राष्ट्रीय सहारा
मध्य पूर्व में चीन अपने आर्थिक सहयोग मॉडल वन प्लस टू प्लस थ्री को नई रफ्तार देने में कामयाब हो गया है। इसमें सबसे पहले ऊर्जा,दूसरे क्रम पर बुनियादी ढांचे के निर्माण,व्यापार और निवेश को बढ़ावा देना तथा अंत में नाभिकीय ऊर्जा,एयरोस्पेस सैटेलाइट्स और नई ऊर्जा जैसे हाई-टेक क्षेत्रों में अहम कामयाबियों का नंबर आता है। दरअसल मध्य पूर्व में वर्चस्व की होड़ वाले ईरान और सऊदी अरब कई वर्षो के बाद कूटनीतिक रिश्तें बहाल कर चीन की अगुवाई वाली नई व्यापारिक व्यवस्था के साथ अब आगे बढ़ने जा रहे है। शिया सुन्नी हिंसक संघर्ष को लेबनान,सीरिया,इराक़ और यमन समेत मध्य पूर्व के कई देशों में बढ़ावा देने वाले ईरान और सऊदी अरब का आपसी सहयोग के लिए तैयार होना मध्यपूर्व के लिए अभूतपूर्व घटना है। इससे दुनिया के सबसे खतरनाक और अस्थिर क्षेत्र में शांति स्थापित होने की उम्मीदें भी बढ़ गई है।
इन सबके बीच अमेरिकी कूटनीतिक नाकामियों वाले इलाकों पर इस समय चीन की गहरी नजर है और मध्यपूर्व में उसके आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं भी नजर आती है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के कुछ वर्षों पहले पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी विदेश नीति में पूर्वी इलाक़े और एशिया-पैसिफिक क्षेत्र को तवज्जो देने का ऐलान किया,तब ही अरब देशों को लगा कि वह अपनी सुरक्षा ज़रूरतों के लिए अमेरिका पर और ज़्यादा विश्वास नहीं कर सकता। हालांकि अमेरिका अभी भी सऊदी अरब की सुरक्षा की गारंटी देने वाला देश है और हथियारों के मामले में उसका प्रमुख निर्यातकर्ता है। लेकिन अब अरब देश अपने राजनयिक रिश्तों को आर्थिक हितों से जोड़ रहे है और इसका फायदा चीन को मिलने लगा है। कई वर्षो से चीन अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत कई देशों में करोड़ों डॉलर का निवेश करता रहा है। चीन और खाड़ी देशों के बीच मुक्त व्यापार को लेकर वार्ताएं करीब एक दशक से चल रही है। चीन इस इलाके में शांति स्थापित करके न केवल अपने व्यापरिक साम्राज्य को बढ़ाने को कृतसंकल्पित है बल्कि वह सामरिक बढ़त भी लेना चाहता है। वैश्विक स्तर पर इस सहयोग का व्यापार से ज्यादा कूटनीतिक प्रभाव देखने को मिल सकता है।
दरअसल मध्यपूर्व में महाशक्तियों के बहुत सारे हित है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति संतुलन को लेकर एक महत्वपूर्ण मान्यता है। जिसके अनुसार राष्ट्रों के महत्वपूर्ण हितों को या तो खतरा उत्पन्न होता है या उनके लिए संकट की सम्भावना हमेशा बनी रहती है। यदि ऐसा न होता तो राष्ट्रों को उनकी रक्षा के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती। महाशक्तियों के हित और शक्ति संतुलन के बीच तेल संपदा का भी एक महत्वपूर्ण द्वंद है जो शह और मात के खेल को पश्चिम एशिया तक खींच लाता है। ये महाशक्तियां मध्यपूर्व की राजनीति,कूटनीति और आर्थिक नीति को रणनीतिक रूप से प्रभावित करने के लिए शह और मात का खेल खेलती रही है। इसमें तेल की राजनीति के साथ मजहब की ज़ोर आजमाइश को बढ़ावा दिया गया है। विश्व के सम्पूर्ण उपलब्ध तेल का लगभग 66 प्रतिशत ईरान की खाड़ी के आसपास के इलाकों जिसमें मुख्य रूप से कुवैत,ईरान और सऊदी अरब में पाया जाता है। सोवियत संघ और अमेरिका तो तेल के मामले में आत्मनिर्भर है लेकिन यदि यूरोप को इस इलाके से तेल प्राप्त होना बंद हो जाये तो उसके अधिकांश उद्योग धंधे बंद हो जाएंगे और इस प्रकार दुनिया के सबसे बड़े विकसित यूरोप महाद्वीप की औद्योगिक और सामरिक क्षमता बर्बाद हो जाएगी। यही कारण है कि पश्चिमी देश मध्य पूर्व पर अपना नियंत्रण बनाएँ रखना चाहते है। इस स्थिति को चीन ने बदलने की ओर मजबूती से कदम बढ़ाएं है।
