राष्ट्रीय शक्ति को मूल रूप से सैनिक शक्ति समझने की मध्ययुगीन और प्राचीन अवधारणा को पीछे छोड़कर दुनिया के अधिकांश देश भूगोल,प्राकृतिक साधन,औद्योगिक क्षमता,जनसंख्या,राष्ट्रीय चरित्र,राष्ट्रीय मनोबल,कूटनीति और सरकार की नीति के नूतन और दीर्घकालीन उपायों के आधार पर आगे बढ़ रहे है। वहीं इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान की सरकारों की नीतियां सैन्य प्रभावों से इतनी अभिशिप्त है कि लोक कल्याण की मूल मान्यताएं धराशाई हो गई है और यहीं कारण है कि देश के आंतरिक और प्रशासनिक ढांचें को आम जनता संदेह की दृष्टि से देखती है। इस समस्या को बढ़ाने में पाकिस्तान के धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं ने प्रमुख भूमिका अदा की है। फ़िलहाल पाकिस्तान गहरे आर्थिक और लोकतांत्रिक संकट से गुजर रहा है,जिससे भारत के इस पड़ोसी देश में अस्थिरता एक बार फिर बढ़ सकती है।
पाकिस्तान में डॉलर की किल्लत हो गई है रुपया बहुत कमजोर स्थिति में है। कृषि प्रधान देश होने के बाद भी गेंहूं को विदेशों से आयात करना पड़ रहा है। महंगाई अभूतपूर्व बढ़ी है और इससे जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया है। पिछले आठ महीने से जारी राजनीतिक अस्थिरता और इस साल की बाढ़ ने देश को आर्थिक तौर पर बहुत नुकसान पहुंचाया है। डॉलर के मूल्य में वृद्धि के कारण वाणिज्यिक और आर्थिक घाटा बढ़ रहा है,वहीं देश के मुद्रा विनिमय के कोष में भी काफ़ी कमी आई है। पाकिस्तान को अगले कुछ महीनों के दौरान विदेशी क़र्ज़ के मद में अरबों डॉलर की अदायगी करनी है जबकि उसके केंद्रीय बैंक में फॉरेन एक्सचेंज के कोष में सिर्फ़ छह अरब डॉलर के क़रीब हैं। यह पाकिस्तान की अपनी सम्पत्ति नहीं है बल्कि चीन,संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे मित्र देशों की मदद से प्राप्त धनराशि है। वैदेशिक संबंधों को लेकर भी पाकिस्तान की कूटनीति विवादों में नजर आती है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टों का भारतीय प्रधानमंत्री को लेकर असंयमित बयान हो या अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को हद में रहने की नसीहत,पाकिस्तान के पड़ोसियों से संबंध बद से बदतर स्थिति में पहुंच गए है। बलूचिस्तान और खैबर पख्तुन्वा में आतंकी हमलों में भारी वृद्धि हुई है और इससे पाकिस्तान का आंतरिक सुरक्षा संकट गहरा गया है।
इमरान खान की सरकार को हटाकर सत्ता में आई आठ महीने पुरानी शाहबाज़ शरीफ की सरकार देश में सरकार के खिलाफ अभूतपूर्व प्रदर्शनों से परेशान है। इमरान खान ने लांग मार्च को हथियार बनाकर जनता का भरपूर समर्थन हासिल कर लिया है। इमरान ने धर्म के साथ राष्ट्रवाद का घालमेल कर लोगों की भावनाओं को आक्रामक तरीके से उभारा है,यहीं कारण है कि शाहबाज़ शरीफ और उनकी सरकार के सहयोगियों को देश और बाहर चोर चोर के नारों का विरोध झेलना पड़ रहा है।
पाकिस्तान के पूर्व सेना अध्यक्ष जनरल बाजवा की सेवानिवृत्ति की घोषणा के साथ ही आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान का युद्द विराम से हटने की घोषणा कोई संयोग नहीं है बल्कि इसे लोकतांत्रिक सरकार को अस्थिर करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। यह भी दिलचस्प है कि तहरीक-ए-तालिबान खैबर-पख्तुन्वा सूबे में बहुत मजबूत है और यह इलाका इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ का गढ़ माना जाता है। इमरान खान के सत्ता में रहते तहरीक-ए-तालिबान ने ख़ामोशी बनाएं रखी और शहबाज़ शरीफ के सत्ता में आते ही देश के कई इलाकों में आतंकी हमलें शुरू हो गए।
