सुबह सवेरे
भगवान परशुराम युगों युगों से एकाकी नायक है तभी तो वे राम के काल में भी थे और कृष्ण के काल में भी उनके होने की चर्चा होती है। वे चिरंजीवी है और इसीलिए यह शाश्वत सत्य है कि कल्प के अंत तक वे धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे।
परशुराम सम्पूर्णता का नाम है,सम्पूर्णता ऐसी की समस्त पृथ्वी् ही ऋषि कश्यप को दान कर दी। परशुराम मनुष्य है जो हर काल में सबके साथ है। वे देवता है जिनका प्रभाव सम्पूर्ण सभ्यता पर है। वे स्पष्ट है अपने लक्ष्य के प्रति जो मानव जाति को धर्म की और ले जाता है। वे रहस्य है और चारों दिशाओं में प्रतिबिम्बित होते है। वे योगी है जिन्हें पृथ्वी पर कोई लोभित नहीं कर पाया। वे संत है जो चिर साधना में रत है। वे चिंतक है जिनकी दृष्टि में सम्पूर्ण जग का उद्धार है। वे संन्यासी है जिनके आगे ईश्वर भी नतमस्तक है और इन सबसे बढ़कर वे निर्लिप्त है।
त्रेता युग में परशुराम रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर क्रुद्ध होकर आये थे। राम को देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही और उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा,राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज़ पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज़ को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम की इस अद्भुत वीरता को देखकर परशुराम अभिभूत हुए और अपनी दिव्य दृष्टि ने यह जान लिया कि रामचन्द्र स्वयं विष्णु के अवतार हैं। इसलिए परशुराम राम की वन्दना करके तपस्या करने चले गये। मर्यादा पुरुषोत्तम राम परशुराम के तप,ज्ञान,त्याग और समर्पण से अभिभूत हुए और इसीलिए उन्हें अपने यथार्थ स्वरूप के दर्शन भी दिए थे। वास्तव में परशुराम राम के ही प्रतिरूप ही.किन्तु शिवद्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाएं।
भगवान परशुराम ने द्वापर युग में ईर्ष्या,लोभ,मद,माया,स्वार्थ और षड्यंत्र से मानव जाति को उबारने में मदद करने के लिए भीष्म, द्रोण व कर्ण जैसे शूरवीरों का मार्गदर्शन किया था। गुरु की आज्ञा के प्रति श्रद्धा ऐसी की क्षत्रियों के विनाश के बाद कश्यप मुनि ने जब उन्हें पृथ्वी छोड़ने को कहा तो वे महेंद्रगिरी के महेंद्र पर्वत चले गए और तपस्या में लीं हो गए। उन्हें कलयुग में भी ऋषि के रूप में पूजा जाता है,वे सम्पूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करने वाले ऐसे आठवें मानव तारे है जिन्हें सप्त ऋषि के रूप में गिना जाता है।
योगी और संत के बाद योद्धा के रूप में उनका जीवन हमारी सभ्यता और संस्कृति में स्थापित मूल्यों के प्रति आग्रह का प्रतिरूप है। परशुराम में क्षत्रिय धर्म निभाकर दुरात्माओं का संहार करने की जिजीविषा इतनी की ब्रह्मांड अस्त्र,वैष्णव अस्त्र तथा पशुपत अस्त्र से सुसज्जित होने का गौरव प्राप्त हुआ। काम,क्रोध,मद,मोह,लोभ,अभिमान,ईर्ष्या,मन, बुद्धि और अहंकार के बीच झूलता हुए कार्तवीर्य अर्जुन ने बाणों से समुद्र को त्रस्त कर किसी परम वीर के विषय में पूछा। समुद्र ने उसे परशुराम से लड़ने को कहा। शक्ति के अहंकार में डूबे कार्तवीर्य अर्जुन ने भगवान परशुराम को उसने अपने व्यवहार से बहुत रुष्ट कर दिया।
अतः परशुराम ने उसकी हज़ार भुजाएँ काट डालीं,यहीं नहीं अन्याय और मानव धर्म की स्थापना के लिए ही भगवान परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर डाला।
पिता की प्रति निष्ठा ऐसी की उनके आदेश पर मां का वध कर दिया,विवेक और विद्वत्ता ऐसी की पिता ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा तो पुनः अपनी मां का जीवन मांग लिया। शक्ति से उत्त्पन्न अहंकार और उससे बढ़ती धृष्टता को समाप्त कर न्याय स्थापित करने की जिजीविषा ऐसी की क्षत्रियों का नाश कर दिया। शस्त्रविद्या मे निपुणता इतनी की भीष्म,द्रोण व कर्ण जैसे शूरवीरों उनके शिष्य बने। शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता सिर्फ और सिर्फ भगवान परशुराम ही माने जाते हैं। पृथ्वी में खुशहाली लाने के लिए ही उन्होंने पर्वत काट कर कुण्ड से एक धारा निकाली, जिसका नाम ब्रह्मकुण्ड से निकलने के कारण ब्रह्मपुत्र हुआ। जहां ब्रह्मपुत्र नदी पर्वत से पृथ्वी पर अवतीर्ण होती है,वहां आज भी परशुराम-कुण्ड मौजूद है,यह अनादी काल से परम पवित्र तीर्थ माना जाता है।
भगवान परशुराम के कठिन तप से प्रसन्न होकर ही विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया है। शस्त्र की दिव्यता,शास्त्र की अलौकिकता,दान की पराकाष्ठा,त्याग की श्रेष्ठता,मानव धर्म स्थापित करने की आकांक्षा और अपने अद्भुत शौर्य से समूचे जग को प्रज्वलित करने के लिए भगवान परशुराम युगों युगों से पूजनीय है।
#ब्रह्मदीप अलूने
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