नवभारत टाइम्स
चीनी प्रभाव का गहराता साया
अब ब्रिक्स से दूर हो रहा है भारत…
दुनिया के बड़े देशों के व्यापारिक समूह ब्रिक्स के इस साल हुए विस्तार के बाद यह आशंका गहराने लगी थी की अब इस पर चीन का प्रभाव होगा। इजराइल फिलीस्तीन संघर्ष के बीच चीन की नई वैश्विक राजनीति और ब्रिक्स देशों के चीनी हितैषी रुख से यह साफ हो गया है कि अब इस समूह में भारत के लिए चुनौतियां बढ़ गई है। दरअसल दक्षिण अफ़्रीका ने ब्रिक्स के एक असाधारण वर्चुअल सम्मेलन की मेज़बानी की जिसे इजराइल फिलीस्तीन संघर्ष के सिलसिले में लेकर बुलाई गई थी। इस सम्मेलन में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान,ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी,चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग,रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन समेत ब्रिक्स प्लस के सभी राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें भाग नहीं लिया। हालांकि उनके शामिल न होने के कुछ अन्य कारण भी हो सकते है लेकिन ऐसा भी लगता है की भारत इस बात को लेकर अब सावधान है की पश्चिम और इजराइल के विरोध के मंचों से उसे दूर रहना चाहिए। तो क्या ब्रिक्स भी पश्चिम विरोधी गठबंधन के रूप में उभार ले रहा है,वैश्विक स्तर पर बदलते घटनाक्रम में रूस और चीन के साथ ब्रिक्स देशों की भूमिका से तो ऐसा प्रतीत भी होने लगा है।
ब्रिक्स के इस असाधारण वर्चुअल सम्मेलन सम्मेलन में इजराइल की जमकर आलोचना की गई तथा चीन और रूस ने अमेरिकी भूमिका को भी आड़े हाथो लिया। ब्रिक्स नेताओं ने इसराइल हमास जंग में तुरंत मानवीय संघर्ष विराम लागू करने की मांग की। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने फ़लस्तीनियों की अलग देश की मांग को लंबे समय से नज़रअंदाज़ करने का आरोप लगाया वहींरूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इस संकट के लिए नाकाम अमेरिकी कूटनीति को ज़िम्मेदार बताया। दक्षिण अफ़्रीका ने इसराइल पर युद्ध अपराधों और नरसंहार के आरोप लगाये,सऊदी प्रिंस सलमान ने सभी देशों से इसराइल को हथियारों की आपूर्ति रोकने की अपील की। वहीं ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने ब्रिक्स देशों से इसराइल सरकार और सैन्य बलों को आतंकवादी घोषित करने को कहा।
इस साल अगस्त में ब्रिक्स का विस्तार किया गया था। मिस्र,इथियोपिया,ईरान, सऊदी अरब,संयुक्त अरब अमीरात और अर्जेंटिना को समूह में स्थान दिया गया और ये सभी देश ये सभी देश आगामी जनवरी से ब्रिक्स के पूर्णकालिक सदस्य हो जाएंगे। ब्रिक्स के नये सदस्यों से चीन के मजबूत कूटनीतिक और आर्थिक रिश्तें है। 2016 में सही जिनपिंग ने सऊदी अरब,ईरान और मिस्र का दौरा किया था और उनके बीच कूटनीतिक समझौते भी हुए थे। मध्यपूर्व और इस्लामिक दुनिया की प्रभावी शक्ति सऊदी अरब और चीन के बीच सुरक्षा और तकनीक के क्षेत्र में भी सहयोग लगातार बढ़ रहा है। सऊदी अरब चीन को कच्चे तेल की सबसे अधिक सप्लाई कर रहा है तथा चीन की यह कोशिश है की सऊदी अरब व्यापार के लिए भुगतान की मुद्रा डॉलर की जगह चीनी करेंसी युआन हो। सऊदी अरब और यूएई ने चीन से सैन्य उपकरणों का सौदा किया है।
सऊदी अरब की कई दशकों से अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी रही है,जिससे अमेरिका के पूर्व और पश्चिमी एशिया में हितों का संवर्धन होता रहा है। सऊदी अरब और फ़ारस की खाड़ी के अन्य तेल उत्पादक देशों को तेल के बदले सुरक्षा देना इस क्षेत्र में अमेरिकी विदेश नीति का बुनियादी हिस्सा रहा है,लिहाज़ा काफी लंबे समय से सऊदी अरब की विदेश नीति पर अमेरिका की परछाईं रही है। अब सऊदी अरब चीन के साथ नई आर्थिक और सामरिक संबंध मजबूत कर रहा है
दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना भी चीन का बड़ा साझेदार है। चीन की मुद्रा युआन लातिन अमेरिका की अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है तथा चीन अपनी मुद्रा युआन को अमेरीकी डॉलर के विकल्प के तौर पर प्रमोट कर रहा है। अर्जेन्टीना सरकार ने इस वर्ष अप्रैल में लगातार घट रहे अपने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडार को देखते हुए चीन के साथ हो रहे अपने व्यापार में वो भुगतान डॉलर में नहीं बल्कि चीनी मुद्रा में करने का ऐलान किया था। अफ्रीका की सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था इथियोपिया को उम्मीद है कि ब्रिक्स में शामिल होने से उसके हित ज्यादा सुरक्षित रहेंगे। उसकी चीन पर आर्थिक रूप से पूरी तरह निर्भरता है।
इस्लामिक दुनिया के एक और महत्वपूर्ण देश मिस्र से भारत के मजबूत संबंध रहे है लेकिन अब वह भी विकास परियोजनाओं को लेकर चीन पर निर्भर हो गया है। मिस्र की सेना के पास दर्जनों कंपनियां हैं जो होटल,निर्माण,ऊर्जा,ग्रीनहाउस और मेडिकल उपकरणों जैसे क्षेत्रों में काम करती हैं। उसके चीन की सेना के साथ मजबूत संबंध स्थापित हुए है। चीन की कोशिशें इस्लामिक दुनिया में प्रभाव जमाने की है और वह इसमें सफल भी हो रहा है। 20 अरब देशों,अरब लीग और चीन के बीच बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट को मिलकर तैयार करने का समझौता भी किया जा चुका है। ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रकचर के क्षेत्र में चीन की 200 परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं।
कुछ दिनों पहले चीन में अरब देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई थी और अब उसके ठीक बाद दक्षिण अफ़्रीका की मेज़बानी में ब्रिक्स का ये सम्मेलन हुआ है। जाहिर है चीन ब्रिक्स को अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर इसका उपयोग अमेरिका पर दबाव डालने के लिए कर रहा है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार भारत का ब्रिक्स से किनारा करना महज संयोग नहीं बल्कि राजनीतिक मजबूरी भी हो सकती है. अंततः भारत पश्चिम विरोधी किसी भी गुट के साथ खड़ा होकर कूटनीतिक संकट नहीं बढ़ाना चाहता। 2021 में भारत, इसराइल,संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका के विदेश मंत्रियों की मुलाक़ात को मध्य-पूर्व में एक नए सामरिक और राजनीतिक ध्रुव के रूप में देखा गया था और इसे कूटनीतिक हलकों में इसे न्यू क्वॉड कहा गया था। वहीं इस साल सितम्बर में
जी 20 के शिखर सम्मेलन में चीन के बीआरआई के बेहतर विकल्प के रूप में भारत मिडिल ईस्ट यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर और भारत,यूरोपियन यूनियन,अमेरिका और सऊदी अरब के साथ मिलकर एक मेगा इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर पर सहमति बनी थी।
चीन सऊदी अरब और यूएई के साथ कूटनीतिक,आर्थिक और सामरिक साझेदारी बढ़ा रहा है,उससे ऐसे लगता है की वह अपनी वन बेल्ट वन परियोजना को प्रभावित करने वाली किसी भी शक्ति को प्रभावी न होने देगा। ब्रिक्स के बाद चीन की नजर अरब राष्ट्रों पर है तथा फ़िलहाल ड्रेगन अपनी चालबाजियों में सफल होता दिखाई दे रहा है। यह भारत की ग्लोबल साऊथ का नेतृत्व करने की आकांक्षाओं पर झटका है तथा अमेरिका की एशिया प्रशांत केन्द्रित नीति के लिए भी बड़ी चुनौती है।
https://navbharattimes.indiatimes.com/world/uae/brics-israel-gaza-conflict-know-why-pm-modi-opted-out-of-brics-plus-meet-on-israel-hamas-war-in-gaza/articleshow/105413438.cms
ब्रिक्स से दूर भारत
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