मप्र में दक्षिण भारतीय भाषाओं में शिक्षा 
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मप्र में दक्षिण भारतीय भाषाओं में शिक्षा 

राष्ट्रीय सहारा 

  मध्य प्रदेश सरकार ने उच्च शिक्षा नीति में एक बड़ा बदलाव करते हुए कई दक्षिण भारतीय भाषाओं को राज्य शिक्षा की मुख्य धारा में शामिल कर बेहद सकारात्मक संदेश दिया है। अब राज्य के कॉलेजों में हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत और उर्दू के अलावा,बंगाली,मराठी,तेलुगु,तमिल,गुजराती और पंजाबी जैसी भारतीय भाषाओं में भी शिक्षा दी जाएगी। इस पहल के तहत, छात्रों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलेगा,जिससे उनकी भाषाई क्षमता और सांस्कृतिक जुड़ाव में वृद्धि होगी। त्रिभाषा फार्मूले के बाद कई दशकों  से होने वाली भाषाई राजनीति के इससे थमने के आसार बढ़ गए है। मध्यप्रदेश का यह कदम देश में भाषावाद की  राजनीति को खत्म करने वाला और राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो सकता है।

दरअसल करीब छह दशक पहले भारत में त्रिभाषा फार्मूले को इसलिए प्रस्तावित किया गया था जिससे   कि विविधता वाले विशाल भारत देश में बहुभाषावाद और राष्ट्रीय सद्भाव को बढ़ावा मिले तथा इसे देश कि एकता और अखंडता को मजबूती मिल सके। कोठारी आयोग ने इसकी सिफारिश 1960 के दशक में लागू   कर दी थी। यह फार्मूला भारतीय भाषाओं के समृद्धि और विविधता को बनाए रखते हुए,छात्रों को विभिन्न भाषाओं के ज्ञान के माध्यम से एकता,संस्कृतिऔर राष्ट्रीय एकता का संदेश देने  वाला  बताया   गया  था।

त्रिभाषा फार्मूला का उद्देश्य भारतीय शिक्षा व्यवस्था में भाषाई विविधता को प्रोत्साहित करना और एकता बनाए रखना था,लेकिन इसके कई पहलुओं पर सही तरीके से अमल नहीं किया गया है। उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में,खासकर हिंदी भाषी राज्यों में,दक्षिण भारतीय भाषाओं के महत्व को ठीक से समझने या स्वीकार करने में कुछ हद तक उपेक्षापूर्ण रवैया देखा गया। इसका असर त्रिभाषा फार्मूला और भाषाई समानता के मुद्दे पर भी पड़ा। आमतौर पर  हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह महसूस किया जाता है कि हिंदी के अलावा अन्य  भाषाएं  जैसे तमिल,तेलुगु,कन्नड़ या   मलयालम उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं,जिससे दक्षिण भारत के लोगों को अपमान का अहसास होता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं के महत्व को नकारने  को दक्षिण भारत में भाषाई श्रेष्ठता और सांस्कृतिक असंवेदनशीलता  की तरह लिया गया और बाद में दक्षिण भारत की राजनीति में इसे हिन्दी विरोध के रूप में प्रचारित किया गया। इससे देश में भाषा और पहचान को लेकर उत्तर भारत और दक्षिण भारत में एक लकीर खींच गई। वास्तव में इस समय राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा थी कि वे भाषा और पहचान के बीच के संबंधों को बेहतर तरीके से लोगों को समझाएं तथा एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाकर राष्ट्रीय एकता को मजबूती दें। लेकिन ऐसा हो न सका।

इस कारण त्रिभाषा सूत्र को लागू करने में भारी समस्याएं सामने आ गई।  तमिलनाडु,पुडुचेरीऔर त्रिपुरा जैसे राज्य अपने स्कूलों में हिन्दी सिखाने के लिए तैयार नहीं  हुए। वहीं किसी भी हिन्दी भाषी राज्य ने अपने स्कूलों के पाठ्यक्रम में किसी भी दक्षिण भारतीय भाषा को शामिल नहीं किया।  उत्तर भारतीय दृष्टिकोण से दक्षिण भारत की भाषाओं को पूरी तरह से महत्व नहीं दिया जाता, और यह धारणा बनती है कि ये भाषाएं  हिंदी के मुकाबले कम महत्वपूर्ण हैं।उत्तर भारत में हिंदी का प्रभुत्व इतना गहरा है कि कई लोग इसे राष्ट्रीय एकता और पहचान का प्रतीक मानते हैं। इस मानसिकता में दक्षिण भारत की भाषाओं को शामिल करने की बजाय हिंदी को ही देश की एकमात्र प्रमुख भाषा माना जाता है। 1960 के दशक में जब दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ विरोध हो रहा था, तो उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में इसे राष्ट्र के खिलाफ आंदोलन की तरह समझा गया था। उत्तर भारतीयों को यह महसूस नहीं हुआ कि यह केवल एक भाषा का सवाल नहीं था,बल्कि यह एक सांस्कृतिक और पहचान का मुद्दा था। इस असंवेदनशीलता ने दक्षिण भारत के लोगों को यह आभास कराया कि उत्तर भारत उनकी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की कद्र नहीं करता।

भारत में भाषावाद एक जटिल और संवेदनशील समस्या रही है,जो देश की विविधता और एकता दोनों को प्रभावित करती है। यह मुख्यतः भाषा के आधार पर पहचान,संसाधनों की वितरण, और राजनीतिक शक्ति के संघर्ष से संबंधित है। भारत में भाषा सांस्कृतिक पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा है और  अपनी भाषा की रक्षा के लिए संघर्ष अक्सर भाषावाद का रूप ले लेता है। इस समय तमिलनाडु की एम के स्टालिन के नेतृत्व वाली डीएमके सरकार और केंद्र सरकार एक बार फिर हिंदी को लेकर आमने-सामने है।तमिलनाडु सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को राज्य में लागू नहीं किया हैऔर इसका कारण ये बताया है कि यह नीति हिंदी को राज्य में थोपने की कोशिश है।राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में प्रस्तावित त्रि-भाषा सूत्रको तमिलनाडु समेत अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों ने खारिज कर दिया है और यह आरोप लगाया है कि त्रि-भाषा सूत्रके माध्यम से सरकार शिक्षा का संस्कृतिकरण करने का प्रयास कर रही है।

नई शिक्षा नीति सतत विकास के लिये एजेंडा 2030के अनुकूल है और इसका उद्देश्य 21वीं शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुकूल स्कूल और कॉलेज की शिक्षा को अधिक समग्र,लचीला बनाते हुए भारत को एक ज्ञान आधारित जीवंत समाज और वैश्विक महाशक्ति में बदलकर प्रत्येक छात्र में निहित अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिये त्रि-भाषा सूत्रपर बल देने का निर्णय लिया गया। इस नीति ने संपूर्ण भारत में त्रि-भाषा सूत्र की उपयुक्तता पर बहस को फिर से प्रारंभ कर दिया है।

मध्यप्रदेश ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति  को देश में सबसे  पहले  अपनाया और अब  दक्षिण भारत की भाषाओं को राज्य के शिक्षा संस्थानों में पढ़ाने का निर्णय भी लिया है। ऐसा  कर मध्यप्रदेश ने  न केवल उत्तर भारत के कई राज्यों को भाषाई और सांस्कृतिक संवेदनशीलता को समझाने की कोशिश की है बल्कि देश के क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों को यह नसीहत भी दी है कि राज्यों की नीतियां देश में एकरूपता लाने के लिए होनी चाहिए और भाषा को लेकर सबके साझा प्रयासों  की जरूरत है।

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