राष्ट्रीय सहारा,हस्तक्षेप
यूनाइटेड किंगडम में गॉड सेव द किंग या गॉड सेव द क्वीन को 1745 में राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया था और यह आज तक ऐसा ही है। इसे दुनिया का पहला राष्ट्रगान माना जाता है। गॉड सेव द क्वीन अर्थात् हे ईश्वर,हमारी रानी को रक्षा करो है। भगवान हमारे दयालु राजा की रक्षा करें! हमारे महान राजा की जय हो! भगवान राजा की रक्षा करें! उसे विजयी,खुश और गौरवशाली भेजें,वह हम पर शासन करना चाहता है। भगवान राजा की रक्षा करें! हे प्रभु हमारे भगवान उठो,उसके दुश्मनों को तितर बितर करो और उन्हें गिरा दो। उनकी राजनीति को भ्रमित करो,उनकी धूर्त चालों को विफल करो,हम आप पर अपनी आशाएं टिकाते हैं। भगवान हम सभी की रक्षा करें।
भारत में सरकार की संसदीय प्रणाली काफी हद तक ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है। हालांकि भारत में ब्रिटिश राजतंत्रीय व्यवस्था के स्थान पर एक गणतांत्रिक व्यवस्था है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री भारत के प्रधानमंत्री की तरह ही वहां की राजनीति तथा शासन का केन्द्र बिन्दु होता है। ब्रिटेन में प्रधानमंत्री की स्थिति सबसे महत्वपूर्ण है। यह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका प्रशासन का प्रमुख और ब्रिटेन में लोकतंत्र का मुख्य प्रहरी होता है। लेकिन जब यूनाइटेड किंगडम में गठ्बन्धन सरकार होती है तो लोग गॉड सेव द किंग या गॉड सेव द क्वीन के स्थान पर गॉड सेव द गवर्नमेंट गुनगुनाने लगते है कि हे ईश्वर,हमारी सरकार की रक्षा करो। ब्रिटेन की राजनीति के समान ही भारत में भी गठ्बन्धन सरकारें आशंका ग्रस्त तो होती ही है।
एक से अधिक राजनीतिक दलों द्वारा संयुक्त रूप से बनाई गई सरकार होती है। यह आंतरिक राजनीतिक संघर्षों और विवादों को कम करने का एक शानदार तरीका है और देश की प्रगति और विकास के लिए पारस्परिक रूप से काम करता है। एक राजनीतिक दल समान राजनीतिक विचारों वाले लोगों को एक साथ लाता है। राजनीतिक दलों के कई काम होते हैं। एक काम अपने मतदाताओं के हितों को बढ़ावा देना है। वे पार्टी के कार्यक्रम भी बनाते हैं। वहीं गठबंधन सरकार को लेकर विरोधाभास भी कम नहीं नहीं होते है यहीं कारण है की एक तरह से यह विविध आबादी के हितों को पूरा करता है,दूसरी ओर,इसे एक अस्थिर सरकार माना जाता है।
भारत की राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस साल का कार्यकाल किसी अन्य दल के समर्थन का मोहताज नहीं था,अत: वह राजकाज में दिखाई भी दिया। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार के दो प्रमुख सहयोगी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू है। ये दोनों नेता भाजपा और एनडीए के पुराने सहयोगी रहे है लेकिन भारत में नरेंद्र मोदी के पहले और उनके साथ की राजनीति में गहरा अंतर है। 1999 में जेडी जो बाद में जेडीयू बनी ने नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन गठबंधन सरकार का समर्थन करने का फैसला किया था। उस दौरान देवेगौड़ा के नेतृत्व वाले गुट ने एनडीए के साथ जुड़ने का विरोध किया और एक प्रतिद्वंद्वी पार्टी की स्थापना की जिसने जनता दल (सेक्युलर) या जेडी (एस) नाम लिया। 2003 में,जेडी (यू) का समता और अन्य छोटी पार्टियों के साथ विलय हो गया और जेडी (यू) का पुनर्गठन किया गया। 