पाकिस्तान इसके लिए अफगानिस्तान को जिम्मेदार ठहरा रहा है जबकि अफ़ग़ान तालिबान का कहना है कि पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है वह पाकिस्तान की अपनी आंतरिक समस्या है। तालिबान के सत्ता में आने के बाद
पाक-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर हालात तनावपूर्ण रहे है। तालिबान और पाकिस्तान के प्रतिबंधित आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान के मजबूत संबंध रहे है। अफगान पाकिस्तान सीमा पर बाड़ को उखाड़ फेंकने और सीमा पार से पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में हमले को लेकर पाकिस्तान अफगानिस्तान पर निशाना साधता रहा है। पाकिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामिक शासन की मांग करने वाले आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान से पाकिस्तान की सरकार के साथ मध्यस्थता करवाने में तालिबान ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन युद्ध विराम की समाप्ति के बाद पाकिस्तान में हालात एक बार फिर तनावपूर्ण हो गए है।
तालिबान और भारत के बीच सामान्य होते रिश्तों को लेकर भी पाकिस्तान असहज है। पिछले वर्ष अफगानिस्तान के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह,भारत की मध्यस्थता के बाद नईदिल्ली से काबुल लौटे थे और इसे तालिबान के साथ भारत के मजबूत होते संबंधों के रूप में देखा गया था। तालिबान चाहता है कि भारत की कम्पनियां अफगानिस्तान में वापस लौटकर उन विकास कार्यों को पूरा करें जिन्हें वह अधूरा छोड़कर चली गई थी। अब तालिबान ने आश्वासन दिया है कि अगर भारत अफ़ग़ानिस्तान में प्रोजेक्ट्स शुरू करता है तो भारतीयों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उसकी होगी।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच डूरंड रेखा को लेकर विवाद है ही लेकिन अफगानिस्तान की तालिबान सरकार का रुख इस पर इतना कड़ा होगा,इसकी कल्पना पाकिस्तान की सेना और सरकार ने नहीं की होगी। दोनों देशों की सीमा पर इस समय गहरा तनाव है और पाकिस्तान के कई सैनिक तालिबान के हमलों में हताहत भी हुए है। दरअसल अफगानिस्तान की अस्थिरता में पाकिस्तान का बड़ा हाथ रहा है। 1990 के दशक में अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की दस्तक पाकिस्तान की सैन्य और आर्थिक मदद से ही संभव हो सकी थी। तालिबान,पाकिस्तान की राजनीतिक और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को भली भांति जानता है और उसे पाकिस्तान का सामरिक साधन बनने में कोई दिलचस्पी नहीं है। वहीं अफगानिस्तान की आम जनता तो पाकिस्तान के मंसूबों को लेकर आशंकित रहती ही है। दूसरी तरफ अफगानिस्तान का एक बड़ा तबका शरणार्थी के रूप में पाकिस्तान में रहता है जो सस्ता मजदूर बनकर गरीब पाकिस्तानियों के रोजगार को हड़प रहा है। पाकिस्तान के आम शहरी में इसे लेकर बड़ा आक्रोश है और यह सरकार की मुश्किलें बढ़ाता है।
पाकिस्तान में डॉलर की सरकारी दर 224 से 225 रुपये तक पहुंच चुकी है और इस दावे को बल मिला है कि पाकिस्तान डिफ़ॉल्ट करने के क़रीब है। देश में डॉलर लाने वाले तीन महत्वपूर्ण स्रोत निर्यात,विदेशों से भेजी गयी मुद्रा और विदेशी पूंजी निवेश पिछले कुछ महीनों में नकारात्मक वृद्धि दर्ज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था का पहिया और धीमा घूमेगा और औद्योगिक क्षेत्र में गतिविधियों में सुस्ती आने की वजह से कर्मचारियों की छंटनी हो सकती है जिससे बेरोजगारी का संकट और ज्यादा गहरा संकट है। डॉलर की अनुपलब्धता और सुरक्षा के खतरों के चलते कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पाकिस्तान को छोड़कर जाने की तैयारी में है और इससे पाकिस्तान का पढ़ा लिखा तबका गुस्से में है। गरीबों का जीवन कठिन हो गया है,आटे की क़ीमत में इज़ाफ़े के अलावा बिजली, गैस और दूसरे ज़रूरी सामान का दाम भी बढ़ गया है।
