पॉलिटिक्स
माओवादी शंकरराव बस्तर डिविजन का मिलेट्री इंचार्ज था। सुरक्षा दस्तों ने उसे कांकेर के जंगलों में खत्म कर माओवादियों को बड़ा झटका दिया है और इस समय छत्तीसगढ़ के बस्तर से लेकर महाराष्ट्र के गढ़चिरोली तक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ है। रायपुर से जगदलपुर जाते हुए रास्ते में कांकेर जिला आता है। घने जंगल और दूर दूर तक सन्नाटा। बड़ी और खड़ी पहाड़ियों से भरा हुआ यह इलाका गढ़चिरोली और अबूझमाड़ के जंगलों को छूता है। अबूझमाड़ छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के नारायणपुर जिले में स्थित है। इसका कुछ हिस्सा महाराष्ट्र तथा कुछ आंध्र प्रदेश में पड़ता है। छत्तीसगढ़ का अबूझमाड़ संसार के सबसे रहस्यमय स्थानों में से एक है। करीब 4400 वर्ग किलोमीटर में फैले अबूझमाड़ के जंगलों, पहाड़ों, गहरी घाटियों के बीच आदिवासियों का प्रकृति के करीब बेहद खूबसूरत जीवन और वन्य प्राणियों की उन्मुक्तता दिखाई पड़ती है तो इसका फायदा माओवादी भी खूब उठाते रहे है। उन्होंने भोलेभाले आदिवासियों को गुमराह कर कई वर्षों तक इस अबूझ इलाकें में अपनी समांतर सरकारें चलाने में सफलता हासिल की है।
लेकिन अब इन इलाकों का नजारा बदल रहा है और इसके पीछे असल भूमिका मोबाइल टावरों की है जो सैन्य बलों की कड़ी सुरक्षा में नक्सलियों का काल बन गये है। बीते 16 अप्रैल को कांकेर ज़िला मुख्यालय से क़रीब 160 किलोमीटर दूर आपाटोला कलपर जंगल के क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में 29 माओवादी मारे गए थे। कुछ वर्षों पहले भोलेभाले गरीब आदिवासियों को भ्रमित कर अपना सूचना तन्त्र मजबूत रखने वाले माओवादी सुरक्षा दस्तों को बड़ा नुकसान पहुंचाते थे। अब पढ़े लिखे आदिवासी युवा नक्सलियों के भ्रम जाल से निकलकर सेना और पुलिस पर ज्यादा भरोसा करने लगे है। यह भी दिलचस्प है की कांकेर में हुई मुठभेड़ पर माओवादी यह सवाल उठा रहे है की इतने माओवादी मारे गए तो किसी सुरक्षा बल के जवान को कैसे कोई खरोंच भी नहीं आई। जाहिर है किसी दौर में मजबूत सूचना तंत्र के बूते माओवादी बिना किसी क्षति के सुरक्षाबलों को घेर कर बड़ी संख्या में निशाना बनाने में सफल हो जाते थे लेकिन अब सीआरपीएफ और अन्य सैन्य बलों की छापामार रणनीति माओवादियों पर भारी पड़ रही है। छत्तीसगढ़ में तैनात कई दस्तें पूर्वोत्तर में गुरिल्ला युद्ध का विशेष प्रशिक्षण लेने के बाद यहां तैनात किये गए है।
कांकेर में 26 अप्रैल को मतदान होना है। माओवादियों ने अपने साथियों के मारे जाने के बाद दबाव डालने के लिए पहले चुनाव बहिष्कार करने की अपील की और चुनाव से ठीक एक दिन पहले बंद का ऐलान कर दिया। माओवादियों के बंद को सफल बनाने के लिए नारायणपुर,कांकेर और मोहला मानपुर पर खास फोकस किया है। यह तीनों जिले घोर नक्सल प्रभावित माने जाते है। मोहला मानपुर छत्तीसगढ़ का नया जिला है जो राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। रेड कॉरिडोर के खतरनाक इलाकों में शुमार यह जिला गढ़चिरोली को छूता है। यह रायपुर से लगभग 150 किमी दूर है। यह क्षेत्र आदिवासी संस्कृति,हरी भरी पहाड़ियों,लौह अयस्क और चूना पत्थर के भंडार के लिए जाना जाता है। 12 जुलाई 2009 को इसी स्थान पर नक्सलियों ने एक साथ 29 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी थी। तत्कालीन राजनांदगांव जिले के कोरकोट्टी मदनवाड़ा इलाके में बड़ा नक्सल हमला हुआ था। एसपी वीके चौबे भी इस घटना में शहीद हुए थे। नक्सलियों ने बहुत चालाकी से इस निर्मम हत्याकांड को अंजाम दिया था। पूरे इलाके को 350 से ज्यादा नक्सलियों ने घेर रखा था। इस हमले को नक्सलियों ने ऑपरेशन विजय नाम दिया था। पुलिसवालों को गोली लगने पर नक्सली हो हो का शोर कर खुशियां मना रहे थे और इस पूरी घटना का वीडियो भी बना रहे थे। अभी भी यह इलाका बेहद पिछड़ा हुआ है और नक्सली यहां पर प्रभावशील है। वहीं जिस दूसरे जिले पर नक्सलियों की नजर है वह नारायणपुर
जिला कोंडागाँव,अंतगढ़ और छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले से घिरा हुआ है। घने जंगल,पहाड़,नदियों,झरने और प्राकृतिक गुफाओं से घिरे इस जिले में नक्सली सुरक्षाबलों पर हमलें करते रहे है। रेड कॉरिडोर का हिस्सा होने की वजह से यहां अक्सर नक्सली गतिविधियां होती ही रहती हैं। नारायणपुर में नक्सली प्रभाव ज्यादा होने का यहां के विकास पर भी खासा असर पड़ा है। यहां के कई इलाके ऐसे हैं जहां आज भी सड़क,बिजली,पानी,शिक्षा,रोजगार,स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ आम जनता तक पहुंच नहीं पाया है।छत्तीसगढ़ में पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों ने न केवल सुरक्षा की दृष्टि से बल्कि स्कूल,सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं की बहाली के लिए भी अभूतपूर्व प्रयास किये है। यहीं कारण है की माओवादियों के सबसे बड़े दुश्मन पुलिस और अर्द्धसैनिक बल ही माने जाते है। माओवादियों की कमर तोड़ने में बड़ी भूमिका छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी युवक और युवतियां निभा रहे है जो वन्य क्षेत्रों की जटिलता से अच्छे तरीके से परिचित होते है। ग्रामीण आदिवासियों से स्थानीय भाषा में संवाद करने में माहिर होते है और डीआरजी तथा बस्तर फाइटर्स का भाग बनकर माओवादियों से गुरिल्ला तरीके से लड़ने में सक्षम भी होते है।
माओवादी चुनावों को बाधित करने की कोशिशें कर अपना आखरी किला बचाने की खूब कोशिशें कर रहे है,लेकिन उन्हें नाकामी मिलना तय है। आखिर रेड कॉरिडोर के बाशिंदे भी यह समझ गये है की सामाजिक न्याय हासिल करने का सबसे बड़ा माध्यम लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को बाधित करने वाले आमजन के हमदर्द कभी नहीं हो सकते।
माओवादियों का आखरी दांव
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