राष्ट्रीय सहारा
बांग्लादेश की वैश्विक साख एक आर्थिक टोकरी के तौर पर तो पुख्ता है लेकिन लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताओं को लेकर भारत का यह पड़ोसी देश वैश्विक आलोचनाओं के केंद्र में है। दरअसल आगामी 7 जनवरी को बांग्लादेश में आम चुनाव होने वाले है। जनतान्त्रिक व्यवस्था का अनिवार्य अंग सत्तारूढ़ दल की आलोचना की आज़ादी को माना जाता है वहीं बांग्लादेश में आलोचनाओं और असहमति को दबाने के लिए बदनाम मौजूदा सरकार के नेतृत्व में ही बिना विपक्ष के संसदीय चुनाव होने जा रहे है।
संसदीय लोकतंत्र की विशेषता सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल की पारस्परिक जवाबदेही की प्रणाली और एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विचार-विमर्श प्रक्रिया में प्रकट होती है। विपक्ष का एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व यह है कि वह साझा मुद्दों पर समन्वय सुनिश्चित करे,संसदीय प्रक्रियाओं पर रणनीति तैयार करे और इनसे अधिक महत्त्वपूर्ण दमित अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करे।
प्रधानमंत्री शेख हसीना किसी अंतरिम सरकार की देखरेख में आम चुनावों की विपक्ष की मांग को ख़ारिज कर चूकी है। देश के प्रमुख विपक्षी दल बीएनपी के नेता नजरबंद या जेल में है। कुछ गिरफ्तारी से बचने के लिए भूमिगत हो गए है। बीएनपी की नेता और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया जेल में है और वह चुनावी मैदान में है ही नहीं। लिहाजा एक बार फिर अवामी लीग की नेता शेख हसीना का देश का प्रधानमंत्री बनना तय है। देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के अधिकांश सहयोगी दल इस आम चुनाव का बहिष्कार कर रहे है,इसलिए यह माना जा रहा है कि सत्तारूढ़ आवामी लीग लगातार चौथी बार संसदीय चुनाव जीतने जा रही है।
कहने को तो बांग्लादेश संसदीय और प्रतिनिधित्ववादी लोकतांत्रिक देश है लेकिन यहां की राजनीतिक व्यवस्था सैन्य और लोकतान्त्रिक सरकारों के अधिनायकवाद से अभिशिप्त रही है। लोकतान्त्रिक देशों में आम तौर पर आम चुनावों में पारदर्शिता बनी रहे इसलिए संविधानिक संस्थाएं आम चुनावों में निष्पक्ष होकर कार्य करती है,जिससे आम जनता का भरोसा बढ़े। बांग्लादेश में 2011 से पहले एक कार्यवाहक प्रणाली थी। इसका उद्देश्य सत्तारूढ़ दलों को चुनावी हेरफेर और धांधली से रोकना था। उस प्रणाली के तहत,जब निर्वाचित सरकार अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लेती थी तो कार्यवाहक प्रशासन तीन महीने के लिए देश के संस्थानों को अपने नियंत्रण में ले लेता था और चुनाव कराता था। इस कार्यवाहक प्रशासन में नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल होते थे। इस प्रणाली के तहत 1996,2001 और 2008 में आम चुनाव कराए गए जिसे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने स्वतंत्र,निष्पक्ष और समावेशी माना। हालांकि सत्तारूढ़ अवामी लीग ने 2011 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद इस प्रणाली को खत्म कर दिया। अब अवामी लीग स्वतंत्र चुनाव करवाने का दावा तो करती है लेकिन इस पर विपक्षी दलों को बिल्कुल भरोसा नहीं है।
बांग्लादेश में दो प्रमुख राजनैतिक दल हैं,अवामी लीग और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी। इसके अलावा अनेक छोटे दल भी हैं,जो दोनों में से किसी एक दल के साथ गठबंधन में हैं। मौजूदा सरकार अवामी लीग की है और उसके सामने प्रमुख चुनौती बीएनपी की रही है जिसकी नेता खालिदा जिय़ा बांग्लादेश की 1991 से 1996 तक तथा 2001 से 2006 तक प्रधानमंत्री रह चूकी हैं। बीएनपी की नीतियां धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा देने वाली रही और इससे बांग्लादेश का उदार तबका बेहद आतंकित रहा है। बीएनपी की सत्ता में अवामी लीग के नेताओं को जमकर निशाना बनाया गया था और इस दौर में इस्लामिक कट्टरवाद का देश में खूब फलाफूला। तकरीबन डेढ़ दशक से शेख हसीना बांग्लादेश की प्रधानमंत्री है। 