नवभारत,भोपाल
यूरोप का राजनीतिक इतिहास तानाशाही और लोकतंत्र के बीच निरंतर संघर्ष का है। 1917 की रूसी क्रांति,1920–30 के दशक का फासीवाद और 1933 के बाद का नाज़ीवाद ऐसे दंश है जिससे यूरोप अब भी कराहता है और दहशत में रहता है। यह दौर यूरोप को उस अंधकार में ले गया था जहां से निकलने में दशकों लग गए। द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका,यहूदियों का सामूहिक संहार और करोड़ों लोगों की मौत ने यूरोप को सिखाया कि तानाशाही सत्ता पर पूर्ण नियन्त्रण करके युद्दोंमाद को बढ़ाती है तथा इसका दूरगामी परिणाम सभ्यता का विनाश तक हो सकता है। 1917 की रूसी क्रांति ने यूरोप को पहली बार व्यावहारिक साम्यवादी तानाशाही से परिचित कराया। व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने सत्ता संभाली और एक सोवियत समाजवादी गणराज्य की स्थापना की। इस क्रांति ने पूरे यूरोप में यह आशंका फैलाई कि वैचारिक उथल-पुथल राजनीतिक असंतुलन को जन्म देकर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को खत्म कर सकती है।
रुसी क्रांति के दो साल बाद,1919 में, इटली में बेनिटो मुसोलिनी ने फासीवादी पार्टी की स्थापना की। प्राचीन रोम के फासिस प्रतीक पर आधारित यह विचारधारा शक्ति और राष्ट्रवाद के चरम रूप का प्रतिनिधित्व करती थी। इटली का यह प्रयोग जल्द ही स्पेन और अन्य लैटिन देशों तक फैल गया। 1923 में स्पेन में जनरल मिगुएल प्रिमो डी रिवेरा ने लोकतंत्र को खत्म कर मार्शल लॉ लागू किया। आगे चलकर 1936 में फ्रांसिस्को फ्रैंको ने जर्मनी और इटली की मदद से स्पेन में फ़ासीवादी शासन स्थापित किया। यह यूरोप के लिए गहरी चेतावनी थी कि लोकतंत्र कितनी जल्दी तानाशाही में बदल सकता है। यूरोप की सबसे भयावह तानाशाही एडोल्फ हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी में विकसित हुई। नाज़ी प्रतीक स्वस्तिक ने केवल राजनीतिक शक्ति नहीं बल्कि नस्लीय वर्चस्व और सामूहिक संहार की वैचारिक योजना को जन्म दिया। हिटलर की विकृत नस्लवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप यूरोप की धरती पर ऐसे मृत्यु शिविर खड़े किए गए, जहां यहूदी,जिप्सी,विकलांग,राजनीतिक विरोधी और लाखों निर्दोष लोग बेरहमी से मौत के घाट उतार दिए गए। हिटलर और फासीवादी गठबंधन की आक्रामकता ने द्वितीय विश्व युद्ध को जन्म दिया,जो मानव इतिहास का सबसे विनाशकारी संघर्ष बना। इस युद्ध में करीब 6 करोड़ लोग मारे गए। अकेले यूरोप में 2 करोड़ लोगों की जान गई। नाज़ी नरसंहार शिविरों में 60 लाख यहूदियों सहित लाखों अन्य निर्दोषों का योजनागत तरीके से संहार हुआ। इससे जर्मनी स्वयं भी बर्बाद हो गया।
1945 के बाद यूरोप ने तानाशाही से दूर रहने के लिए यूरोपीय संघ का निर्माण किया जिससे राजनीतिक व आर्थिक साझेदारी युद्धों और तानाशाही की पुनरावृत्ति रुक सके। इसके साथ ही विभिन्न संवैधानिक व्यवस्थाओं ने नागरिक स्वतंत्रताओं को लोकतंत्र का मूल आधार बनाया। आज यूरोप की सबसे बड़ी चिंता रूस है। व्लादिमीर पुतिन की नीतियों में यूरोप को 20वीं शताब्दी की तानाशाही की गूंज सुनाई देती है। पुतिन,जोसेफ़ स्टालिन की राह पर है। स्टालिन ख़ुद को देशभक्त और मसीहा नेता के तौर पर प्रचारित करते थे तथा लोकप्रियता की आड़ में विरोधियों को मरवा देते थे। स्टालिन ने लाखों लोगों को मरवा दिया था। पुतिन भी अपने विरोधियों का वहीं हश्र कर रहे है। पुतिन की कार्यशैली और नीतियों का विरोध करने वालों तथा रूस में असंतोष की आवाज़ उठाने वाले विपक्ष को लगभग ख़त्म कर दिया गया है। पुतिन ने राजनीतिक विरोधियों को कैद किया और दूसरों को उनके खिलाफ लड़ने से क़ानूनी या बलपूर्वक रोक दिया। यूरोप बखूबी जानता है कि तानाशाही सिर्फ शासन प्रणाली नहीं होती है,यह युद्ध,शरणार्थी संकट,नरसंहार और लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन का दूसरा नाम है। रूस के हमलें के बाद यूक्रेन सड़े लाखों लोग यूरोप के दूसरे क्षेत्रों में जा रहे है और इससे बड़ा शरणार्थी संकट उत्पन्न हो गया है। यूरोप तानाशाही से इसलिए डरता है क्योंकि उसकी सामूहिक स्मृति में हिटलर,मुसोलिनी और स्टालिन के शासन की भयावह छाया अब भी मौजूद है। पुतिन की आक्रामक नीतियां लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चुनौती है। यह यूरोप के लिए वह केवल वर्तमान चुनौती नहीं, बल्कि अपने अतीत की डरावनी यादों की पुनरावृत्ति भी है। इसीलिए यूरोप बार-बार अमेरिका और नाटो की ओर देखता है। पुतिन का इतना खौफ है कि पचास करोड़ यूरोपीय,तीस करोड़ अमेरिकियों से चौदह करोड़ रूसियों के ख़िलाफ़ सुरक्षा की गारंटी मांग रहे हैं। यूरोप एक ऐसा भूभाग है जिसकी सीमाएं ज्यादातर ऐतिहासिक समझौते,युद्धों और साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धाओं के परिणामस्वरूप बनीं। यह सीमाएं राजनीतिक और सैन्य संतुलन की उपज हैं। यही कारण है कि यूरोपीय समाज बार-बार शक्ति संतुलन और राजनीतिक स्थिरता को लेकर असुरक्षित महसूस करता रहा है।
