मैक मोहन रेखा तय करेगी चीन से संबंधों का भविष्य
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मैक मोहन रेखा तय करेगी चीन से संबंधों का भविष्य

      राष्ट्रीय सहारा,हस्तक्षेप 

 अक्टूबर 1913 से जुलाई 1914 के बीच शिमला में आयोजित एक सम्मेलन ने ब्रिटिश जनरल सर हेनरी मैकमोहन के नेतृत्व में तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच एक सीमा तैयार की। सीमा में असम शामिल है जो पूर्वी भूटान का एक पार्श्व भाग है जो हिमालय की चोटियों के साथ लगभग 890 किमी तक चलता है। यह ब्रह्मपुत्र नदी तक  पहुंचता है जहां यह आंग्सी ग्लेशियर या मानसरोवर के तिब्बती ग्लेशियर में अपने उद्गम के बाद असमिया घाटी तक पहुंचता है।  

 

दरअसल मैक मोहन रेखा भारत और चीन के बीच की सीमा का एक महत्वपूर्ण आधार है,जिसे 1914 में ब्रिटिश भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों द्वारा तय किया गया था। भारत-चीन के संबंधों में इस रेखा का विवाद एक अहम भूमिका निभाता है। मैक मोहन रेखा पर आधारित विवाद ने भारत और चीन के रिश्तों को कई दशकों से प्रभावित किया है। 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद से यह विवाद और भी गहरा हो गया था। दोनों देशों ने विभिन्न कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश की है लेकिन इस सीमा विवाद का समाधान अभी तक नहीं निकला है। सुमदोरोंग चू घाटी दुनिया की सबसे ऊंची घाटियों में से एक मानी जाती है जो ऊपरी हिमालय की चोटी पर मौजूद है। इसे मैकमोहन रेखा घाटी की सबसे ऊंची चोटी वाली घाटी भी माना जाता है। यहां 1990 के दशक में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने एक निगरानी स्थल स्थापित किया था। चीन भारत  के दावों को और किसी भी सामरिक बढ़त को बदलने के लिए आतुर रहता है और मैकमोहन रेखा की स्थितियां उसने बल पूर्वक बदली भी है।  

 

1937 में सर्वे ऑफ इंडिया के एक मानचित्र में मैकमोहन रेखा को आधिकारिक भारतीय सीमारेखा के रूप में पर दिखाया गया था। भारत अपने पक्ष पर कायम है।  भारत का पक्ष यह है कि मैक मोहन रेखा एक वैध और स्थिर सीमा रेखा है जो 1914 में तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच तय की गई थी। भारत अरुणाचल प्रदेश को अपनी संप्रभु भूमि मानता है और चीन के इस क्षेत्र पर किसी भी तरह के दावे को पूरी तरह से नकारता है। मैक मोहन रेखा पर चीन का पक्ष भारत के दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत है। चीन ने इस रेखा को कभी स्वीकार नहीं किया और इसे अवैध माना है। चीन का दावा है कि मैक मोहन रेखा 1914 के शिमला समझौते के दौरान तिब्बत और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों द्वारा तय की गई सीमा के रूप में वैध नहीं माना जा सकता। चीन के अनुसार,तिब्बत ऐतिहासिक रूप से चीन का हिस्सा था और शिमला समझौता तब प्रभावी नहीं था,क्योंकि तिब्बत चीन के कब्जे में नहीं था और तिब्बत का प्रतिनिधित्व उस समय चीन द्वारा नहीं किया गया था। भारत का कहना है कि तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच यह सीमा समझौते के आधार पर तय की गई थी और चीन को इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि तिब्बत एक स्वतंत्र राज्य था और समझौता तिब्बत के प्रतिनिधियों द्वारा अनुमोदित किया गया था।

मैक मोहन रेखा से तय क्षेत्रों को लेकर चीन के दावे भारत को असहज करते है। चीन का प्रमुख दावा अरुणाचल प्रदेश पर है,जिसे वह दक्षिण तिब्बत का हिस्सा मानता है। चीन के अनुसार यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से तिब्बत के अंतर्गत था और इस क्षेत्र पर चीन का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अधिकार है। चीन का यह तर्क है कि तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच तय की गई सीमा अवैध थी, क्योंकि वह चीन की संप्रभुता के खिलाफ थी। चीन का कहना है कि शिमला समझौते के दौरान ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच जो सीमा तय की गई, वह चीन के अधिकारों का उल्लंघन करती थी। चीन ने तिब्बत के शिमला समझौते में हस्ताक्षर करने को वैध नहीं माना,क्योंकि तिब्बत को एक स्वतंत्र राज्य मानते हुए वह समझौता किया गया था,जबकि चीन उस समय तिब्बत को अपनी संप्रभुता में मानता था। चीन ने मैक मोहन रेखा को नकारते हुए इसे एक साम्राज्यवादी निर्णय करार दिया है। चीन का मानना है कि इस रेखा का निर्माण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के तहत हुआ था और यह चीन की संप्रभुता के खिलाफ था। चीन का तर्क है कि यह रेखा उस समय की ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों का हिस्सा थी और ब्रिटिश अधिकारियों ने अपनी साम्राज्यवादी योजनाओं के तहत तिब्बत के भूमि अधिकारों को दरकिनार किया। भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध का कारण भी यह सीमा विवाद था। चीन ने उस समय अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे को लेकर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की थी और यह दावा अब भी जारी है। युद्ध के बाद, चीन ने अरुणाचल प्रदेश के क्षेत्र में अपनी संप्रभुता पर सवाल उठाया और मैक मोहन रेखा को अस्वीकार कर दिया।