2009 में अवामी लीग के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने अपनी प्रतिद्वंद्वी ख़ालिदा जिया की पार्टी बीएनपी की अहम सहयोगी जमात ए इस्लामी के शीर्ष नेताओं पर जनसंहार और युद्ध अपराधों को अंजाम देने के मुक़दमे चलाए। 2013 से अब तक जमात के कई नेताओं को फांसी और उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई जा चुकी है। इस समय जमात ए इस्लामी के आम चुनावों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध है और बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने देश की सबसे बड़ी इस्लामी पार्टी को आम चुनावों में हिस्सा देने की इजाज़त देने से इनकार कर दिया है।
शेख हसीना का कार्यकाल बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति और महिलाओं के लिए वरदान माना जाता है। बांग्लादेश ने अपनी अर्थव्यवस्था में मैन्युफ़ैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ाया है। यह एक अहम बात है क्योंकि इस सेक्टर से बहुत से लोगों को ऐसा रोज़गार मिलता है जिसमें बहुत अधिक कौशल की ज़रुरत नहीं होती। ख़ास तौर से गारमेंट्स मेन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर में, जिसमें बांग्लादेश एक चैंपियन है,इस सेक्टर में बड़ी संख्या में महिलाएं काम करती हैं। गौरतलब है की बांग्लादेश एक मुस्लिम बहुल राष्ट्र है जो कभी दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में शुमार था लेकिन शेख हसीना ने मजबूत आर्थिक नीतियों के बूते इस देश का काया कल्प कर दिया है। अब यह देश सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जो भारत जैसी विशाल अर्थव्यवस्था से भी आगे निकल रही है। इसकी प्रति व्यक्ति आय बीते दशक में तीन गुनी हो गई है और वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि बीते 20 सालों में ढाई करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी से निकले हैं।
इन सबके बीच बांग्लादेश में लोकतंत्र की स्थिति को दुनियाभर में चिंताजनक बताया जा रहा है। वैश्विक संस्थाओं ने बांग्लादेश की कड़ी आलोचना की है। बांग्लादेश की विपक्षी पार्टियां वैश्विक संस्थाओं और यूरोपीय देशों से यह अपील कर रही है की वह शेख हसीना पर दबाव बनाएं। अमेरिका और यूरोप ने यह साफ कर दिया है कि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं होगा। लेकिन फिर भी भारत समेत वैश्विक संस्थाएं बांग्लादेश की मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना के सत्ता में बने रहने को ज्यादा बेहतर मानते है। भारत के लिए सबसे चिंता का मुद्दा है दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया में आतंकवादी संगठनों का पैर पसारना है। भारत नहीं चाहता कि बांग्लादेश में इन संगठनों की गतिविधियां बढ़ें जिससे भारत को ख़तरा हो। ख़ासतौर पर दोनों देशों की सीमा से लगे इलाकों में इसके संकेत मिले हैं,लेकिन शेख़ हसीना सरकार ने काफी हद तक इन पर अंकुश लगाने के प्रयास भी किये हैं।
बांग्लादेश में धार्मिक कट्टरवाद से जकड़ा हुआ समाज का बड़ा तबका वैश्विक समस्या न बन जाएं,इसे लेकर भारत समेत दुनिया के कई देश सतर्क रहते है। भारत और यूरोपीय दबाव के चलते यदि बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन होता है तो उसमें कट्टरपंथ मजबूत होगा वहीं वैश्विक हस्तक्षेप से नाराज होकर शेख हसीना कहीं चीन की शरण में न चली जाएं,यह आशंका भी बनी हुई है। बहरहाल राजनीतिक अस्थिरता और धार्मिक असहिष्णुता का यही अंदेशा शेख हसीना के लिए संजीवनी बन गया है।
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बांग्लादेश में बिना विपक्ष के चुनाव,राष्ट्रीय सहारा
- by brahmadeep alune
- January 5, 2024
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