चीन में बदलाव की उम्मीद
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चीन में बदलाव की उम्मीद

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साम्यवाद के कड़े नियमों की आढ़ में जनता पर नियन्त्रण स्थापित करने की शी जिनपिंग की कोशिशें अब धराशायी होने लगी है।  चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने ज़ीरो कोविड नीति को जनता पर सामाजिक नियन्त्रण स्थापित करने का एक अवसर माना था लेकिन लगता है कि सरकार का यह दांव उलटा पड़ गया है। कोविड के दौरान जिस तरह के सख़्त प्रतिबंध लगे और इसकी वजह से अर्थव्यवस्था चौपट हुई,उसने सब बदलकर रख दिया है। चीन में तरक्की की रफ़्तार सुस्त पड़ गई है तथा कर्ज़ देश की अर्थव्यवस्था के दोगुने से ज़्यादा हो चुका है। भोजन की कमी,महंगाई,काम पर न जाने पर वेतन रोक लेने का दबाव और इसके बाद भी साम्यवादी सरकार की ज़ीरो कोविड पॉलिसी का बोझ उठाएं मजदूर जब हांफने लगे तो वे बेकाबू हो गए। चीन के कई शहरों में लोग अनिवार्य लॉकडाउन को तोड़ कर घरों से निकल आए। पुलिस से उनकी झड़प हुई और जनता ने हिंसक प्रदर्शन कर कई पुलिस वाहनों को उलट दिया। शी जिनपिंग गद्दी छोड़ो के नारे देश के कई भागों में सुनाई देने लगे है। इन प्रदर्शनों में युवाओं की भागीदारी बड़े पैमाने पर रही है और वे हाथों में पोस्टर लिए सरकार का विरोध करने का साहस दिखा रहे है। इस तरह के कई प्रदर्शन पूरे चीन में देखने को मिल रहे हैं।

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बीजिंग की मशहूर सिंगुआ यूनिवर्सिटी के  छात्रों ने सरकार की नीतियों के विरोध में सभाएं की है और यह बदलाव का बड़ा संकेत है। साम्यवादी चीन में  सरकार विरोधी किसी प्रदर्शन की अनुमति नहीं है,लेकिन जनता ने तमाम दबावों को दरकिनार करके साम्यवादी सरकार को कोविड नियमों को शिथिल करने पर मजबूर कर दिया है। जबकि कुछ दिनों पहले शी जिनपिंग ने साफ कहा था कि सरकार ज़ीरो कोविड मामलों की अपनी प्रतिबद्धता में कोई ढील नहीं देने वाली है। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश में कम्युनिस्ट सरकार की नीतियों के विरोध में जनता का सड़कों पर आना अभूतपूर्व घटना है और इससे लोकतंत्र समर्थक उत्साहित हो सकते है।

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 वहीं पिछले तीन वर्षों में कोविड के दौरान चीन के लोग सरकार की अधिनायकवादी नीतियों से इतने त्रस्त हो गए है कि उन्हें विरोध पर उतरने को मजबूर होना पड़ा है। शी जिनपिंग की मजबूत और शक्तिशाली छवि के चलते अधिकारियों में उनके प्रति निष्ठा साबित करने की होड़ लग गई और इसका असर करोड़ों लोग भोगने को मजबूर कर दिए गए। चीन की नौकरशाही शी जिनपिंग के शासन में ज़्यादा केंद्रीकृत है,मतलब लोगों को सरकार के साथ ही अधिकारियों के तानाशाही रवैये को भी झेलने को मजबूर होना पड़ता है। कोरोना के कहर से लाखों लोग मारे जा चुके है और  करोड़ों इससे प्रभावित हो रहे है लेकिन इसका सही आंकड़ा दुनिया के सामने अभी तक नहीं आ पाया है,इसका प्रमुख कारण चीन में मीडिया पर सख्त पाबंदी है। कोरोना वायरस के फैलने से देश की बदनामी और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले संकट को रोकने के मद्देनजर साम्यवादी सरकार ने जो कदम  उठायें है वह मानवीयता को शर्मसार करते है।  देश में लोगों की अचानक मौतों पर कोई विश्वनीय आंकड़ा सामने नहीं आया।  प्रसिद्द मीडिया और डेटा कंपनी ब्लूमबर्ग ने कोरोना वायरस से प्रभावित और मरने वाले लोगों पर चीन के अधिकारिक आंकड़ों को लेकर संदेह जताया था।  इन सबके बीच चीन ने उस डॉक्टर को अपना निशाना बनाया था जिन्होंने इस वायरस  के भयावह प्रभावों को लेकर प्रशासन को आगाह किया था। चीनी नागरिक पत्रकार चेन कुशी वुहान से कोरोना पर रिपोर्टिंग कर रहे थे और वे अचानक गायब हो गए। 2019 में चीन के सबसे अमीर व्यक्ति जैक मा ने सरकार की खुलेआम आलोचना की थी,लेकिन इसके कुछ दिन बाद वो रहस्यमय तरीके से ओझल हो गए। कई महीने बाद वो फिर सामने आए और चुप्पी साध ली। ऐसा उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के दबाव में करने को मजबूर होना पड़ा।

