मजदूरों के मूल मुद्दों से दूर मजदूर यूनियनें  
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 मजदूरों के मूल मुद्दों से दूर मजदूर यूनियनें  

सुबह सवेरे

 

भारत की आज़ादी के आंदोलन में मराठी मानुष की पहचान बने और बाद में  देश के रेल मंत्री बने सदाशिव कानोजी पाटिल को मुम्बई का बेताज बादशाह कहा जाता था। लगातार चार बार सांसद चुने जाने वाले पाटिल से जब एक पत्रकार ने पूछा की क्या उन्हें कोई चुनाव में हरा सकता है। नेताजी  का जवाब था कि अगर भगवान भी आ जाएं तो मुझे हारा नहीं सकते। जब अगली सुबह नेताजी का न हारने का दावा मुम्बई के अख़बारों में छपा तो मुम्बई में ही काम करने वाले एक मजदूर नेता जार्ज फर्नाडीज ने महानगर में पोस्टर लगवाएं जिसमें जनता के लिए संदेश लिखा था कि,भगवान भी नहीं हरा सकते उनको। लेकिन आप हरा सकते हैं इस शख़्स को। बाद में पाटिल बंबई दक्षिण लोकसभा सीट से जॉर्ज जार्ज फर्नाडीज से बयालीस हज़ार वोटों से चुनाव हार गए।

सांसद बनने के बाद भी जार्ज फर्नाडीज के जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया। मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए वो हड़तालें ज़रूर करवाते थे लेकिन अगर हड़ताल तीन दिन से अधिक चल जाती थी तो वो ख़ुद खाना लेकर मज़दूरों की बस्ती में पहुंच जाते थे। यह भी दिलचस्प है कि सांसद और देश के रक्षामंत्री बनने के बाद भी जार्ज फर्नाडीज का रहन सहन आम मजदूर जैसा ही बना रहा। अपनी ज़िंदगी में उन्होंने न तो कभी कंघा खरीदा और न ही इस्तेमाल किया। अपने कपड़े वो ख़ुद धोते थे। उन पर इस्त्री ज़रूर कराते थे लेकिन उन्हें नेताओं जैसे सफ़ेद कलफ़ लगे कपड़े पहनना बिल्कुल पसंद नहीं था।

छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी की भिलाई में आदमकद प्रतिमा के सामने जाकर सिर झुकाते कई मजदूर मिल जायेंगे। नियोगी जी ने संघर्ष और निर्माण का नारा देकर हजारों मजदूरों के परिवारों का जीवन बदल दिया था। इस जुझारू मज़दूर नेता की 1991 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।  उन्हें छत्तीसगढ़ के लौह अयस्क खनिकों और अन्य श्रमिकों द्वारा भगवान माना जाता था।  नियोगी का संघर्ष मजदूरों के हितों के लिए इतना व्यापक था कि समाज का शायद ही कोई तबका उससे लाभान्वित न होता हो। वे ट्रेड यूनियन संघर्षों को किसान संघर्षों जैसे व्यापक मुद्दों से जोड़ते थे। सामाजिक सुधार,पर्यावरण संरक्षण,शराब बंदी,शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दें उठाकर वे  लोकतांत्रिक परिवर्तन के लिए भी तैयार रहते थे। बंगाल के जलपाईगुड़ी से भिलाई मजदूरी करने आये  इस शख्स ने इस्पात श्रमिकों के संघर्षों में शामिल होकर गांवों की पैदल यात्रा की। स्टील प्लांट में नियमित श्रमिकों की तुलना में जो श्रमिक सबसे अधिक पीड़ित थे,वे ज्यादातर स्थानीय ग्रामीण श्रमिक थे  और  लौह अयस्क खनन के लिए अनुबंध प्रणाली के तहत कार्यरत थे। नियोगी ने छत्तीसगढ़ में देश के सबसे सफल शराब विरोधी प्रयासों में से एक की शुरुआत की।  यह न केवल एक मामूली गतिविधि के रूप में शुरू किया गया था,बल्कि इसे इतना महत्व दिया गया था कि श्रमिकों ने शराब छोड़ने को अपनी यूनियन के लिए सम्मान की बात माना। इसमें मजदूरों के परिवार भी शामिल थे,इसलिए  महिलाओं और बच्चों ने घर में ही शराबबंदी कर दी।  मजदूर परिवारों के लिए अस्पतालों और  शिक्षा संस्थाओं की स्थापना का उनका प्रयास अभूतपूर्व प्रभाव उत्पन्न करने में सफल रहा. इससे यह सुनिश्चित भी हुआ कि यह जरूरी नहीं की मजदूर का बच्चा भी मजदूर ही रह जायें।

देश के आज़ादी के आंदोलन में भी मजदूर यूनियनों का बड़ा योगदान रहा है। बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग का आंदोलन मज़बूत हुआ और वर्ष 1930 के बाद से आंदोलन में एक वैचारिक स्वर जुड़ गया था। स्वतंत्रता के बाद की अवधि में भारतीय मज़दूर संघ और भारतीय ट्रेड यूनियनों के केंद्र जैसे कई ट्रेड यूनियनों का गठन हुआ। आज़ादी के बाद लंबे समय तक मजदूर यूनियनें मजदूरों की भलाई के लिए गैर राजनीतिक ढंग से काम करती रही। इसका प्रभाव यह हुआ कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 और श्रम संबंध विधेयक और ट्रेड यूनियन बिल 1949 जैसे बिल संसद में पेश किये गए। मजदूर यूनियन के मजबूत रहने से करोड़ों मजदूरों के हितों की व्यापक रक्षा करने के  लिए सरकारें प्रतिबद्ध बनी रही।

