बापू के अंबेडकर …
article गांधी है तो भारत है

 बापू के अंबेडकर …

सुबह सवेरे

      ..

भारत की आज़ादी का इतिहास संघर्षों की कई अनकही कथाओं से भरा पड़ा है, पर यहां समन्वय  और साझेदारियों की यादगार और निर्णायक मिसालें भी है। दरअसल भारत की एकता और अखंडता को कायम रखने के लिए डॉ.अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच जो समन्वय और साझेदारी हुई वह अभूतपूर्व और ऐतिहासिक थी। आज जो मजबूत और सफल लोकतांत्रिक भारत हमारे सामने खड़ा है उसकी बुनियाद तैयार करने में डॉ.आम्बेडकर और बापू की बड़ी भूमिका  रही।

 

1929 में बापू और डॉ. भीमराव अंबेडकर पहली बार मिले थे। अपने उन अनुभवों को साझा करते हुए डॉ.अंबेडकर ने कहा,गांधी को हमेशा मैंने एक  इंसान की हैसियत से  देखा,इसलिए मैं गांधी को अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं। गांधी की मृत्यु के बाद भी डॉ.अंबेडकर के मन में उनके प्रति गहरा सम्मान रहा। इसी का  नतीजा था कि 6 सितंबर 1954 को डॉक्टर अंबेडकर ने नमक पर टैक्स लगाने की भारत सरकार को सलाह दी और इसका नाम  गांधी निधि रखने का सुझाव दिया। वो चाहते थे कि इसमें जमा राशि का खर्च दलितों के उत्थान के लिए किया जाए। डॉ.अंबेडकर ने साफ कहा था कि मेरे मन में गांधीजी के प्रति आदर है। आप जानते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, बापू को पिछड़ी जाति के लोग अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारे थे,इसलिए वह स्वर्ग में से भी आशीर्वाद देंगे।

गोलमेज सम्मेलन और पूना पैक्ट के  दौरान बापू और डॉ.अंबेडकर की कई मुलाकातें हुई। ऐसा भी नहीं ही कि इन दोनों महानुभावों में वैचारिक मतभेद नहीं रहे। कई बार तो  अंबेडकर बापू को प्रतिद्वंदी भी बता देते थे,लेकिन इन सबके बाद भी देश के हित में कैसे मतभेदों को खत्म किया जा सकता है,यह दोनों महान भारतीय संतानों से सीखा जा सकता है। वहीं बापू का अंबेडकर के प्रति असीम प्रेम कई मौकों पर नजर आता है।  वह चाहे संविधान समिति के लिए चुन कर आना हो या संविधान लिखने का अवसर मिलना। बापू कल की इच्छा के बिना यह संभव ही नहीं था। यह बात और है कि बापू ने कभी इन बातों का सार्वजनिक स्तर पर जिक्र भी नहीं किया। यह भी दिलचस्प है शासन व्यवस्था के तरीके को लेकर बापू और डॉ.अंबेडकर में गहरे मतभेद थे। अंबेडकर पाश्चात्य शासन व्यवस्था पर आधारित ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जहां समानता,स्वतन्त्रता, तथा बन्धुत्व हो तथा प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा का सम्मान किया जा सके। वहीं बापू वैदिक संस्कृति पर आधारित राम राज्य की स्थापना करना चाहते थे। वे अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था को ख़ारिज करते थे तथा पंच परमेश्वर पर आधारित न्याय को बेहतर समझते थे। इन सबके बाद भी बापू ने अंबेडकर की चिंत्ताओं और तर्कों  पर विश्वास जताया।  संविधान निर्माता के रूप में अंबेडकर ने आधुनिक भारत की नींव रखी और इस पर भारत का भविष्य सुनिश्चित कर दिया गया।

 

डॉ.अंबेडकर  यह भली भांति जानते थे कि बापू के आचार,विचार और व्यवहार में उच्च मानवीय मूल्य रहे और वे कभी इस पर समझौता नहीं करते थे।  भारी विरोध के बाद भी बापू ने साबरमती आश्रम में सभी जातियों का रहना सुनिश्चित किया और दलित परिवार का विरोध करने वालों को कड़ी नसीहत दी। असहयोग आन्दोलन के रचनात्मक कार्यक्रमों में उन्होंने अस्पृश्यता निवारण को प्रमुखता से रखा था।  1928-29 में बापू ने जो देशव्यापी दौरे किये उसमें उनका मुख्य विषय अपृश्यता निवारण ही था।   7 नवम्बर 1929 को उन्होंने  दलित उत्थान के लिए देश का दौरा कार्यक्रम प्रारंभ किया। 9 महिनों में उन्होंने करीब साढ़े बारह हजार मील की लम्बी यात्रा ऐसे इलाकों में की जहां जाना मुश्किल होता था और उन्होनें सवर्णों से सारे पूर्वाग्रह छोड़ने का अनुरोध किया। बापू दलित समुदाय के बीच जाते थे,रहते थे तथा शराब,मांस  के परित्याग के साथ    कुरीतियां  छोड़ने की अपील करते थे।

बापू जाति भेद को पाखंड से जोड़ते थे।  वे कहते थे कि हिन्दू धर्म में मुझे कोई भी विधान नहीं मिला कि कोई भी जाति अस्पृश्य है।  हिन्दू धर्म कई रूढ़ियों  से घिरा है और अस्पृश्यता  इसमें बहुत निंदनीय है।  इसकी बदौलत कई हजार वर्ष से धर्म के नाम पर पाप किया जा रहा है,इस पाखंड से आपको मुक्त होना पड़ेगा।  उन्होंने इस पाखंड के पक्ष में मनु स्मृति के श्लोक का हवाला देने वालों की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अर्थहीन बताया।  अंबेडकर बापू की इसी स्पष्टता को पसंद करते थे।