रूस एक अंतरमहाद्वीपीय राष्ट्र है,जो पूर्वी यूरोप और उत्तरी एशिया तक फैला हुआ है। हालांकि इसे सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से यूरोपीय ही माना जाता है। यूरोप का पूंजीवाद रुसी प्रभाव से आशंकित रहा है और उसे रूस की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नजदीकियां भी मंजूर नहीं है। यूरोप ने हजारों मील की दूरी पर स्थित अमेरिका को अपना सुरक्षा कवच बनाने का जोखिम उठाया था। जैसे ही ट्रम्प ने साम्यवाद और पूंजीवाद की राजनीतिक दूरियों को आर्थिक संरक्षणवाद की नीति के आगे बौना साबित करने की कोशिश की तो इसकी दहशत से यूरोप कंपकंपाने लगा है। रूस के साथ बेहतर सम्बन्ध प्रबंधित करने का ट्रम्प के तरीके को जेंलेंसकी के सार्वजनिक अपमान की कोशिशों के तौर देखा गया है जिससे यूरोप में गुस्सा और चिंताएं है। पूर्वी यूरोप में स्थित यूक्रेन की भू रणनीतिक स्थिति रूस और यूरोप के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इसकी सीमा उत्तर में बेलारूस,पश्चिम में पोलैंड,स्लोवाकिया और हंगरी से लगती है। जबकि दक्षिण-पश्चिम में रोमानिया और माल्दोवा से लगती है,यूक्रेन के दक्षिण में काला सागर है। 2014 में यूक्रेन युद्ध का मैदान बन गया जब रूस ने क्रीमिया पर कब्ज़ा कर लिया और देश के दक्षिण-पूर्व में डोनबास क्षेत्र में अलगाववादियों को हथियार और सहायता देना शुरू कर दिया। रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्ज़ा करना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार था जब किसी यूरोपीय राज्य ने किसी दूसरे देश के क्षेत्र पर कब्ज़ा किया हो।
ट्रम्प के पहले संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता की बहाली के लिए प्रतिबद्धता दिखाता रहा और उसने रूस द्वारा अवैध रूप से कब्जा किए गए अन्य क्षेत्रों पर रूस के दावों को मान्यता नहीं दी। ट्रम्प अमेरिका के पुराने रुख से हट गए है। यह यूक्रेन का नहीं बल्कि पूरे यूरोप का संकट समझा जा रहा है। यूरोप की सुरक्षा में अमेरिकी सेना का अहम योगदान है। यूरोप पर अमेरिकी सुरक्षा गारंटी की स्थिति में बदलाव से ना केवल रूस की आक्रामकता बढ़ेगी,बल्कि यूरोपीय गठबंधन भी कमजोर पड़ सकते हैं। यूरोप यूक्रेन को उन्नत हथियार प्रदान करने और उनके उपयोग पर प्रतिबंधों को शिथिल करने में साहस तो दिखा रहा है,यह सहायता यूक्रेन के लिए अपनी अधिकांश रक्षात्मक रेखाओं को बनाए रखने के लिए पर्याप्त है, लेकिन अपने सभी खोए हुए क्षेत्रों को वापस पाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
अलास्का में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से ट्रंप की मुलाक़ात से संशय में पड़े ब्रिटिश पीएम कीर स्टार्मर,फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैंक्रो,जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिक मर्ज,इटली की पीएम जियोर्जिया मेलोनी और फिनलैंड के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर स्टब,नाटो के महासचिव मार्क रुटे यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन,जेलेंस्की के साथ अमेरिका पहुंचे तो इसके पीछे यूरोप के सर्वोच्च नेताओं का यहीं डर था कि कहीं ट्रम्प यूक्रेन को लेकर पुतिन से कोई ऐसी सौदेबाजी न कर ले जो यूरोप के लिए जानलेवा बन जाएं। बहरहाल ट्रम्प आगे क्या करने वाले है,इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं की पुतिन यूक्रेन से जीते हुए क्षेत्रों को अब लौटाने वाले नहीं है। यूरोप इस बात को बखूबी जानता है,पुतिन की तानाशाही से निपटने की ताकत अकेले यूरोप में नहीं है और ट्रम्प का पुतिन परस्त रुख यूरोप की चिंता को बढ़ा रहा है।
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तानाशाहों के युद्दोंमाद से क्यों डरता है यूरोप
- by brahmadeep alune
- August 24, 2025
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