 

वहीं भारत के अनुसार,मैक मोहन रेखा पर आधारित सीमा पूरी तरह से वैध और स्थिर है। यह रेखा 1914 में तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच तय की गई थी और तिब्बत ने इसे मान्यता दी थी। भारत का कहना है कि जब 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया,उस समय भी यह  समझौता और रेखा तब वैध थी क्योंकि यह तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच तय की गई सीमा थी,न कि चीन और भारत के बीच। भारत का कहना है कि वह अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है और कोई भी विदेशी शक्ति या देश इस संप्रभुता पर दखल नहीं डाल सकता। अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को भारतीय नागरिकता प्राप्त है और इस क्षेत्र में भारतीय शासन और प्रशासन पूरी तरह से स्थापित है।

 

अरुणाचल प्रदेश को न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक स्वतंत्र राज्य के रूप में माना जाता है। संयुक्त राष्ट्र,अन्य देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कभी भी चीन के इस दावे को स्वीकार नहीं किया है। भारत इस क्षेत्र में पूरी तरह से प्रशासनिक नियंत्रण रखता है और यह भारत की संप्रभुता का हिस्सा है। चीन का दावेदार क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश अंतरराष्ट्रीय कानूनों और सिद्धांतों का उल्लंघन है। 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद से अरुणाचल प्रदेश एक भारतीय राज्य के रूप में अस्तित्व में रहा है। चीन के द्वारा अपने दावों को लागू करने के लिए बल का प्रयोग करना या सैन्य आक्रमण करना अंतरराष्ट्रीय समझौतों और मानवाधिकारों के खिलाफ है। हालांकि भारत और चीन के बीच कई कूटनीतिक संवाद और बातचीत हुई हैं लेकिन चीन का दावा अब भी अवैध और निराधार है। भारत ने कई बार कहा है कि यह विवाद केवल द्विपक्षीय वार्ता से हल किया जा सकता है लेकिन यह समाधान भारत की संप्रभुता की रक्षा और अरुणाचल प्रदेश के क्षेत्रीय अखंडता के तहत ही हो सकता है।

चीन का दावा अरुणाचल प्रदेश पर गलत है क्योंकि यह ऐतिहासिक,कानूनी और कूटनीतिक दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग है। भारत के लिए अरुणाचल प्रदेश अपनी संप्रभुता का एक अभिन्न हिस्सा है और इसे किसी भी विदेशी देश द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती। जब मैक मोहन रेखा बनी तब तिब्बत एक स्वतंत्र राज्य था और उसे भारत के साथ सीमा समझौते पर हस्ताक्षर करने का अधिकार था। चीन के आधिकारिक मानचित्रों में मैक मोहन रेखा के दक्षिण में 56 हजार वर्ग मील के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है। इस क्षेत्र को चीन में दक्षिणी तिब्बत के नाम से जाना जाता है।

 

चीन कम्युनिस्ट क्रांति से पहले हस्ताक्षरित लगभग हर संधि को खारिज करता है। 1949 में चीन की साम्यवादी क्रांति के बाद उसकी विदेश नीति में कई महत्वपूर्ण बदलाव आए। माओ जेडोंग के नेतृत्व में चीन की विदेश नीति को विभिन्न समयों में विभिन्न दृष्टिकोणों और रणनीतियों के तहत आकार दिया गया। चीन ने अपनी साम्यवादी क्रांति के बाद उन सभी संधियों और समझौतों को रद्द कर दिया,जिन्हें ब्रिटेन,फ्रांस और जापान ने 19वीं और 20वीं सदी के आरंभ में चीन  के साथ किया था। चीन की साम्यवादी सरकार ने सत्ता संभालतें ही इन सभी संधियों को अवैध और चीन की संप्रभुता का उल्लंघन मानते हुए उन्हें खारिज कर दिया। माओ जेडोंग और उनके सहयोगियों ने चीन की ऐतिहासिक सीमाओं को चीन की असल सीमा बताकर उस दिशा में आक्रामक नीतियां लागू कर कई देशो की संप्रभुता को चुनौती दी।  इसने तिब्बत, शिंजियांग,ताइवान,हांगकांग और मकाओ जैसे क्षेत्रों को अपने हिस्से के रूप में माना और वैश्विक स्तर पर अपनी संप्रभुता की पुनर्स्थापना के लिए कई कदम उठाए। चीन की यह नीति आज भी उसकी कूटनीतिक और आंतरिक राजनीति का अहम हिस्सा है,जो क्षेत्रीय और वैश्विक विवादों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

 

चीन के साथ भारत के रिश्तों का भविष्य इस पर निर्भर करेगा की दोनों देश  सीमा विवाद को किस प्रकार सुलझाते हैं और सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाते हैं। मैक मोहन रेखा पर भारत का पक्ष ही समाधान हो सकता है  और यहीं दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले दो महान राष्ट्रों के बीच रिश्तों का भविष्य को तय करने वाला एक मुख्य कारक भी है।

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