सामाजिक निषेधों से अस्तित्व के हाशिये पर रहे करोड़ों दलितों के कल्याण के लिए बाबा आंबेडकर की प्रतिबद्धता मानवीय इतिहास पर प्रभाव डालने वाली एक अमिट  दास्तां  है।   वहीं अनेक विभाजनकारी,विघटनकारी,विनाशकारी सामाजिक ताने बाने से परिपूर्ण  और विविधततापूर्ण प्रवृत्ति वाले भारत में सामाजिक न्याय पर आधारित एक महान देश के निर्माण में महात्मा गांधी की भूमिका अतुलनीय है।   स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय के लिये जो राजनीतिक,आर्थिक व सामाजिक प्रयास किये जा रहे है या जो वैधानिक प्रावधान किये गये है।   उसका श्रेय बाबा अम्बेडकर को जाता है,लेकिन वास्तव में दलित उत्थान की भावना को स्थापित करने के लिये तथा अंबेडकर को  इसकी संविधानिक जिम्मेदारी सौंपने के पीछे बापू की भूमिका रही।

भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन के साथ  बापू का सामाजिक न्याय को लेकर जन आंदोलन और डॉ.अंबेडकर की सामाजिक न्याय की लड़ाई की घटनाओं में देश की एकता को मजबूत करने के इतने जबरदस्त,साहसी और निर्णायक कोशिशें शामिल  है,जो इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।  बापू का अपना तरीका था,जो कभी कभी बेहद अड़ियल नजर आता था लेकिन उसमे दूरगामी निहितार्थ छुपे होते थे। वही अंबेडकर सामाजिक असमानता और असम्मान का दंश झेलने के बाद भी अपने राष्ट्र और मिट्टी के प्रति आजीवन निष्ठा से योगदान देते रहे।

अंग्रेजों की कम्युनल अवार्ड की साजिश को विफल करना आसान नहीं था।  अंग्रेज इसके जरिए दलित पिछड़ों को पृथक पहचान देना चाहते थे। गांधी ने यरवदा जेल से इसका विरोध किया। 20 सितम्बर 1932 को पूरे भारत में उपवास और प्रार्थना दिवस के रूप में मनाया गया। शान्ति निकेतन में गुरुवर रविन्द्रनाथ टैगौर के काले वस्त्र पहनकर बापू के उपवास के महत्व पर प्रकाश डाला और एक विशाल सभा में जन समूह से आह्वान किया की वे अछूतों उद्धार के कार्य में पूरे मनोयोग से जुट कर अस्पृश्यता निवारण करें।

अछूतों के प्रति भेदभाव को कानून के स्थान पर आध्यात्मिकता से हल करने के बापू  के प्रयास को आमजन ने समझा। दलितों के प्रति सम्मान के भाव प्रगट करने के लिए मंदिर,सार्वजनिक स्थल और कुएं खोल दिए गये। इसके साथ ही दलितों के लिए दूसरी निर्वाचन व्यवस्था खोजने के लिए एक संयुक्त सम्मेलन भी आयोजित किया गया। इस उपवास के व्यापक सामाजिक प्रभाव हुए। उपवास ने सारे हिंदू समाज का आत्मिक शुद्धिकरण कर दिया था। बापू ने साफ कर दिया था कि उनके उपवास का प्रमुख उद्देश्य हिंदू अंत:करण में ठीक ठाक धार्मिक कार्यशीलता उत्पन्न करना था। बापू  ने दलित उद्धार के लिए एक फण्ड भी बनाया जिसमे आम जनता दान कर अस्पृश्यता निवारण में उनकी सहयोगी बन जाती।

कम्युनल अवार्ड होने से दलितों में भी पृथक पहचान की भावना मजबूत हो सकती थी जिसके दूरगामी परिणाम बेहद भयावह हो सकते थे,इस बात को बापू ने महसूस कर लिया था। दलित समस्या के राजनीतिक और संवैधानिक समाधान को बापू  ने सामाजिक जागृति से जोड़कर न केवल हिन्दुओं के अंग-भंग की आशंकाओं का खत्म किया बल्कि देश की एकता को सशक्त करने का कारगर उपाय भी किया। हिंदू धर्म से दलितों को आरक्षण देने की शुरुआत भी यही से हुई। बापू  का मानना था की अस्पृश्यता हिंदूओं की सामाजिक बुराई है और उसका प्रायश्चित भी उन्हें ही करना चाहिए। डॉ.अंबेडकर ने बापू से वैचारिक भिन्नता के बाद भी उनके उद्देश्य की महानता को समझा और देश की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए अंततः उसे स्वीकार भी कर लिया।  बापू और अंबेडकर दोनों तात्कालिक सामाजिक स्थितियों व परिवेश से असंतुष्ट थे। दोनों समाज का नव निर्माण करना चाहते थे। वे साथ चले,सामंजस्य और समन्वय कायम  कर एक महान राष्ट्र की बुनियाद रखी। यहीं कारण है कि विविधता से भरा हुआ भारत दुनिया के सबसे सफल लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में अमिट छाप बनाने में कामयाब रहा है।

#ब्रह्मदीप अलूने

Leave feedback about this

  • Quality
  • Price
  • Service

PROS

+
Add Field

CONS

+
Add Field
Choose Image
Choose Video
X