रोड़ और कॉरिडोर में टकराव
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रोड़ और कॉरिडोर में टकराव

हस्तक्षेप,राष्ट्रीय सहारा

           

करीब एक दशक पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब एशिया प्रशांत नीति की घोषणा की थी तो आशंकित चीन की दुविधा दूर करने अमेरिकी रक्षामंत्री पनेटा बीजिंग की यात्रा की थी। इस दौरान उन्होंने चीन की सशस्त्र सेना के इंजीनियरिंग अकादमी के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था की एशिया प्रशांत क्षेत्र में संतुलन की दोबारा कोशिश का मतलब चीन को रोकना नहीं है। यह चीन को इसमें शामिल करने और प्रशांत क्षेत्र में उसकी भूमिका बढ़ाने की कोशिश है। पनेटा  ने इसे प्रशांत क्षेत्र की दो ताकतों के बीच रिश्तों का एक नया मॉडल बनाने की कोशिश बताया था। हालांकि इसके कुछ समय बाद ही चीन ने वन बेल्ट और वन रोड़ परियोजना की बुनियाद रख दी थी। दुनिया को जोड़ने के इस चीनी दुःस्वप्न के पीछे उसकी आर्थिक और सैन्य रणनीति को समझने मे न तो भारत ने देर की और न ही अमेरिका ने।  इसके साथ चीन और अमेरिका के सहयोगियों में प्रतिद्वंदीता का नया दौर शुरू हुई,जिसका  प्रभाव क्वाड,शंघाई सहयोग संगठन,ब्रिक्स और जी 20 पर भी नजर आता है।

दरअसल नईदिल्ली मे आयोजित जी 20 के शिखर सम्मेलन में जिस इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर की योजना  प्रस्तुत की गई है,वह चीन के प्रभाव को रोकने और उसे सीमित करने की कोशिश नजर आता है। इस प्रोजेक्ट में भारत,यूएई,सऊदी अरब,यूरोपियन यूनियन, फ्रांस,इटली,जर्मनी और अमेरिका शामिल हैं। इस इकोनॉमिक कॉरिडोर के जरिए एशिया से लेकर मिडिल ईस्ट और यूरोप तक व्यापार किया जाएगा। यह कॉरिडोर चीन की वन बेल्ट वन रोड़ का जवाब माना जा रहा है। चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना उसकी प्राचीन सिल्क मार्ग की अवधारणा पर आधारित है और वह इसे प्रतिबद्धता से पुनः विकसित कर रहा है। चीन इस परियोजना के तहत सड़कों,रेल मार्गों, बंदरगाहों,पाइपलाइनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं के माध्यम से मध्य एशिया से लेकर यूरोप और अफ्रीका तक कनेक्टिविटी तैयार कर रहा है। 2013 में चीनी सरकार द्वारा अपनाई गई एक वैश्विक बुनियादी ढांचा विकास रणनीति है और इसका जाल कई देशों में फ़ाइल चूका है। ओबीओआर का प्रमुख उद्देश्य ढांचागत अंतर को कम करना और एशिया प्रशांत क्षेत्र,अफ्रीका और पूर्वी यूरोप में संभावित आर्थिक विकास को गति देना है। जिनपिंग इसे दुनिया को जोड़ने का नाम देते है और दावा करते है की 2049 तक यह परियोजना पूरी हो जाएगी।  अमेरिका चीन की इस परियोजना से आशंकित रहा है और उसे लगता है की विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका की यथास्थिति का मुकाबला करने के लिए चीन ओबीओआर का उपयोग कर सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका भी इस परियोजना को अपने सामरिक हितों के अनुरुप नहीं मानता है। वहीं भारत का दावा है की चीन द्वारा सीपेक  का निर्माण वास्तव में चीन  की रणनीतिक घेराव का वह सिद्धांत  हिय जिसके बूते वह अपने साम्राज्यवाद को मजबूती दे रहा है।

यह जानना बेहद जरूरी है की जी 20 में शामिल देश जिस इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर की योजना प्रस्तुत कर रहे है,उसके सफल होने की कितनी संभावना है। चीन से निपटने के लिए ऐसे प्रयास पहले भी हुए है। गौरतलब है की चीनी रणनीति से निपटने के लिए भारत,जापान और ऑस्ट्रेलिया बेल्ट एंड रोड का विकल्प बनाने के लिए ब्लू डॉट नेटवर्क  बनाने के लिए एक साथ आए थे और फिर इसमें अमेरिका ने भी दिलचस्पी दिखाई थी। इस साझेदारी को फ्री एंड ओपन इंडो पैसिफिक स्ट्रैटेजी या एफओआईपी नाम दिया गया। जापान के तत्कालीन प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने एफओआईपी अवधारणा पेश की थी और औपचारिक रूप से इसे 2016 में एक रणनीति के रूप में पेश किया। इंडो-पैसिफिक सहयोग अवधारणा प्रतिद्वंद्विता,समावेशिता,पारदर्शिता और खुलेपन के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय कानून के सम्मान के बजाय सहयोग सहित कई सिद्धांतों पर जोर देती है। हालांकि इस दिशा में सदस्य देशों ने अब तक ऐसा कोई ठोस रणनीतिक कदम नहीं उठाया है जिससे चीन पर दबाव बनाया जा सके।