लेकिन 1990 के दशक में उदारीकरण,निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत से सब बदल गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आकर्षित करने के लिए उदार नियम बना दिए गए और इसके बाद पूंजीवादी ताकतें भी मजबूत होने लगी। यहीं से पूंजी की तुलना में श्रमिकों की सौदेबाज़ी की स्थिति प्रारम्भ हुई। कथित तौर पर ठेकेदारी प्रथा व्यवस्था पर हावी हुई और मजदूरों के हित दम तोड़ने लगे। नियोक्ताओं को भाड़े और नौकरी से निकालने का पूरा अधिकार मिलने का असर श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले ट्रेड यूनियनों पर पड़ा और मजदूर नेता पूंजीवादी प्रभाव के जाल में उलझा दिए गए। बदलते  दौर में देश में ट्रेड यूनियनें तो है लेकिन वे  मज़दूर वर्ग की समस्याओं के प्रति उत्तरदायी नहीं रही हैं। सियासी फायदों के लिए इस्तेमाल होने से संगठन खंडित हो गए है। उनके बीच कटु प्रतिद्वंद्विता पैदा हुई है और इसलिये वे मज़दूर वर्ग के मुद्दों का जवाब देने में कई बार विफल रहे है।

यह भी दुर्भाग्य ही है कि मजदूरों की तादाद सबसे अधिक होने के बाद भी उनमें राजनीतिक चेतना का अभाव है और इसीलिए देश के करोड़ों लोग गरीबी के दलदल से बाहर निकलने में असफल रहे है. इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता की संगठित क्षेत्र में ट्रेड यूनियनों ने सामाजिक रूप से उत्पीड़ित समूहों से संबंधित महिला श्रमिकों और अन्य श्रमिकों की समस्याओं की लगातार अनदेखी की है। यहीं कारण है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में बेरोज़गारी दर लगातार बढ़ रही है। सरकारी स्कीम के तहत काम करने वाले करोड़ों मज़दूरों को अब तक बकाया पैसा नहीं मिला है,जिससे उनकी हालत बहुत ख़राब है।

एक अनुमान के मुताबिक देश में 5 से 4 साल की उम्र के बच्चों में से 4 फीसदी मज़दूरी करने को मजबूर है। जबकि देश में बाल मजदूरी पर सख्त मनाही है। विश्व असमानता रिपोर्ट की मानें तो भारत में श्रम से होने वाली कुल कमाई का सिर्फ 18  फीसदी हिस्सा ही महिलाओं के हाथ आता है। आबादी और परिवार चलाने की जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए यह स्थिति बेहद भयावह है।

देश के कुल श्रमिकों में से तकरीबन 80 प्रतिशत कामगार असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। संगठित क्षेत्रों में भी कई अनियमित श्रमिक काम करते हैं। उनकी संख्या भी अगर जोड़ दी जाए तो देश में कुल असंगठित कामगारों की तादात 90  फीसदी या करीब 45 करोड़ तक पहुंच जाती है। अल सुबह गांव,कस्बों और शहरों में मजदूरी तलाशती भीड़  किसी भी चौराहे पर मिल जाएगी। उनके लिए न्यूनतम वेतन जैसी सामाजिक सुरक्षा के हक पाना  बहुत मुश्किल है और वे रोटी की तलाश में जो मिला उसी में खुश हो जाते है। देश में करोड़ों शहरी असंगठित मज़दूर और ग्रामीण खेत मज़दूर है जो किसी भी कानून के दायरे में नहीं आते। बापू कहते थे कि जो किसान होता है,वह मजदूर न हो,यह संभव ही नहीं है। किसानी-खेती ऐसा उद्यम है जो किसान की मज़दूरी के बिना संभव ही नहीं है। बापू आज़ादी के आंदोलन में एक भारतीय किसान-मज़दूर की वेश-भूषा में तथा उनकी ही तरह रेलगाड़ी के तीसरे दर्ज में बैठकर यात्रा करते थे। खेल खलिहानों में जाते थे तथा अपना काम स्वयं करते थे।

भारत में मजदूर कम नहीं हुए बल्कि उनकी संख्या में वृद्धि ही हुई है। अब मजदूरों के अधिकारों से ज्यादा मजदूरों की उपलब्धता प्राथमिकता बन गई है। ऐसे में मजदूरी का भुगतान,मजदूरी से कटौतियां,कार्य के घंटे,विश्राम अंतराल, साप्ताहिक अवकाश,सवेतन छुट्टी,कार्य की भौतिक दशायें,स्थायी आदेश,नियोजन की शर्ते,बोनस,कर्मकार क्षतिपूर्ति,प्रसूति हितलाभ एवं कल्याण निधि  जैसे श्रम विधान बहुत पीछे छुट गए है। सियासी और आर्थिक फायदों के फेर में यूनियनें और आंदोलन खंडित हो गए है और उन्होंने अपनी ताकत खो दी है। इसका खामियाजा आम मजदूर भोग रहा है। उसे अपना अधिकार कैसे और किससे मिले,यह सोचने का उसके पास न तो समय है और न ही आशा की कोई किरण नजर आती है। जाहिर है अब न तो कोई जार्ज फर्नाडीज जैसा मजदूर नेता उनके बीच है और न ही कोई नियोगी बनकर मजदूरों के हितों के लिए लड़ना चाहता है। ईट –भट्टे पर काम करती या सड़क किनारें अपने दूध मुंहे बच्चें को रखकर गड्डे खोदने वाली महिला या उसका बच्चा यदि काल का शिकार हो जाए तो उसके श्रम अधिकार कैसे मिलेंगे और उन्हें कौन संस्थान देगा,यह बड़ा सवाल सामने खड़ा है।

#ब्रह्मदीप अलूने

#brahmadeep alune

 

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