नवभारत
बांग्लादेश में राजनीतिक विभाजन गहरा है,कट्टरवादियों ने वैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है,अल्पसंख्यक बूरी तरह डरे हुए है। शेख हसीना के कार्यकाल में पुलिस और प्रशासन के दुरूपयोग से जो इन संस्थाओं की छवि खराब हुई है उससे प्रशासनिक व्यवस्थाएं अस्त व्यस्त हो गई है। छात्रों के गुस्से को शांत करने वाली कोई प्रभावी आवाज देश में सुनाई नहीं पड़ती। इन सबके बीच बांग्लादेश में जनता एक ऐसे नेतृत्व की तलाश में रही है,जो स्थिरता, संतुलन और लोकतांत्रिक विश्वास बहाल कर सके। अब तारिक रहमान की वापसी को उम्मीद के रूप में देखा जा रहा है।
बांग्लादेश में फरवरी में आम चुनाव है। अवामी लीग को चुनाव में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया है और ऐसे में आम जनता के पास ज्यादा विकल्प नजर आ नहीं रहे थे। देश की सबसे मजबूत विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की नेता खालिदा जिया अस्पताल में है। वहीं मैदान में जो जमात-ए-इस्लामी और नेशनल सिटिजन पार्टी है,उन पर ज्यादा भरोसा किया नहीं जा सकता। इसका मुख्य कारण इन दलों का राजनीतिक इतिहास,विचारधारा और व्यवहार से जुड़ी वजहें हैं। जमात-ए-इस्लामी का अतीत बांग्लादेश की स्वतंत्रता का विरोध करने,युद्ध अपराधों से जुड़े आरोपों और कट्टर इस्लामी राजनीति से जुड़ा रहा है। इसके कारण बड़ी आबादी उसे लोकतांत्रिक,समावेशी और आधुनिक राष्ट्रवाद के विपरीत मानती है। हिंसा और सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने की इस दल की नीति से जनता आशंकित रही है। समावेशी राज्य व्यवस्था, अल्पसंख्यकों और उदार समाज के प्रति उसके दृष्टिकोण को लेकर भी संदेह बना रहता है। शेख हसीना के विरोध के चलते है नेशनल सिटिजन पार्टी का जन्म हुआ है,लेकिन जनता इस पर दांव लगाएं,इसकी सम्भावना बेहद कम है। जनता इसके नेताओं को अवसरवादी,राजनीतिक रूप से अनिश्चित और स्थिर वैचारिक आधार से दूर मानती है। लोकतांत्रिक देशों में यह देखा गया है की कई नई पार्टियां अचानक उभरती हैं,सत्ता समीकरण के अनुसार झुकती-झुकाती हैं और स्थायी नीति-दृष्टि नहीं दे पाती। जनता को ऐसे दलों में न नेतृत्व की स्पष्टता दिखती है,न संगठनात्मक गहराई और न ही दीर्घकालिक भरोसे का आधार। लोकतंत्र में जनता विश्वास उन दलों पर करती है जो स्थिर राजनीतिक इतिहास,लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता,स्पष्ट दृष्टि और सामाजिक समावेश का भरोसा दे सकें। जमात-ए-इस्लामी और नेशनल सिटिजन पार्टी इस कसौटी पर लोगों की नज़र में कमजोर हैं,इसलिए इन दलों को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की सम्भावना बहुत कम है।
बांग्लादेश में राजनीतिक असमंजस और अविश्वास के बीच तारिक रहमान की वतन वापसी से बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का दावा मजबूत हो गया है। राजनीति में मज़बूत संगठनात्मक ढांचा और सक्रिय कैडर किसी भी दल की सबसे बड़ी ताकत होते हैं। जिस दल का कैडर जमीनी स्तर पर मजबूत होता है,वह न केवल चुनाव के समय माहौल बना पाता है,बल्कि निरंतर संपर्क,प्रचार और जमीनी स्तर पर जनता से जुड़ कर बूथ बढ़त हासिल करता लेता है। बांग्लादेश की राजनीति में भी बीएनपी को उसके मजबूत कैडर बेस के कारण गंभीर दावेदार के रूप में देखा जा