ख़ैबर पख़्तूनख़्वा,पंजाब और बलूचिस्तान में तहरीक-ए-इंसाफ़ की सरकार है। शाहबाज़ शरीफ की सरकार गेहूं का संकट पैदा करने के लिए इमरान खान को जिम्मेदार ठहरा रहे है। इन सबके बीच वैश्विक बाजार में तेल की बढ़ती क़ीमतों के चलते पाकिस्तान के विदेशी मुद्रा भंडार पर भारी दबाव है जो उसे संकट की कगार पर धकेल रहा है।
पाकिस्तान सीपेक को देश के भविष्य की योजना बताता है लेकिन उसका बलूचिस्तान में जिस प्रकार विरोध हो रहा है उससे यह योजना खटाई में पड़ती नजर आ रही है। चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर या सीपेक चीन के महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत बनाए जा रहे व्यापारिक नेटवर्क का हिस्सा है,जिसमें सड़कों,बिजली संयंत्रो,रेलवे लाइनों और औद्योगिक क्षेत्रों का निर्माण शामिल है। बलूच लोगो इसे प्राकृतिक संसाधनों पर क़ब्ज़े की योजना के रूप में देखते है और इसीलिए वह इन इलाकों में तैनात चीनी और पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर हमलें करते रहे है। पाकिस्तान की सरकारें यह दावा करती है कि सीपीईसी के ज़रिए बलूचिस्तान सहित देश के बहुत से पिछड़े इलाक़ों में तरक्की दी जा सकेगी,जिससे विकास से वंचित उन इलाक़ो में ख़ुशहाली आएगी। लेकिन स्थिति इससे उलट नजर आती है। बलूचिस्तान में आने वाले ग्वादर बंदरगाह में नई मशीनरी लग रही है,सड़कों,नई इमारतों और कॉलोनियों का निर्माण हो रहा है जबकि ग्वादर के रहने वाले पीने के पानी की बूंद बूंद को तरस रहे है। चीन की कर्ज पर आधारित कूटनीति के जाल में पाकिस्तान बूरी तरह फंस चूका है। चाइना इंडेक्स के जारी किए हुए हालिया आंकड़ों अनुसार,चीन का पाकिस्तान में विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव दुनिया में सबसे ज्यादा है। यह तकनीक,शिक्षा,अर्थव्यवस्था,स्थानीय राजनीति और मीडिया समेत आम आदमी को भी प्रभावित कर रहा है। चीनी कर्ज के जाल में फंसने के बाद श्रीलंका की मुश्किलों से पाकिस्तान की जनता आशंकित है. पाकिस्तान का पढ़ा लिखा तबका सरकार को चीन पर अधिक निर्भरता के खतरों से आगाह करता रहा है।
पाकिस्तान में पिछला आम चुनाव जुलाई 2018 में हुआ था और पाकिस्तान की वर्तमान नेशनल असेंबली का कार्यकाल अक्टूबर 2023 तक है। वहीं इमरान खान देश में तुरंत आम चुनाव कराने की मांग करते रहे है। पाकिस्तान में जिस प्रकार विभिन्न मोर्चो पर शहबाज़ शरीफ की सरकार विरोध को झेल रही है उससे आने वाले आम चुनावों में उसकी स्थिति बहुत खराब हो सकती है। पाकिस्तान में इमरान खान की राजनीतिक स्थिति लगातार मजबूत हो रही है और इस बात की पूरी संभावना है कि उनकी सरकार केंद्र में पूरे बहुमत से वापसी करेगी। इमरान खान शरीफ और भुट्टों परिवार पर तो भ्रष्टाचार को लेकर निशाना साधते ही रहे है लेकिन वे सेना की भूमिका पर भी सवाल खड़ा करते रहे है। देश में पहली बार यह देखा गया है कि आम जनता ने सेना के खिलाफ व्यापक प्रदर्शनों में भाग लिया है। जाहिर है यह वर्ष पाकिस्तान के लिए निर्णायक हो सकता है। इमरान खान को सत्ता में आने से रोकने की सत्तारूढ़ दल,अमेरिका और सेना की कोशिशें पाकिस्तान में गृहयुद्द को भड़का सकती है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से परेशान आम आदमी बदलाव चाहता है और वह इमरान खान पर ज्यादा भरोसा दिखा रहा है। बहरहाल पाकिस्तान में स्थितियां बेहद विकट है और इस देश को संतुलित रखने के ईमानदार प्रयास न तो सेना कर रही है,न ही सत्तारूढ़ दल। यहां तक की जनता की आशाओं के केंद्र बने इमरान खान के इरादों पर भी पूर्ण भरोसा नहीं किया जा सकता है।
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