वहीं इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर में सहभागी बने यूएई और सऊदी अरब से चीन की रणनीतिक साझेदारी और चीन की मध्यपूर्व की नीति को दरकिनार नहीं किया जा सकता। मध्य पूर्व में चीन का सहयोग मॉडल 1+2+3  पर आधारित है। इसमें सबसे पहले ऊर्जा पर ज़ोर है,इसके बाद बुनियादी ढांचे के निर्माण,व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने की योजना पर बाल दिया गया है और अंत में फिर नाभिकीय ऊर्जा, एयरोस्पेस सैटेलाइट्स और नई ऊर्जा जैसे हाई-टेक क्षेत्रों में अहम कमयबियाँ शामिल है।  पिछले साल दिसंबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग सऊदी अरब  में चीन और अरब देशों के पहले शिखर सम्मेलन में शिरकत करने  पहुंचे थे। इस दौरान जिनपिंग के सऊदी अरब के साथ समग्र सामरिक भागीदारी समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस सलमान मध्यपूर्व में मौजूदा क्षेत्रीय गठजोड़ और अमेरिकी ब्लॉक से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं। सऊदी अरब की तेल निर्भरता ख़त्म करना भी उनके एजेंडे में सबसे ऊपर है। यहीं कारण है की ओआईसी,अरब लीग,यूनाइटेड नेशन जैसे मंचों को छोड़कर दूसरे मंचों से अक्सर दूर रहने वाला सऊदी अरब अब क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर बड़ी भूमिका में दिखाई दे रहा है। उसे पता है कि नई वैश्विक व्यवस्था में रूस और चीन दो वैकल्पिक ताकत के तौर पर उभर रहे हैं।

सऊदी अरब,अरब प्रायद्वीप के बड़े हिस्से को कवर करता है। पश्चिम एशिया और मध्य पूर्व के लिए इसकी रणनीतिक स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है। सऊदी अरब एकमात्र ऐसा देश है जिसकी तटरेखा लाल सागर और फारस की खाड़ी दोनों के साथ है। रूस और चीन के साथ मिलकर सऊदी अरब एशिया में निर्णायक भूमिका में आ सकता है तथा उसकी  कड़ी नीतियां अमेरिका और यूरोप का आर्थिक संकट बढ़ा सकती है। सऊदी अरब भारत का महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार अवश्य है लेकिन पाकिस्तान के प्रभाव से वह बच नहीं सका है। ईरान,चीन और सऊदी अरब की बढ़ती साझेदारी से भारत पर दबाव बढ़ सकता है और उसके सामरिक हितों को दीर्घकालीन चोट पहुंच सकती है। इसका प्रभाव हिन्द महासागर पर भी पड़ सकता है।   तेल पर से निर्भरता कम करने के लिए क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने एक महत्वाकांक्षी केन्द्रीकृत विकास योजना विजन 2030 प्रारम्भ की है। इसके माध्यम से  सऊदी अरब ने देश में  पर्यटन,आवास,रक्षा,व्यापार तथा निवेश जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करना प्रारम्भ किया है। इस विजन में चीन की बड़ी भूमिका है। चीन ने ईरान और सऊदी अरब के बीच कटुता को खत्म कर सहयोग के नए रास्ते खोल दिए है। चीन के कतर,ईरान और यूएई से भी रणनीतिक और मजबूत आर्थिक संबंध है।

अमेरिका ने मध्यपूर्व में निष्क्रिय रहकर चीन को इस क्षेत्र में मजबूत होने के कई अवसर दिए है। ऐसे में चीनी हितों को मात देना आसान नहीं होने वाला। इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर के जरिए भारत में बना सामान पहले समुद्र के रास्ते संयुक्त अरब अमीरात जाएगा। फिर यूएई से सऊदी अरब,जॉर्डन होते हुए ये रेलमार्ग से इजरायल के हाइफा बंदरगाह तक पहुंचेगा। इसके बाद समुद्री मार्ग के जरिए भारतीय सामान को हाइफा से यूरोप पहुंचाया जाएगा। यूएई  और सऊदी अरब,इजरायल को स्वीकार करके इस्लामिक देशों में अपनी स्थिति कैसे कमजोर कर सकते है। चीन और रूस क्या अमेरिकी प्रभाव वाले जी 20  की इस वृहत योजना को साकार होने देंगे। कूटनीतिक और राजनीतिक स्तर पर इस इकोनॉमिक कॉरिडोर के सामने बड़ी चुनौतियां है और वह कितने वर्षों में चीन की वन बेल्ट वन परियोजना के मुकाबले के लिए तैयार होगा,यह भी साफ नहीं है। 

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