सकता है। बीएनपी ने अपने शुरुआती दौर से ही छात्र,युवा,व्यापारी और स्थानीय इकाइयों के माध्यम से व्यापक नेटवर्क तैयार किया था। सत्ता से बाहर रहने और राजनीतिक दबावों के बावजूद इसका कैडर काफी हद तक सक्रिय रहा,जो इसकी राजनीतिक उपस्थिति को जीवित रखे हुए है। तारिक रहमान की वापसी,राजनीतिक माहौल में बदलाव और सत्ता विरोधी भावना ने इस कैडर को और ऊर्जावान बनाया है। इससे पार्टी के अंदर संगठनात्मक पुनर्गठन और जनसमर्थन जुटाने की संभावना बढ़ी है। मज़बूत कैडर के साथ रणनीतिक स्पष्टता,नेतृत्व की एकजुटता,लोकतांत्रिक विश्वसनीयता और स्थिर गठबंधन भी उतने ही आवश्यक हैं। बीएनपी अपने कैडर को सुव्यवस्थित दिशा,स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम और जनविश्वास के साथ जोड़ पाती है,तो निश्चित ही सत्ता की संभावनाएं उसके लिए और मजबूत हो सकती हैं। तारिक रहमान ने अपने पहले ही भाषण में इसके संकेत भी दे दिए है। रहमान ने लोकतंत्र,क़ानून-व्यवस्था,अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और समावेशी राजनीति की बात कर जनता में यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे सिर्फ सत्ता की राजनीति नहीं,बल्कि एक नया बांग्लादेश बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं और इसकी वह योजना भी बना कर लाएं है। उनकी वापसी ने देश की राजनीति में एक नया संतुलन,बहस और संभावनाओं का द्वार खोला है। यदि वे संवाद,लोकतंत्र,शांति और समावेशी शासन का रास्ता अपनाते हैं,तो सचमुच हिंसा से झुलसे बांग्लादेश के लिए वे उम्मीद साबित हो सकते हैं।
हालांकि बीएनपी को सभी तबकों का विश्वास हासिल करने के लिए अभी और प्रयास करना पड़ेंगे। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की स्थापना 1978 में तारिक रहमान के पिता जनरल ज़ियाउर रहमान ने की थी। इसका मूल विचार राष्ट्रवाद,इस्लामी सांस्कृतिक पहचान और संप्रभुता को मज़बूत करना रहा। बीएनपी ने खुद को राष्ट्रीय गौरव,परंपरा और मध्यमार्गी दक्षिणपंथी राजनीति के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया। 1991 में लोकतंत्र की बहाली के बाद बीएनपी ने खालिदा ज़िया के नेतृत्व में सत्ता संभाली और बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था को नई दिशा दी। शिक्षा,अर्थव्यवस्था और विकास के कुछ कार्य उल्लेखनीय रहे,परंतु पार्टी पर भ्रष्टाचार,सत्ता के दुरुपयोग और राजनीतिक हिंसा के आरोप भी लगे।
बीएनपी की छवि को लेकर जनता में असमंजस भी रहा है। एक ओर जनता के बीच राष्ट्रीयता और लोकतांत्रिक संतुलन का विकल्प,वहीं दूसरी ओर कट्टरपंथी ताकतों से समझौते,चुनावी बहिष्कार और आंतरिक नेतृत्व संकट की आलोचना। पिछले डेढ़ दशकों से यह पार्टी सत्ता से दूर है,ऐसे में यह लंबे संघर्ष,प्रतिबंधों, नेतृत्व के निर्वासन और विभाजन के दौर से गुज़री है,जिससे इसकी संगठनात्मक शक्ति प्रभावित हुई है। फिर भी बीएनपी को बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी शक्ति के रूप में लोगों का विश्वास हासिल रहा है। उसका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कितनी लोकतांत्रिक,समावेशी और आधुनिक राजनीतिक दृष्टि के साथ खुद को कैसे पेश करती है। बांग्लादेश की राजनीति में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा बड़ा