 

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 चीन की शासन प्रणाली समाजवादी गणराज्य है। आधुनिक चीन को लोकतंत्रीय गणराज्य बनाने की बात तो कही गई थी किन्तु एकदलीय शासन व्यवस्था के कारण यहां वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो पायी। वास्तविक लोकतंत्र की मांग के लिए 1989 में थियानमेन चौक पर प्रदर्शन कर रहे सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। चीनी नेता ली जियाओबा ने चीन में लोकतंत्र की स्थापना के लिए आंदोलन चलाया तो उन्हें साम्यवादी सरकार ने जेल में डाल दिया। 2010 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित ल्यू शियाबों लोकतांत्रिक अधिकारों के समर्थक चीन के ऐसे नागरिक  माने जाते थे जो जीवनभर साम्यवादी नीतियों के मुखर आलोचक रहे और उसके अत्याचारों से जूझते रहे। लेकिन उनका यह विश्वास अटल रहा कि चीन के नागरिक एक दिन साम्यवाद की हिंसक,आक्रामक और असभ्यता से मुक्ति पा लेगा।

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वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग चीन में माओत्से तुंग के बाद सबसे शक्तिशाली नेता हैं। आधुनिक चीन के इतिहास में सबको पीछे छोड़कर लगातार तीसरी बार चीन के सर्वोच्च नेता चुने गए शी जिनपिंग  अपनी आर्थिक नीतियों की तारीफ़  करते नहीं थकते जबकि आम आदमी की स्थिति बहुत खराब है। देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है और कोविड लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि चीनी अर्थव्यवस्था की तरक्की दर एशिया प्रशांत क्षेत्र के बाकी हिस्से के मुक़ाबले पीछे रह जाएगी। ऐसा भी नहीं है कि चीन की अर्थव्यवस्था के पिछड़ने का कारण कोविड ही है। दरअसल शी जिनपिंग कूटनीतिक मोर्चे पर भी लगातार असफल हो रहे है। पड़ोसी देश भारत से लगातार तनाव,ताइवान को दबा कर रखने की कोशिशें,हांगकांग में लोकतन्त्र समर्थकों के प्रदर्शन,हिन्द महासागर में वैश्विक चुनौतियां,युक्रेन युद्द में रूस के समर्थन से यूरोप और अमेरिका की नाराजगी के दूरगामी परिणाम आर्थिक मोर्चे पर नजर आने लगे है। चीन में काम की तलाश में लोग शहरों का रुख़ कर रहे हैं जिससे बच्चे और बुज़ुर्ग गरीब ग्रामीण इलाक़ों में पीछे छूट रहे हैं।

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 अब चीन में सरकार के खिलाफ जिस प्रकार के प्रदर्शन हो रहे है,वैसे बीते कई दशकों में नहीं देखे गए है। लोगों का गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि  अगर सरकार ज़ीरो-कोविड के ज़रिए जिंदगी बचाना चाहती थी तो उसे दूसरे देशों की तरह वैक्सीनेशन को ज़ोरदार तरीक़े से लागू करना चाहिए। लेकिन चीन वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने या वैक्सीन का आयात करने से इनकार करता है जबकि चीन में बनी वैक्सीन बहुत प्रभावी साबित नहीं हुई है।

 ज़ीरो-कोविड को लेकर सरकार विरोधी प्रदर्शन आगे चलकर धार्मिक आज़ादी की ओर भी मुड सकता है। चीन में लाखों बौद्ध,मुसलमान और ईसाई रहते हैं। इस साम्यवादी देश में धार्मिक स्वतंत्रता का वादा तो किया गया है,लेकिन इस स्वतंत्रता पर पाबंदियां भी लगाई हैं। जब से शी जिनपिंग सत्ता में आए हैं तब से धार्मिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ सरकार का बर्ताव सख्त हो गया है। शिनचियांग प्रांत में रमजान के महीने में रोज़े रखने और दाढ़ी रखने पर प्रतिबंध लगाए गए वहींचर्च तोड़ दिए या उन पर लगे क्रॉस को हटा दिया। धार्मिक और मानवाधिकारों को लेकर वैश्विक संस्थाएं चीन पर हमलावर रही है।  अब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का जिस प्रकार विरोध हो रहा है उससे धर्म और मानवाधिकार समूहों के भी खुलकर आगे आने की संभावनाएं बढ़ गई है।

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