ब्रिक्स में अब चीनी बादशाहत,राष्ट्रीय सहारा
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ब्रिक्स में अब चीनी बादशाहत,राष्ट्रीय सहारा

राष्ट्रीय सहारा

नए सदस्य देशों के शामिल होने से निश्चित ही ब्रिक्स मजबूत होगा। लेकिन  इसका सबसे ज्यादा फायदा चीन को रणनीतिक रूप से तथा उसकी मुद्रा युआन को होने वाला है।

                     

 

चीनी बाज़ार पहले से ही अच्छी तरह से स्थापित है और यह साम्यवादी देश दुनिया के जिन देशों को सहयोग बढ़ाकर विकसित होने में मदद करने का विश्वास दिलाने में कामयाब रहा है,उसमें अल्जीरिया भी शामिल है। इस साल जुलाई में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के निमंत्रण पर अल्जीरिया के राष्ट्रपति टेब्बोन ने चीन की राजकीय यात्रा की। उत्तरी अफ्रीका का यह देश चीन की अति महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन परियोजना से जुड़ा हुआ है। क्षेत्रफ़ल से यह दुनिया का दसवां सबसे बड़ा मुल्क है तथा इसकी सीमाएं उत्तर-पूर्व में ट्यूनीशिया,पूर्व में लीबिया,पश्चिम में मोरक्को,दक्षिण-पश्चिम में पश्चिमी सहारा,मारिटेनिया और माली,दक्षिण-पूर्व में नाइजर और उत्तर में भू-मध्य सागर से लगती हैं। जाहिर है चीन के लिए आर्थिक और रणनीतिक रूप से अल्जीरिया बेहद खास है,जिसके ब्रिक्स में आने से चीनी हितों को बड़ी मदद मिलेगी। चीन की नजरें पश्चिमी अफ्रीका के फॉस्फेट के भंडार पर है। अल्जीरिया से लगे  मोरक्को से अमेरिका और इजराएल से मजबूत संबंध है। चीन,अल्जीरिया के सहारे मध्यपूर्व से लेकर अफ्रीका के कई क्षेत्रों में मजबूत होने की और तेजी से आगे बढ़ रहा है।

अल्जीरिया के साथ ही ब्रिक्स के नए सदस्य सऊदी अरब,ईरान,संयुक्त अरब अमीरात,अर्जेंटीना, इथियोपिया और मिस्र होंगे।  इन नए देशों के साथ चीन के मजबूत कूटनीतिक रिश्ते है। यह चीन के लिए रणनीतिक और आर्थिक रूप से न केवल बेहद महत्वपूर्ण है,बल्कि दुनिया के एक बड़े आर्थिक मंच पर ड्रैगन के कब्जा जमाने के संकेत भी है।

दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना भी चीन का बड़ा साझेदार है। क्षेत्रफल एवं जनसंख्या की दृष्टि से दक्षिणी अमरीका का ब्राजील देश के बाद द्वितीय विशालतम देश है। इसकी सीमाएं रणनीतिक रूप से बेहद अहम होकर उत्तर में बोलिविया,पश्चिम में चिली से लेकर अंटार्कटिका  तक फैली हुई है। यहां सीसा, जस्ता,टंगस्टन,मैंगनीज़,लोहा और बेरीलियम के भंडार है। अभी तक अर्जेन्टीना का व्यापार अमरीका,ब्रिटेन,जर्मनी,नीदरलैंड,इटली तथा फ्रांस से होता है। लेकिन दूसरा तथ्य यह भी है की चीन की मुद्रा युआन लातिन  अमेरिका की अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है तथा चीन अपनी मुद्रा युआन को अमेरीकी डॉलर के विकल्प के तौर पर प्रमोट कर रहा है। अर्जेन्टीना सरकार ने  इस साल अप्रैल में लगातार घट रहे अपने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडार को देखते हुए चीन के साथ हो रहे अपने व्यापार में वो भुगतान डॉलर में नहीं बल्कि चीनी मुद्रा में करने का ऐलान किया था। ब्राज़ील में विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में दूसरे स्थान पर रहे यूरो की जगह युआन ने ले ली। इसके बाद वहां की सरकार ने चीन के साथ एक समझौता करने की घोषणा की जिसके तहत दोनों देश अब आपसी व्यापार डॉलर की बजाय एकदूसरे की मुद्रा में करेंगे।

अमेरिका के साथ बढ़ते तनाव के बीच चीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अपनी मुद्रा को अधिक बढ़ावा देना चाहता है और लैटिन अमेरिकी मुल्कों का उसके साथ युआन में व्यापार करना इसी की झलक है। बीते एक दशक में लैटिन अमेरिका के कुछ मुल्कों के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने और कुछ को आर्थिक मदद देने के बाद से चीन की कोशिश रही है कि यहां उसकी मुद्रा का इस्तेमाल बढ़े। इसी साल फरवरी में चीन ने लातिन अमेरिका में अपने सबसे बड़े व्यापार सहयोगी ब्राज़ील के साथ समझौता किया था। चीन की रणनीति है कि  उसके सहयोगी देशों में उसकी मुद्रा को आसानी से कन्वर्ट कर सकें और उसका इस्तेमाल बढ़े।

