफ मुट्ठियां भर-भरकर खा जाते हैं। हालत ये है कि कहीं फ्री में मिल रहा हो तो हम साइनाइड का कैप्सूल भी ये सोचकर रख लें कि क्या पता बाद में काम आ जाए!

मैं बिक्री के लिए उपलब्ध हूं…!

कोई पत्रकार लगातार निष्पक्ष बना हुआ है तो आप उससे सीधे पूछ सकते हैं-क्यों भाई, लाइन बदलने की सोच रहे हो या गांव की ज़मीन हाईवे में आ गई है? आखिर तुम अपने करियर को सीरियसली  क्यों नहीं ले रहे। बहुत मुमकिन है उसका जवाब होगा- हां यार, सोच रहा हूं प्रॉपर्टी डीलिंग का काम कर लूं या किसी सरकारी स्कूल के बाहर गैस वाले गुब्बारे बेचने लगूं।
इतना तय है कि उसके पास कोई प्लान बी ज़रूर होगा। वरना पत्रकारिता में निष्पक्ष रहकर करियर बर्बाद करना आत्महत्या करने का कोई बेहतरीन विकल्प नहीं है। कारण, निष्पक्षता आज की तारीख में चुनाव नहीं, आपके निक्कमेपन को बताती है। मतलब अपनी लेखनी से आप आज तक किसी पार्टी को कन्वींस नहीं कर पाएं कि ज़रूरत पड़ने पर आप उनके विपक्षी की बखिया उधेड़ सकते हैं या खुद उनकी उखड़ी हुई बखियां सिल सकते हैं।
इसी वजह से आजकल मैं भी खुद को निकम्मा मानने लगा हूं। बड़ी ईर्ष्या होती है ये सुनकर फलां पत्रकार उस पार्टी के हाथों जमीर और रीढ़ समेत बिक गया और मैं अब भी 5 रुपए बचाने के लालच में गले हुए टमाटर खरीद रहा हूं।


सोचने लगा हूं कि आखिर मेरे प्रयासों में आखिर कहां चूक हो गई? मेरी चटाई में कहां कमी रह गई जो 8 ईंच के गद्दे पर के बजाए मैं अब भी चटाई पर सोने को मजबूर हूं। ऐसा तो नहीं विरोधियों ने बाज़ार में मेरे ईमानदार होने कीअफवाह फैला दी है।
ऐसा है, तो मैं साफ कर दूं कि सुनी-सुनाई बातों में न आएं। मेरी निष्पक्षता को मेरी ईमानदारी के रूप में नहीं, सारे ऑप्शन खुले रखने की मेरी कोशिश के रूप में देखा जाए।
इस निष्पक्षता से न तो मैं फ्राइड मोमोज़ खा सकने लायक पैसा कमा पा रहा हूं और न अपने पीछे गोबर भक्तों की फौज खड़ी कर पा रहा हूं। बीजेपी के खिलाफ लिखता हूं तो ‘सिकुलर’ कहलाता हूं, ‘आप’ को टोकता हूं तो ‘भक्त’ हो जाता हूं और कांग्रेस के खिलाफ लिखता हूं, नहीं इतना बेरोज़गार नहीं हूं कि कांग्रेस के खिलाफ लिखूं।

 

आत्महीनता की ताली लेख में…!

नीरज बतौर देश हमारे अंदर घर चुके आत्महीनता पर कटाक्ष करते हैं। एक जगह वो लिखते हैं दरअसल आत्महीनता का सबसे बड़ा लक्षण यही होता है कि वो फर्क ही नहीं कर पाती कि कोई विषय गर्व का है या शर्म का!
भारत में जन्मी कोई बिल्ली अमेरिका में इंटर स्कूल रंगोल प्रतियोगिता भी जीत जाए, तो भी हम दुनिया और बिल्ली को ये बताना नहीं भूलते कि वो भारतीय मूल की है।
बिल्ली ने अभी इनाम में मिला माउस फ्लेवर वाले कैट फूड का डिब्बा भी नहीं खोला होता कि गोरखपुर की कोई आंटी टीवी पर आ दुनिया को यह बताने लगती कि कैसे सालों पहले पड़ोस में रहने वाली यही बिल्ली जब पंद्रह फीट ऊंची दीवार फांदकर उसकी रसोई के भगोने में रखा सारा दूध एक झटके में पी गई थी, तभी वो जान गई थी कि एक दिन ये लड़की बहुत आगे जाएगी।
मैं सोचता हूं कि इस देश में ऐसी बहुत-सी हुनरमंद बिल्लियां हैं जिन्हें व्यवस्था के कुत्ते दौड़ा-दौड़ाकर विदेश भेज देते हैं और जब कभी वो किसी कैट रेस में अव्वल आती हैं तो पूरे का पूरा देश हिंदी फिल्मों के उस नशेड़ी बाप की तरह, जो छोडी हुई औलाद के शोहरत कमाने के बाद, उस पर दावा ठोकने आगे आ जाता है।

घूमने फिरने का टारगेट…!

