बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों पर भारत की कूटनीति
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बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों पर भारत की कूटनीति

राष्ट्रीय सहारा

भारत की कूटनीति ने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कई प्रयास किए हैं,लेकिन इन प्रयासों में सफलता सीमित रही है। कई बार भारतीय दबाव ने असर नहीं दिखाया है क्योंकि बांग्लादेश के आंतरिक और कूटनीतिक समीकरण इसे प्रभावी तरीके से रोकने में अवरोध डालते हैं। भारत की ओर से इस मुद्दे पर लगातार संवेदनशीलता और दबाव बनाने की कोशिश की जाती है,फिर भी इसके परिणाम स्थिर और संपूर्ण नहीं रहे हैं। भारत की कूटनीतिक रणनीति में सॉफ़्ट पावर का बड़ा योगदान है। सॉफ़्ट पावर एक देश की ऐसी शक्ति होती है जो अन्य देशों और समाजों को अपनी ओर आकर्षित करने या प्रभावित करने के लिए सैन्य या आर्थिक ताकत के बजाय सांस्कृतिक, कूटनीतिक और नैतिक गुणों का उपयोग करती है। यह हिंसा या बल का उपयोग नहीं करती,बल्कि सांस्कृतिक आकर्षण,मूल्य,विचार और विचारधारा पर आधारित होती है।

नैतिकता,समन्वय और अहस्तक्षेप की भारत की सॉफ़्ट पावर की नीति पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने में लगातार नाकाम रही है। पिछले साल बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के पतन के बाद देश में हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक समूहों पर बेतहाशा अत्याचार बढ़े है।  बांग्लादेश में 12वीं में पढ़ने वाली एक हिन्दू छात्रा ने प्रधानमंत्री मोदी को एक चिट्ठी भेज कर मदद की गुहार लगाई। यहीं नहीं बांग्लादेश हिंदू,बुद्धिस्ट,क्रिश्चियन ओइक्या परिषद ने एक रिपोर्ट पेश की जिसमें  यह बताया गया है की अल्पसंख्यक समुदाय से जुडी लड़कियों का बड़े पैमाने पर अपहरण,शादी और उत्पीड़न जो रहा है। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान हिंसा के शिकार हुए कई हिंदू पीड़ितों के लिए न्याय अभी नहीं मिल पाया है और कथित अपराधियों पर मुकदमा चलाने के प्रयासों का कट्टरपंथी हिंसक विरोध करते है।

15 अगस्त 1947 को भारत का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ और मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बना। 1971 में पाकिस्तान का भाषा और संस्कृति के आधार पर एक और विभाजन हुआ तथा एक नया देश बांग्लादेश बना। इन तीनों देशों की भाषा,संस्कृति और जीवन में असंख्य समानताओं के बाद भी धार्मिक आधार पर आंकड़ें भारत और अन्य देशों की व्यवस्थाओं में गहरा अंतर बताते है। पाकिस्तान को ईसाईयों के लिए सबसे खराब देश माना गया है वहीं हिन्दू और सिखों के लिए पाकिस्तानी जमीन बुरा स्वप्न साबित हुई है। पाकिस्तान सरकार द्वारा आयोजित 1951 की जनगणना के अनुसार,पश्चिमी पाकिस्तान में करीब डेढ़ फीसदी हिंदू आबादी थी,जबकि पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश है,में  साढ़े बाईस फीसदी थी। 1950 के दशक में दुनिया में पाकिस्तान की जनसंख्या की हिस्सेदारी डेढ़ फीसदी थी। जो  2024 में बढ़कर सवा तीन फीसदी हो गई है। 1950 के दशक में जनसंख्या की दृष्टि से पाकिस्तान 13 वें स्थान पर था जो अब पांचवें पायदान पर पहुंच गया है। यह भी दिलचस्प है की पाकिस्तान 1971 में विभाजित हो गया था लेकिन इसके बावजूद यहां की जनसंख्या वृद्धि दर में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। हालांकि यह वृद्धि धार्मिक बहुसंख्यकों में हुई जबकि धार्मिक अल्पसंख्यक स्थिर रहे। इसका प्रमुख कारण धार्मिक उत्पीड़न से उपजा पलायन रहा। पाकिस्तान से अलग होकर बना देश बांग्लादेश भी अल्पसंख्यकों के लिए कब्रगाह साबित हुआ है। बांग्लादेश में 2022 की राष्ट्रीय सरकारी जनगणना के अनुसार,देश में हिंदुओं का प्रतिशत 2011 में कुल जनसंख्या के 10  फीसदी से घटकर 2022 में 8 फीसदी हो गया है। आंकड़े यह बताते है कि बंगलादेश में कट्टरपंथी ताकतें यदि हिन्दुओं को निशाना  बनाती रही तो अगले तीन दशकों में बांग्लादेश में कोई भी हिंदू नहीं बचेगा।

भारत का राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद का विरोधी था,जिसके केंद्र में बहुसंख्यकवाद नहीं बल्कि बहुलतावाद था। युगों युगों से भारत के लोकाचार और संविधान में यह बहुलतावाद प्रतिबिम्बित हुआ तो अल्पसंख्यकों के लिए यह खुशहाली और प्रगति का कारण बन गया।   वहीं भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश ने बहुसंख्यकों की धर्म पर आधारित व्यवस्थाओं को अंगीकार कर धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को बेरहमी से कुचल दिया। यहीं कारण है की भारत में जहां अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ रही है वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक खत्म होने की कगार पर है। भारत ने अक्सर बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले हमलों और उत्पीड़न के मामलों पर ध्यान आकर्षित किया है। भारत ने बांग्लादेश सरकार से यह अपील की है कि वह अपने अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करे। भारत की कूटनीति का उद्देश्य बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना, बांग्लादेश सरकार से बातचीत करना और कभी-कभी अंतरराष्ट्रीय दबाव का उपयोग करना रहा है।

भारत ने कई बार बांग्लादेश पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए दबाव डाला है लेकिन इस दबाव का प्रभाव सीमित रहा है। बांग्लादेश में हिंदू,बौद्ध और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंसा की  घटनाएं नियमित रूप से घटित होती रही हैं। चाहे वह धार्मिक त्योहारों के दौरान हमले हों या फिर भूमि विवादों के कारण उत्पीड़न, इन घटनाओं की पुनरावृत्ति ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या भारत की कूटनीति इन समस्याओं को पूरी तरह से रोकने में सक्षम रही है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में यह माना जाता है कि राष्ट्रीय राज्य केवल राष्ट्रीय हितों को बनाएं रखने हेतु कार्य करते है। इसलिए वे मानवीय संवेदना व  करुणा के आधार पर हस्तक्षेप नहीं करते। हालांकि नैतिक आधार पर हस्तक्षेप को औचित्यपूर्ण ठहराया जा सकता है। विश्व में मानवीय नरसंहार को रोकने हेतु राजनीतिक हस्तक्षेप के अनेक  उदाहरण है। हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के नरसंहार को लेकर भारत की प्रतिक्रिया पड़ोसी देशों में  कड़ी और भय उत्पन्न करने वाली होना चाहिए। अंततः भारत  को यह समझना होगा की पड़ोसी देशों में धार्मिक कट्टरता और अल्पसंख्यकों के दमन के परिणाम भारत की संप्रभुता और राष्ट्रीय हितों को व्यापक रूप से प्रभावित कर सकते है। भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा की पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यक सुरक्षित रहे,चाहे भारत युद्द से बचाकर अल्पसंख्यकों की रक्षा करें या युद्द में विजय प्राप्त करके।

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