चीन की नजरें अफ्रीका पर भी है और इसीलिए ब्रिक्स का नया सदस्य देश इथयोपिया उसके लिए खास हो जाता है। अफ्रीका की सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था इथियोपिया को उम्मीद है कि ब्रिक्स में शामिल होने से उसके हित ज्यादा सुरक्षित रहेंगे। इथियोपिया हॉर्न ऑफ अफ्रीका में स्थित भूमि से घिरा एक देश है। इथियोपिया सूडान,इरिट्रिया,जिबूती,सोमालिया,केन्या और दक्षिण सूडान से लगता हुआ देश है। चीन पर आर्थिक रूप से पूरी तरह निर्भर इथियोपिया  के भारत के साथ मजबूर संबंध है लेकिन वह चीन के ज्यादा करीब नजर आता है। ब्रिक्स के नए सदस्यों में अरब देश सऊदी अरब,संयुक्त अरब अमीरात,ईरान तथा मिश्र भी है। यह सभी देश चीन के बड़े आर्थिक सहयोगी तथा पाकिस्तान से प्रभावित है। अत: ब्रिक्स में चीन का प्रभाव तो बढ़ेगा वहीं इस मंच से भारत विरोध की साझा आवाजें उठने की आशंका भी बढ़ सकती है।

सऊदी अरब की वैश्विक भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है और उसकी कूटनीति में  असामान्य और क्रांतिकारी बदलावों से कई देश सकते में है।  दुनिया के शीर्ष तेल निर्यातक की दुनिया के सबसे बड़े ऊर्जा उपभोक्ता के साथ द्विपक्षीय संबंध हाइड्रोकार्बन पर आधारित हैं,लेकिन राजनीतिक संबंधों के गर्म होने के बीच सऊदी अरब और चीन के बीच सुरक्षा और तकनीक के क्षेत्र में भी सहयोग गहरा हुआ है। सऊदी अरब की कई दशकों से अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी रही है,जिससे अमेरिका के पूर्व और पश्चिमी एशिया में हितों का संवर्धन होता रहा है। सऊदी अरब और फ़ारस की खाड़ी के अन्य तेल उत्पादक देशों को तेल के बदले सुरक्षा देना इस क्षेत्र में अमेरिकी विदेश नीति का बुनियादी हिस्सा रहा है,लिहाज़ा काफी लंबे समय से सऊदी अरब की विदेश नीति पर अमेरिका की परछाईं रही है। अब सऊदी अरब चीन के साथ नई आर्थिक और सामरिक संबंध मजबूत कर रहा है तथा ईरान से उसके सामान्य होते संबंध अमेरिकी हितों को तो प्रभावित कर ही रहे है,यह भारत के लिए भी समस्या को बढ़ा सकता है।  सऊदी अरब और ईरान  को साथ लाकर चीन ने अपना रणनीतिक महत्व बढ़ाया है,इसका फायदा पाकिस्तान को मिल सकता है जबकी भारत की स्थिति कमजोर पड़ सकती है।

क्राउन प्रिंस सलमान मध्यपूर्व में मौजूदा क्षेत्रीय गठजोड़ और अमेरिकी ब्लॉक से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं। सऊदी अरब की तेल निर्भरता ख़त्म करना भी उनके एजेंडे में सबसे ऊपर है। यहीं कारण है की ओआईसी,अरब लीग,यूनाइटेड नेशन जैसे मंचों को छोड़कर दूसरे मंचों से अक्सर दूर रहने वाला सऊदी अरब अब क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर बड़ी भूमिका में दिखाई दे रहा है। उसे पता है कि नई वैश्विक व्यवस्था में रूस और चीन दो वैकल्पिक ताकत के तौर पर उभर रहे हैं। इस्लामिक दुनिया के एक और महत्वपूर्ण देश मिस्र से भारत के मजबूत संबंध रहे है लेकिन अब वह भी विकास परियोजनाओं को लेकर चीन पर निर्भर हो  गया है। मिस्र की सेना के पास दर्जनों कंपनियां हैं जो होटल,निर्माण,ऊर्जा,ग्रीनहाउस और मेडिकल उपकरणों जैसे क्षेत्रों में काम करती हैं। उसके चीन की सेना के साथ मजबूत संबंध स्थापित हुए है। मध्य पूर्व और अफ्रीका में अमेरिकी प्रभाव की आलोचना करने  वाले मिस्र को चीन पर ज्यादा भरोसा है और अब यह भागीदारी अभूतपूर्व स्तर पर जा सकती है।

ब्रिक्स के अहम सदस्यों रूस और दक्षिण अफ्रीका से चीन की मजबूत आर्थिक साझेदारी है,वहीं ब्राजील को युआन पर पूर्ण भरोसा है। ब्रिक्स को बड़े देशों का व्यापारिक समूह माना जाता है और अभी तक यह विश्व की 41  फीसदी आबादी, 24 फीसदी वैश्विक जीडीपी और 16 फीसदी वैश्विक कारोबार का प्रतिनिधित्व करता आया है।  नए सदस्य देशों के शामिल होने से निश्चित ही ब्रिक्स मजबूत होगा। लेकिन  इसका सबसे ज्यादा फायदा चीन को रणनीतिक रूप से तथा उसकी मुद्रा युआन को होने वाला है और यह सच्चाई  भारत की चिंता बढ़ाने वाली है।

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