संवेदनशील पहलू है। बीएनपी पर अल्पसंख्यकों का भरोसा करना या न करना उसके अतीत,वर्तमान राजनीति और भविष्य की नीतियों पर निर्भर करेगा। ऐतिहासिक रूप से बीएनपी की छवि पूरी तरह सकारात्मक नहीं रही है। उस पर कई बार आरोप लगा कि उसके शासनकाल में अल्पसंख्यकों,विशेषकर हिंदुओं और अन्य समुदायों को पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिली। जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी तत्वों के साथ उसके राजनीतिक संबंधों ने भी अल्पसंख्यकों के मन में संदेह पैदा किया था। हाल ही में तारिक रहमान,समावेशी राजनीति,अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता की बात करते दिखाई दिए हैं। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि बीएनपी अब अपने पुराने राजनीतिक ढांचे से कुछ अलग, आधुनिक और लोकतांत्रिक छवि बनाना चाहती है। यदि यह रुख व्यवहार में भी दिखता है और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा,न्याय,धार्मिक स्थलों की रक्षा और कानून व्यवस्था को लेकर ठोस कदम उठते हैं,तो निश्चित रूप से भरोसा धीरे-धीरे बढ़ सकता है। यदि बीएनपी वास्तव में हिंसा रोकने,कट्टर शक्तियों से दूरी बनाने और सबको समान नागरिक अधिकार देने का मजबूत सबूत पेश करती है,तभी अल्पसंख्यकों का भरोसा पूरी तरह बहाल हो सकेगा।
शेख हसीना अब बांग्लादेश के राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो चूकी है. ऐसे में भारत और तारिक रहमान,दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है। इसके पीछे कई राजनीतिक,रणनीतिक और क्षेत्रीय कारण हैं। भारत के लिए बांग्लादेश सिर्फ पड़ोसी देश नहीं बल्कि सुरक्षा,कूटनीति,व्यापार और पूर्वोत्तर क्षेत्र की स्थिरता से जुड़ा अहम साझेदार है। बांग्लादेश में स्थिर लोकतांत्रिक शासन,कट्टरता पर नियंत्रण और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा भारत के लिए बहुत अहम मुद्दे हैं। यदि तारिक रहमान एक संतुलित,व्यावहारिक और लोकतांत्रिक नेतृत्व देते हैं,तो भारत को एक ऐसा साझेदार मिल सकता है,जो बांग्लादेश में भारत के हित की रक्षा कर सकते है तथा क्षेत्रीय स्थिरता,आतंकवाद विरोध और आर्थिक सहयोग में मददगार बन सकते है। वहीं तारिक रहमान और बीएनपी इस बात को बखूबी जानते है की भारत से अच्छे संबंधों से वे राजनीतिक रूप से मजबूत बन सकते है। अल्पसंख्यकों पर अत्याचारों,राजनीतिक अस्थिरता और इस्लामिक कट्टरपंथ से इस देश की छवि बहुत खराब हो हुई है,ऐसे में अंतरराष्ट्रीय वैधता,क्षेत्रीय समर्थन,आर्थिक सहयोग,निवेश और कूटनीतिक मजबूती के लिए भारत जैसा प्रभावशाली पड़ोसी सहयोगी साबित हो सकता है।
भारत के लिए बांग्लादेश में मजबूत उपस्थिति बनाए रखना रणनीतिक रूप से अनिवार्य है। चीन बांग्लादेश में बड़े आर्थिक व रणनीतिक निवेश के जरिए प्रभाव बढ़ा रहा है,जबकि पाकिस्तान लंबे समय से राजनीतिक व वैचारिक स्तर पर प्रभाव जमाने की कोशिश करता रहा है। यदि भारत पीछे हटता है या हिचकिचाता है,तो यह खाली स्थान दूसरे देशों के लिए अवसर बन सकता है। यदि तारिक रहमान वास्तव में स्थिर,लोकतांत्रिक और भारत हितैषी रुख अपनाते है तो यह संबंध दोनों देशों और पूरे क्षेत्र के लिए लाभकारी साबित हो सकता है।








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