अमेरिका और यूरोप खाड़ी देशों के मध्य विवाद को बढ़ाकर अपना प्रभाव कायम किया वहीं चीन की नीति थोड़ी अलग है। चीन नकारात्मक संतुलनकारी उपायों,यानी एक पक्ष के साथ रिश्ते ख़राब होने के डर से दूसरे पक्ष के साथ सहयोग को सीमित करने की क़वायदों से परहेज़ करना चाहता है क्योंकि इस तरह इलाक़े में चीन की गतिविधियों का दायरा सीमित हो जाएगा। चीन सभी को साथ लेकर ही अपनी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ा सकता है। इसके लिए जरूरी था ईरान और सऊदी अरब की प्रतिद्वंदिता को रोकना,अब इस कठिन और दुष्कर कार्य को करने में सफल होकर चीन में अहम बढ़त हासिल कर ली है।
2011 की अरब क्रांति के बाद मध्यपूर्व के कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है और इसका व्यापक असर ईरान और सऊदी अरब की प्रतिद्वंदिता पर हुआ है। इन स्थितियों में नये राजनीतिक और सामरिक समीकरण भी बने और दुश्मन का दुश्मन दोस्त की तर्ज पर इजराइल तथा सऊदी अरब के सम्बन्धों में अप्रत्याशित रूप से ईरान के विरोध को लेकर लगातार एकरूपता दिखाई दी थी। यह ईरान और सऊदी अरब की दुश्मनी को बढ़ाने का अमेरिका का तरीका था। द्वितीय विश्व युद्द के बाद खाड़ी के देशों में आपसी संघर्ष लगातार बढ़ा पर इसे रोकने में न तो अमेरिका ने दिलचस्पी दिखाई और न ही यूरोप के कोई प्रभावी प्रयास किए। इसके विपरीत खाड़ी देशों के तेल संसाधनों के दोहन में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई गई।
गहरें धार्मिक और सामरिक मतभेदों के चलते ईरान और सऊदी अरब को साथ ले आना बेहद अकल्पनीय माना जाता था जिसे चीन ने अब संभव कर दिखाया है। इसका फायदा पाकिस्तान को मिल सकता है पर भारत की चिंताएं बढ़ सकती है। ईरान भारत के लिए सामरिक और आर्थिक रूप से बेहद अहम राष्ट्र है। यह यूरेशिया और हिन्द महासागर के मध्य एक ऐसा प्रवेश द्वार है जहां से भारत की पहुंच यूरोप और रूस के बाजारों तक आसानी से हो सकती है। दो दशक पहले एक उत्तर दक्षिण कॉरिडोर के निर्माण का जो सपना भारत ने देखा था,वह ईरान के सहयोग के बिना कभी पूरा हो ही नहीं सकता। 2014 में भारत ने उत्तर दक्षिण पारगमन गलियारे के आस पास एक सफल ट्रायल रन का आयोजन किया था। भारत अफगानिस्तान और मध्य एशिया क्षेत्र के लैंड लॉक्ड देशों के साथ सम्पर्क बढ़ाने की नीति पर लगातार काम कर रहा है। पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए भी ईरान भारत का मददगार है। पाकिस्तान की भारत के साथ सबसे लंबी सीमा रेखा है वहीं इसके बाद अफगानिस्तान और ईरान है। ये तीनों राष्ट्र पाकिस्तान की सामरिक घेराबंदी कर पाकिस्तान पर दबाव डाल सकते है। इस प्रकार ईरान भारत के लिए सामरिक और आर्थिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण देश है।
अब मध्य पूर्व में चीन की बढ़ती भूमिका से भारत के आर्थिक और सामरिक हित प्रभावित होने की आशंका तो बढ़ी ही है वहीं यूरोप और अमेरिका की मुश्किलें भी बढ़ सकती है। तेल के भंडार वाले इन देशों को अपने प्रभाव में लाकर चीन यूरोप के व्यापारिक ढांचे को अस्त व्यस्त कर सकता है। वैश्विक स्तर पर डॉलर पर आधारित व्यवस्था को चीन चुनौती देना चाहता है और ऐसे में युआन उसका बड़ा विकल्प हो सकती है। यूक्रेन रूस संघर्ष के बाद चीन और रूस के बीच व्यापार में युआन को प्राथमिकता देना महज संयोग नहीं है। जाहिर है चीन,रूस,ईरान जैसे अमेरिकी विरोधी गठबंधन में अमेरिका के मित्र राष्ट्र सऊदी अरब और कतर भी शामिल हो जाएँ तो यह नई विश्व व्यवस्था के उभरने के संकेत है।
#ब्रह्मदीप अलूने
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