2003 में जेडी(यू) का पुनर्गठन मुख्य रूप से बिहार में आरजेडी के कई वर्षों के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए किया गया था। यह पार्टी समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की विचारधारा का समर्थन करती है। इस समय सरकार की अहम साझेदार इस पार्टी के अंदर फिर से कलह की शुरुआत हो गई है। बिहार के सीतामढ़ी से जेडीयू सांसद देवेश चंद्र ठाकुर अपने एक बयान से ख़ुद की पार्टी को ही असहज कर दिया है। देवेश चंद्र ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया इसलिए वो उनकी मदद नहीं करेंगे। इस पर भाजपा नेता भी नाराज हो गए। बीजेपी के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव निखिल आनंद ने कहा,जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर अपनी हताशा को व्यक्त करना राजनीति में शर्मनाक और निंदनीय है। बीजेपी सभी सामाजिक वर्गों को साथ लेकर चलती है। बिहार में कोई भी राजनीतिक दल सफल नहीं हो सकता अगर वह यादवों को हाशिए पर धकेलने की कोशिश करे,वो कुल आबादी का 14 प्रतिशत हैं। दरअसल भाजपा एक राष्ट्रीय दल है और जेडीयू सांसद की क्षेत्रीय राजनीति ने भाजपा को असहज कर दिया।
इस सरकार की अहम साझेदार तेलुगू देशम पार्टी भी है। लोकलुभावनवाद और सामाजिक उदारवाद पार्टी की प्रमुख विचारधारा मानने वाली इस पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू है। उनकी करीब तीन दशकों से राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका महत्वपूर्ण रही है। 1996 में उन्होंने संयुक्त मोर्चे के संयोजक की भूमिका निभाई थी,जो 13 राजनीतिक दलों का गठबंधन था और जिसने केंद्र में सत्ता हासिल की। 1996 और 1998 के बीच गठबंधन सरकार का नेतृत्व एचडी देवेगौड़ा और बाद में आईके गुजराल ने किया। संयुक्त मोर्चे का मुख्यालय नई दिल्ली में आंध्र प्रदेश भवन में था।1999 के लोकसभा चुनावों के बाद राष्ट्रीय मामलों में चंद्रबाबू नायडू का महत्व बढ़ गया था। टीडीपी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को अपने 29 सांसदों का समर्थन दिया था। हालांकि टीडीपी सरकार में शामिल नहीं हुई,उसने इसे मुद्दा आधारित समर्थन कहा था। इस समय चंद्रबाबू नायडू का पूरा ध्यान आंध्रप्रदेश के पुनरनिर्माण और उसकी नई राजधानी अमरावती के विकास पर है। लेकिन चंद्रबाबू नायडू की नीतियों पर क्षेत्रवाद हावी है और यह भाजपा की राष्ट्रीय और मूल नीतियों से मेल खाएं,इसकी संभावना कम ही है।
राजनीतिक दल,राजनीतिक सत्ता हासिल करने और उसका प्रयोग करने के लिए संगठित व्यक्तियों का समूह होता है। यदि भाजपा और उसके सहयोगी दलों की तुलना की जाएं तो कैडर पार्टियों और लोक लुभावन पार्टियों के बीच के बुनियादी अंतर को समझने की जरूरत होगी। कैडर पार्टियां आम तौर पर कड़े सिद्धांतों के आधार पर पार्टी अनुयायियों को संगठित करती हैं। दूसरी ओर लोक लुभावन पार्टियाँ सैकड़ों हज़ारों,कभी कभी लाखों अनुयायियों को एकजुट करती हैं। यह भीड़ पर आधारित होती है तथा सत्ता पर आधारित राजनीति के लिए समझौतावाद के सिद्धांत को आजमाती रहती है। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू का यही समझौतावाद उन्हें किसी भी लोकप्रिय नेता से जोड़कर सत्ता के करीब ले आता है। चंद्रबाबू नायडू की आंध्रप्रदेश की सत्ता में वापसी में प्रधानमन्त्री मोदी की छवि का योगदान भी रहा और इससे नायडू इंकार भी नहीं कर सकते। इन सबके बाद भी नायडू आंध्रप्रदेश की राजनीति से ऊपर उठकर कोई निर्णय में भागीदार बने,इसकी भी कोई संभावना नहीं है।
भारत की राजनीतिक दलों की नीतियों और देश के भीतर राजनीतिक विरोधाभासों पर वैश्विक दृष्टि तो होती ही है। दुनिया भारत की इस साझेदार सरकार पर नरेंद्र मोदी के प्रभाव को लेकर आश्वस्त हो सकती है। लेकिन भारत में ऐसा बिल्कुल नहीं है। खासकर नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की राजनीति को जानने वाले आश्वस्त हो जाएं,ऐसा हो ही नहीं सकता। हे ईश्वर, नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू से हमारी सरकार की रक्षा करो की स्थिति से देश कब दो चार हो जाएं,यह अंदाजा लगाना मुश्किल है।
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