नीरज ऐसे ट्रेवल एंजेटों पर निशाना साधते हैं जो असल प्वाइंट आगे है बोल बोलकर आपको कहीं घूमने ही नहीं देते। नीरज लिखते हैं-आप थोड़े सुकून के लिए शहर से 30 किलोमीटर दूर किसी होम स्टे में रुककर खुद को फ़ाहियान की छोटी बुआ का लड़का समझ रहे होते हैं लेकिन वहां घूम रहा एक ट्रेवल एजेंट आपको बताता है कि सर आप लोग यहां क्या कर रहे हैं…’असली प्वाइंट’ तो आगे है।

ये वो आदमी है जिसने माउंट एवरेस्ट पर सबसे पहले पहुंचने का जश्न मना रहे एडमंड हिलेरी की पीठ पर मुक्का मारकर उसे बताया था कि भाई, इतना खुश क्यों हो रहा है…असली प्वाइंट तो आगे हैं। इसे स्वर्ग के दरवाज़े पर भी खड़ा कर दिया जाए तो ये अपने 500 रुपए बनाने के लिए लोगों को ये कहकर कहीं और ले जाए कि स्वर्ग तो कुछ भी नहीं, असली प्वाइंट तो आगे है!

वो आपको पहाड़ों पर 5 किलोमीटर ट्रेकिंग की सलाह दे रहा है और आपकी फिटनेस का आलम ये है कि सुबह नहाने के बाद ज़ोर से तौलिया रगड़ लेने पर आपका सांस फूल गया था। वो ट्रैकिंग पर जाने का आप पर ऐसा दबाव बनाता है कि लगता है कि इसे न कह दी तो ये तो आपको खच्चर से बांधकर उसी पहाड़ की चोटी से नीचे गिरा देगा। और अगले दिन अख़बार में ख़बर छपेगी…पहाड़ से गिरने पर खच्चर और गधे की हुई मौत।

 

लेखक परिचय का अनोखा अंदाज…!

 

आपराधिक रेकॉर्ड

कॉलेज ख़त्म होने तक नीरज बधवार ने ज़िंदगी में सिर्फ 3 ही काम किए-टीवी देखना, क्रिकेट खेलना और देर तक सोना। ग्रेजुएट होते ही उन्हें समझ आ गया कि क्रिकेटर मैं बन नहीं सकता, सोने में करियर बनाया नहीं जा सकता, बचा टीवी; जो देखा तो बहुत था मगर उसमें दिखने की तमन्ना बाकी थी। यही तमन्ना उन्हें दिल्ली घसीट लाई।

जर्नलिज़्म का कोर्स करने के बाद छुट-पुट नौकरियों में शोषण करवा वो टीवी में एंकर हो गए। एंकर बन पर्दे पर दिखने का शौक पूरा किया तो लिखने का शौक पैदा हो गया। हिम्मत जुटा एक रचना अखबार में भेजी। उनके सौभाग्य और पाठकों के दुर्भाग्य से उसे छाप दिया गया। इसके बाद दु:स्साहस बढ़ा तो उन्होंने कई अख़बारों में रायता फैलाना शुरू कर दिया।

सिर्फ अख़बार और टीवी में लोगों को परेशान कर दिल नहीं भरा तो ये सोशल मीडिया की ओर कूच कर गए। अपने वन लाइनर्स के माध्यम से लाखों लोगों को ट्विटर और फेसबुक पर अपने झांसे में ले चुके हैं। नीरज पर वनलाइनर विधा का जन्मदाता होने का इल्ज़ाम भी लगता है। और ऐसा इल्ज़ाम लगाने वाले को वो अलग से पेमेंट भी करते हैं।

अपना ही परिचय थर्ड पर्सन में लिखने की धृष्टता करने वाले नीरज वर्तमान में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में क्रिएटिव एडिटर के पद पर कार्यरत है। जहां ‘Fake it India’ कार्यक्रम के ज़रिए लोगों को बुरा व्यंग्य परोसने का काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं। जनता का भी टेस्ट इतना खराब है कि अब तक 20 करोड़ लोग इन विडियोज़ को देख अपनी आंखें फुड़वा चुके हैं।

इनकी पहली किताब ‘हम सब Fake हैं’ को भारत में आई इंटरनेट क्रांति का श्रेय दिया जाता है। उसे पढ़ते ही जनता का लिखने-पढ़ने से भरोसा उठ गया और वो इंटरनेट की ओर कूच कर गई। नीरज की यह दूसरी किताब ज़ुल्म की इस लंबी दास्तां का एक और किस्सा है और इस उम्मीद में आपके हाथों में है कि इसका हिस्सा बनकर आप इस किस्से को सुनाने लायक बना पाएंगे।

बाकी, किताब पर बर्बाद हुए पैसों के लिए लानत-मलानत करनी हो, तो लेखक को सीधे इस नंबर (9958506724) पर कॉल कर सकते हैं। कॉल कर पैसे बर्बाद न करना चाहें, तो मिस कॉल दे दें, लेखक इतना खाली है कि खुद पलटकर आपको फोन कर लेगा।

“The secret of getting ahead is getting started.” – Mark Twain

 #ब्रह्मदीप अलूने

Leave feedback about this

  • Quality
  • Price
  • Service

PROS

+
Add Field

CONS

+
Add Field
Choose Image
Choose Video
X